बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो
खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो
उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो
अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो
दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो.
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ...
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ-साथ
बचपने का साथ, फिर एक से दोनों के दुख
रात का और मेरा आँचल भीगता है साथ-साथ
वो अजब दुनिया कि सब खंज़र-ब-कफ़ फिरते हैं और
काँच के प्यालों में संदल भीगता है साथ-साथ
बारिशे-संगे-मलामत में भी वो हमराह है
मैं भी भीगूँ, खुद भी पागल भीगता है साथ-साथ
लड़कियों के दुख अजब होते हैं, सुख उससे अज़ीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ
बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा किसान
जिस्म और इकलौता कंबल भीगता है साथ-साथ.
तुझसे तो कोई गिला नहीं है...
तुझसे तो कोई गिला नहीं है
क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है
बिछड़े तो न जाने हाल क्या हो
जो शख़्स अभी मिला नहीं है
जीने की तो आरज़ू ही कब थी
मरने का भी हौसला नहीं है
जो ज़ीस्त को मोतबर बना दे
ऎसा कोई सिलसिला नहीं है
ख़ुश्बू का हिसाब हो चुका है
और फूल अभी खिला नहीं है
सहशारिए-रहबरी में देखा
पीछे मेरा काफ़िला नहीं है
इक ठेस पे दिल का फूट बहना
छूने में तो आबला नहीं है
गिला=शिकायत; सिला=सफलता; ज़ीस्त=जीवन; मोतबर=विश्वसनीय; सरशारिए-रहबरी=नेतृत्व के पूर्ण हो जाने पर; आबला=छाला
हमारे दरमियाँ ...
हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंज़ीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के तबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाये तो
पूरा तसर्रुफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की
प्यार ..
अब्र-ए-बहार ने
फूल का चेहरा
अपने बनफ़्शी हाथ में लेकर
ऐसे चूमा
फूल के सारे दुख
ख़ुशबू बन कर बह निकले हैं.
बस इतना याद है ...
दुआ तो जाने कौन-सी थी
ज़ह्न में नहीं
बस इतना याद है
कि दो हथेलियाँ मिली हुई थीं
जिनमें एक मेरी थी
और इक तुम्हारी.
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी...
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
सुपुर्द कर के उसे चांदनी के हाथों
मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी
वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी
वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी
बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी
अब उस का फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुन्गुनाऊँगी
[मनसूब= जुडा हुआ]
जवज़ ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उस को भूल जाऊँगी
[जवज़=कारण]
सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी.
No comments:
Post a Comment