होकर सारे बनजारे मजबूर चले
धीरे-धीरे गुजर गए सारे पुरखे
संग मुक़म्मल उनके सब दस्तूर चले
ख़ुद्दारी से जीने वाले हैं घर में
पैर पकड़ने वाले हो मशहूर चले
ऑक्टोपड ने लूट लिया हर महफ़िल को
जोगी लेकर इकतारे संतूर चले
सूरज निकला चीर अँधेरा सुबह हुई
रक्ख पराती माथे पर मजदूर चले
भभग उठी चिंगारी दिल में लोगों के
होकर जब हम राहों से मग़रूर चले
हम थे कुछ हुशियार न आए क़ाबू में
व्यूह अगरचे दुश्मन ने भरपूर चले
(२)
होता है कब अमर बुलबुला पानी का
शोक करो मत तुम भी जीवन फ़ानी का
कौन बचाए सर्दी से उनको जिनने
पहन रखा पहनावा मच्छरदानी का
नेकी रहती है मुद्दत तक दुनिया में
मग़र रुका है यश कब बेईमानी का
सोच समझकर काम करो सब जीवन में
कौन दिया है साथ भला नादानी का
जितने किस्से गढ़ना है तुम गढ़ डालो
बेहद कम होता है वक़्त जवानी का
फ़क़त अहम के कारण लंका उजड़ गई
होता हश्र बुरा हरक़त बचकानी का
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