अरमान मिरे दिल के निकल क्यों नहीं जाते।
आखों से वो गुज़रे हुए कल क्यों नहीं जाते
यादों से शबे हिज्र के पल क्यों नहीं जाते।
गिरते हुए लोगों को उठाते हुए अकसर
हम अपने ही पैरों पा संभल क्यों नहीं जाते।
पत्थर का जिगर रखते हुए सीनों में अपने
हम मोम की मानिंद पिघल क्यों नहीं जाते।
ख़ुरशीद की मानिन्द उभरने की तलब है
फिर मिस्ले क़मर सुब्ह को ढल क्यों नहीं जाते।
छप्पर के मकानात तो जल जाते हैं अकसर
शीशे के मकानात भी जल क्यों नहीं जाते।
मंज़िल है निगाहों में तो किस बात का डर है
काटों को सरे राह कुचल क्यों नहीं जाते।
लोगों को बदल पाना तो दुश्वार है,
लोगों के लिए ख़ुद ही बदल क्यों नहीं जाते।
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