आज मग्न अश्रुओं से यह अंतिम काम करता हूं ।।
अठखेलियाँ हुईं बहुत माता के आँचल में
सुबह के सूर्य को अब मैं पिता के नाम करता हूं ।।
उत्तरा के प्रश्नों के उत्तर ना दे पाऊं
पहर जब यह विषेश ना लौट कर आए मैं डरता हूं ।।
रचा यह रक्त के धागों से कुरूक्षेत्र जीवन का
बाल से सिंह हो जाऊं इस व्यूह में गर भय-हीन लड़ता हूं ।।
महारंभ हो संहार लीला जब आर्यपुत्रों की
नत-मस्तक स्वयं शिव हो जाएं ऐसी मृत्यु वरता हूं ।।
प्रतीक्षा में खड़ा था भूमी का जो खंड रात में
उठा कर शीश अपना, प्रणाम उसका स्वीकार करता हूं ।।
समस्त शिविरों को मैं सौभद्र प्रणाम करता हूं
आज मग्न अश्रुओं से यह अंतिम काम करता हूं ।।
(अभिमन्यू की मृत्यु के बाद समय कैसे उसे श्रद्धांजली देता है )
अर्जुन भी हूं, कृष्ण हूं, मैं ही सुभद्रा हूं
परंतु शौर्य गान अभिमन्यू का ही सदैव करता हूं ।।
पहिया काठ का उस महायोद्धा ने था जैसे उठा लिया
मैं ब्रह्मास्त्र हूं पर लज्जा से हर क्षण ही मरता हूं ।।
धरा पर जब गिरा था कृष्ण का वो शिष्य तेजस्वी
मैं नंगे पाँव था दौड़ा सोच इसे झोली में भरता हूं ।।
महाभारत कि यह गाथा जब जाए शिला पर लिखी
छुए थे द्रोण ने भी पाँव उस के, स्वर्णाक्षरों में गढ़ता हूं ।।
समस्त शिविरों को मैं विजयी प्रणाम करता हूं
आज मग्न अश्रुओं से यह अंतिम काम करता हूं ।।
-अंकित पराशर
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