Sunday, May 17, 2020

नसीर तुराबी की शायरी

वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी

वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
न अपना रंज न औरों का दुख न तेरा मलाल
शब-ए-फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी

मोहब्बतों का सफ़र इस तरह भी गुज़रा था
शिकस्ता-दिल थे मुसाफ़िर शिकस्ता-पाई न थी
अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी

बिछड़ते वक़्त उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी
किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन
सदा तो आई थी लेकिन कोई दुहाई न थी

कभी ये हाल कि दोनों में यक-दिली थी बहुत
कभी ये मरहला जैसे कि आश्नाई न थी
अजीब होती है राह-ए-सुख़न भी देख 'नसीर'
वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी.

मिलने की तरह मुझ से वो पल भर नहीं मिलता...

मिलने की तरह मुझ से वो पल भर नहीं मिलता ,
दिल उस से मिला जिस से मुक़द्दर नहीं मिलता .
ये राह-ए-तमन्ना है यहाँ देख के चलना ,
इस राह में सर मिलते हैं पत्थर नहीं मिलता .

हमरंगी-ए-मौसम के तलबगार न होते ,
साया भी तो क़ामत के बराबर नहीं मिलता .
कहने को ग़म-ए-हिज्र बड़ा दुश्मन-ए-जाँ है ,
पर दोस्त भी इस दोस्त से बेहतर नहीं मिलता .

कुछ रोज़ 'नसीर' आओ चलो घर में रहा जाए ,
लोगों को ये शिकवा है कि घर पर नहीं मिलता .
 
इस कड़ी धूप में साया कर के...

इस कड़ी धूप में साया कर के
तू कहाँ है मुझे तन्हा कर के
मैं तो अर्ज़ां था ख़ुदा की मानिंद
कौन गुज़रा मिरा सौदा कर के

तीरगी टूट पड़ी है मुझ पर
मैं पशीमाँ हूँ उजाला कर के
ले गया छीन के आँखें मेरी
मुझ से क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा कर के

लौ इरादों की बढ़ा दी शब ने
दिन गया जब मुझे पसपा कर के
काश ये आईना-ए-हिज्र-ओ-विसाल
टूट जाए मुझे अंधा कर के

हर तरफ़ सच की दुहाई है ‘नसीर’
शेर लिखते रहो सच्चा कर के.

मैं भी ऐ काश कभी मौज-ए-सबा हो जाऊं...

मैं भी ऐ काश कभी मौज-ए-सबा हो जाऊँ
इस तवक़्क़ो पे कि ख़ुद से भी जुदा हो जाऊँ
अब्र उट्ठे तो सिमट जाऊँ तिरी आँखों में
धूप निकले तो तिरे सर की रिदा हो जाऊँ

आज की रात उजाले मिरे हम-साया हैं
आज की रात जो सो लूँ तो नया हो जाऊँ
अब यही सोच लिया दिल में कि मंज़िल के बग़ैर
घर पलट आऊँ तो मैं आबला-पा हो जाऊँ

फूल की तरह महकता हूँ तिरी याद के साथ
ये अलग बात कि मैं तुझ से ख़फ़ा हो जाऊँ
जिस के कूचे में बरसते रहे पत्थर मुझ पर
उस के हाथों के लिए रंग-ए-हिना हो जाऊँ

आरज़ू ये है कि तक़्दीस-ए-हुनर की ख़ातिर
तेरे होंटों पे रहूँ हम्द-ओ-सना हो जाऊँ
मरहला अपनी परस्तिश का हो दरपेश तो मैं
अपने ही सामने माइल-ब-दुआ हो जाऊँ

तीशा-ए-वक़्त बताए कि तआरुफ़ के लिए
किन पहाड़ों की बुलंदी पे खड़ा हो जाऊँ
हाए वो लोग कि मैं जिन का पुजारी हूँ ‘नसीर’
हाए वो लोग कि मैं जिन का ख़ुदा हो जाऊँ.

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