तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की
गमे हयात ने मजबूर कर दिया वरना,
थी आरजू कि तेरे दरपे सुब्हो-शाम करें
बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते
ऐसे हंस हंस के न देखा करो सब की जानिब
लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं
बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना
किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते
अब अहल-ए-दर्द ये जीने का एहतिमाम करें
उसे भुला के ग़म-ए-ज़िंदगी का नाम करें
ये रुके रुके से आँसू ये दबी दबी सी आहें
यूँही कब तलक ख़ुदाया ग़म-ए-ज़िंदगी निबाहें
तिरे सिवा भी कहीं थी पनाह भूल गए
निकल के हम तिरी महफ़िल से राह भूल गए
ज़बाँ हमारी न समझा यहाँ कोई 'मजरूह'
हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे
मुझे ये फ़िक्र सब की प्यास अपनी प्यास है साक़ी
तुझे ये ज़िद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से
'मजरूह' क़ाफ़िले की मिरे दास्ताँ ये है
रहबर ने मिल के लूट लिया राहज़न के साथ
बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने
ये काँपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके
सुनते हैं कि काँटे से गुल तक हैं राह में लाखों वीराने
कहता है मगर ये अज़्म-ए-जुनूँ सहरा से गुलिस्ताँ दूर नहीं
गुलों से भी न हुआ जो मिरा पता देते
सबा उड़ाती फिरी ख़ाक आशियाने की
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