Friday, May 22, 2020

छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को

काफ़ी है मिरे दिल की तसल्ली को यही बात
आप आ न सके आप का पैग़ाम तो आया
- शकील बदायूंनी



कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
जब तक उलझे न काँटों से दामन
- फ़ना निज़ामी कानपुरी



छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
- ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी

मैं बहुत ख़ुश था कड़ी धूप के सन्नाटे में
क्यूं तिरी याद का बादल मिरे सर पर आया
- अहमद मुश्ताक़

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