इस विजन में अकेली अनमनी सी क्यो बैठी हो
चलो गोरी, पनिया भरने चलो।
वन-भूमि विकल होकर कहती है:
"चलो, जल की ओर चलो।"
जल-लहरी सी छल-छल स्वर में पुकार रही है।
बगुलों के उड़ते हुए पंखों में
दिन बीता जाता है,
विहग की गोद में विहगी छिपी हुई है
अबाबील रो-रोकर अपनी प्रिया से विदा हो रहा है,
बरवा धुन में बंशी बज रही है।
सांझ अपना मुख चंदा के दर्पण में देख रही है,
अपने बालोे में उसने छाया-पथ की मांग काढ़ ली है,
छाया-नटी कानन-पुर में नाच रही है,
लता-रूपी कबरी पीछे से पैंग मार रही है।
ननदी कहती है - "बहू, दिन ढल गया है,
पानी भरना है तो चलो"
दूर नदी काली होती जाती है,
नगर नागरिका के वेश में संवर रहा है।
मांझी स्नान वाले घाट में अपनी नाम बांध रहा है,
पथिक जनहीन पथ पर चला जा रहा है,
किसकी याद में तुम्हारा दिन रो-रोकर कटता है?
यह देखो अपनी गगरी तुम आंसुओं के जल से भर रही हो।
ओ बेदरदी, तुम्हारे उन रंगो पांवों पर मामला बनकर कौन लिपट गया?
तुम्हारे साथ कवि भी चक्कर में पड़ गया -
क्या उस माला को पापों पर पड़ा रहने दें? या गले में डालें?
2
सखि, मेरे साजन ने निर्जन फूलवन में
भेंट होने पर कह देना -
माली जान गया है कि आधी रात में
कौन फूल चुराता है और
फूलों के कुल को कलंकित करता है।
उसे समझा देना कि गुलाब के बाग में
कांटों की आड़ में, कपट-भरे सुहाग में
फूल खिला है।
वे फूल मेंहदी के बाड़े से घिरे हुए हैं
और उस वन का प्रहरी है भौंरा।
सखि, उसे बता देना कि उस पथ पर
चोर-कांटे बिछे हुए हैं,
संभल कर चले, कहीं उसका चदरा फंस न जाय।
इस वन-फूल के लिए वह
कांटों को कुचलता हुआ न आए।
मैं स्वयं ही अपने प्रिय की कुंज-गलियों में जाऊंगी,
और उन चरणों पर बिना मूल्य बिक जाऊंगी।
3
मेरे प्राण किस वेदना से रोते हैं,
यह मैं किसे समझाऊं?
मेरा भीरु ह्रदय रह-रहकर थरथराता रहता है।
वह तो रहता है नील आकाश में
और मैं आंसुओं के सागर में पड़ी रहता हूं।
वह सत्ताईस ताराओं-मेरी सोतों-के साथ चक्कर
लगाता रहता है,
मैं उस चांद को कैसे पकड़ूं? मैे राह तो नहीं हूं।
जिस रूप को मैं काजल की तरह आंखों की पुतलियों में रखती हूं
वह सपनों में ढुलकने वाले गोपन आंसुओं से धुल जाता है,
यदि मैं हार की तरह उसे गले में डाले रहूं
तो वह चोरी चला जाता है,
यदि अफने कंगन के साथ बांधती हूं
तो मलय-पवन उसे उड़ा ले जाता है।
कैसे मैं उदासी की मन मोहूं।
- काज़ी नज़रूल इस्लाम
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