राह की चाह
मन विक्षिप्त तन विक्षिप्त
जीवन का हर क्षण विक्षिप्त
श्वसन का हर कण है कहता
कब तक जीवन है संक्षिप्त
राहो मे उलझने है इतनी
दिल भी उसकी टोह ना लेता
पग पग पत्थर मिलते ऐसे
मन मदमस्त हो नशे मे जैसे
कुछ करने की ठानी है जो
मिलता कुछ भी समय पे ना वो
अब तो राही थक जाएगा
समय पे कुछ ना हाथ आएगा
बस एक आशा विश्वास लिए हम
कुछ कर जाने का ठान लिए हम
कभी तो वह आएगा सवेरा
जिसमे मिलेगा एक नया बसेरा
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