Wednesday, May 20, 2020

जो हैं मज़लूम उन को तो तड़पता छोड़ देते हैं

जो हैं मज़लूम उन को तो तड़पता छोड़ देते हैं 

ये कैसा शहर है ज़ालिम को ज़िंदा छोड़ देते हैं 

अना के सिक्के होते हैं फ़क़ीरों की भी झोली में 

जहाँ ज़िल्लत मिले उस दर पे जाना छोड़ देते हैं 

हुआ कैसा असर मा'सूम ज़ेहनों पर कि बच्चों को 

अगर पैसे दिखाओ तो खिलौना छोड़ देते हैं 

अगर मा'लूम हो जाए पड़ोसी अपना भूका है 

तो ग़ैरत-मंद हाथों से निवाला छोड़ देते हैं 

मोहज़्ज़ब लोग भी समझे नहीं क़ानून जंगल का 

शिकारी शेर भी कव्वों का हिस्सा छोड़ देते हैं 

परिंदों को भी इंसाँ की तरह है फ़िक्र रोज़ी की 

सहर होते ही अपना आशियाना छोड़ देते हैं 

तअ'ज्जुब कुछ नहीं 'दाना' जो बाज़ार-ए-सियासत में 

क़लम बिक जाएँ तो सच बात लिखना छोड़ देते हैं 

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