Wednesday, May 13, 2020

वो है अपना ये जताना भी नहीं चाहते हम...

वो है अपना ये जताना भी नहीं चाहते हम...


वो है अपना ये जताना भी नहीं चाहते हम
दिल को अब और दुखाना भी नहीं चाहते हम
आरज़ू है कि वो हर बात को ख़ुद ही समझे
दिल में क्या क्या है दिखाना भी नहीं चाहते हम
एक पर्दे ने बना रक्खा है दोनों का भरम
और वो पर्दा हटाना भी नहीं चाहते हम
तोहमतें हम पे लगी रहती हैं लेकिन फिर भी
आसमाँ सर पे गिराना भी नहीं चाहते हम
ख़ुद-नुमाई हमें मंज़ूर नहीं है हरगिज़
ऐसे क़द अपना बढ़ाना भी नहीं चाहते हम
दस से मिलना है उसे एक हैं उन में हम भी
इस तरह उस को बुलाना भी नहीं चाहते हम
हम से मिलने की तड़प जब नहीं उस को 'मीना'
हाथ फिर उस से मिलाना भी नहीं चाहते हम .
 
बुलंदियों का था जो मुसाफ़िर वो पस्तियों से गुज़र रहा है...
बुलंदियों का था जो मुसाफ़िर वो पस्तियों से गुज़र रहा है
तमाम दिन का सुलगता सूरज समुंदरों में उतर रहा है
तुम्हारी यादों के फूल ऐसे सहर को आवाज़ दे रहे हैं
कि जैसे ठंडी हवा का झोंका मिरी गली से गुज़र रहा है
अलग हैं नज़रें अलग नज़ारे अजब हैं राज़-ओ-नियाज़ सारे
किसी के जज़्बे चमक रहे हैं किसी का एहसास मर रहा है
अजीब जोश-ए-जुनूँ है उस का अजीब तर्ज़-ए-वफ़ा है मेरा
मैं लम्हा लम्हा सिमट रही हूँ वो रेज़ा रेज़ा बिखर रहा है
नज़र में रंगीन शामियाने मोहब्बतों के नए फ़साने
ये कौन है दिल के वसवसों में जो मुझ को बेचैन कर रहा है
तमाम अल्फ़ाज़ मिट चुके हैं बस एक सफ़हा अभी है बाक़ी
उसे मुसलसल मैं पढ़ रही हूँ जो नक़्श दिल पर उभर रहा है
वो मेरे अश्कों के आइने में सजा है 'मीना' कुछ इस तरह से
कि जैसे शबनम के क़तरे क़तरे में कोई सूरज सँवर रहा है.
मिज़ाज अपने कहाँ आज हैं ठिकाने पर...
मिज़ाज अपने कहाँ आज हैं ठिकाने पर
हुज़ूर आए हैं मेरे ग़रीब-ख़ाने पर
पिघल रही है मुसलसल जो बर्फ़ आँखों से
अजीब धूप है पलकों के शामियाने पर
न जाने आ गए क्यूँ उस की आँख में आँसू
जो हँस रहा था मिरे दर्द के फ़साने पर
ज़रा सी सम्त बदल ली जो अपनी मर्ज़ी से
तो नाव आ गई तूफ़ान के निशाने पर
ख़ुदा बचा के रखे 'मीना' उस घड़ी से हमें
कि बात ठहरे कभी उस के आज़माने पर .
धूप आई नहीं मकान में क्या...
धूप आई नहीं मकान में क्या
अब्र गहरा है आसमान में क्या
आह क्यूँ बे-सदा है होंटों पर
लफ़्ज़ बाक़ी नहीं ज़बान में क्या
हो गया नीलगूँ बदन सारा
तीर ज़हरीले थे कमान में क्या
सारे किरदार साथ छोड़ गए
आ गया मोड़ दास्तान में क्या
झुलसा झुलसा है क्यूँ बदन सारा
आ गई धूप साएबान में क्या
ना-शनासा है चाँद से क्यूँ दिल
सिर्फ़ तारा था आसमान में क्या
रोज़-ओ-शब किस की राह तकती हो
'मीना' अब तक है कुछ गुमान में क्या.


डॉ. मीना नक़वी का शेर:
ये औरतों में तवाइफ़ तो ढूंढ लेती हैं
तवाइफ़ों में इन्हें औरतें नहीं मिलतीं.

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