मैं रेत के महल बनाकर भी क्या करूँ ?
मुझको पता है ज़िंदगी इतनी बड़ी नहीं
सदियों के साथ शर्त लगाकर भी क्या करूँ ?
मेरी दिलबस्तगी तो बस ज़मीं से है
ख़ुद को आसमां पे बिठाकर भी क्या करूँ ?
दुनिया के किसी जल से धुलते नहीं कलंक
तो बोलिए गंगा में नहाकर भी क्या करूँ ?
आगे चलकर जो मुझे नीचा दिखायेंगें
उन ज़ालिमों का साथ निभाकर भी क्या करूँ ?
इस तरह तो नसीब नहीं होंगें उजाले
फिर मैं अपनें दिल को जलाकर भी क्या करूँ ?
मैं जानता हूँ उसपे किसी ग़ैर का हक़ है
फिर बेवजह हक़ उसपे जताकर भी क्या करूँ ?
तन-मन से अगर वो मिरा हो ही नहीं सकता
तो उसको अपने दिल में बसाकर भी क्या करूँ ?
महज़ ढ़ाई गज का टुकड़ा है मेरा मुक़द्दर
अपने वज़ूद को मैं बढाकर भी क्या करूँ ?
No comments:
Post a Comment