Friday, May 22, 2020

मैं अपनें दिल को जलाकर भी क्या करूँ ?

आँखों को झूठे ख़्वाब दिखाकर भी क्या करुँ ?
मैं रेत के महल बनाकर भी क्या करूँ ?

मुझको पता है ज़िंदगी इतनी बड़ी नहीं
सदियों के साथ शर्त लगाकर भी क्या करूँ ?

मेरी दिलबस्तगी तो बस ज़मीं से है
ख़ुद को आसमां पे बिठाकर भी क्या करूँ ?

दुनिया के किसी जल से धुलते नहीं कलंक
तो बोलिए गंगा में नहाकर भी क्या करूँ ?

आगे चलकर जो मुझे नीचा दिखायेंगें
उन ज़ालिमों का साथ निभाकर भी क्या करूँ ?

इस तरह तो नसीब नहीं होंगें उजाले
फिर मैं अपनें दिल को जलाकर भी क्या करूँ ?

मैं जानता हूँ उसपे किसी ग़ैर का हक़ है
फिर बेवजह हक़ उसपे जताकर भी क्या करूँ ?

तन-मन से अगर वो मिरा हो ही नहीं सकता
तो उसको अपने दिल में बसाकर भी क्या करूँ ?

महज़ ढ़ाई गज का टुकड़ा है मेरा मुक़द्दर
अपने वज़ूद को मैं बढाकर भी क्या करूँ ?

No comments: