तिरे तकिए के नीचे भी हमारे ख़्वाब रक्खे हैं
- ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ
- फ़िराक़ गोरखपुरी
गुनगुनाती हुई आती हैं फ़लक से बूँदें
कोई बदली तिरी पाज़ेब से टकराई है
- क़तील शिफ़ाई
वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा
- मीर तक़ी मीर
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