Monday, October 26, 2020

मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है

ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं 
मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है 

हर एक रात को महताब देखने के लिए 
मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए 

अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास 
कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना 

कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं 
मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं

इस हादसे को देख के आँखों में दर्द है 
अपनी जबीं पे अपने ही क़दमों की गर्द है 

ख़ुद-कुशी के लिए थोड़ा सा ये काफ़ी है मगर 
ज़िंदा रहने को बहुत ज़हर पिया जाता है 

वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना 
उस को ख़त लिखना तो मेरा भी हवाला देना 

ख़ुद अपने पाँव भी लोगों ने कर लिए ज़ख़्मी 
हमारी राह में काँटे यहाँ बिछाते हुए 

जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे 
इतने घने दरख़्तों से पत्ते गिरे न थे 

सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया 
इक ऐसी बात कही उस ने लड़खड़ाते हुए 

ये मस्ख़रों को वज़ीफ़े यूँही नहीं मिलते 
रईस ख़ुद नहीं हँसते हँसाना पड़ता है 

वो जिस के सेहन में कोई गुलाब खिल न सका 
तमाम शहर के बच्चों से प्यार करता था 

चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर 
जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए 

घर से किस तरह मैं निकलूँ कि ये मद्धम सा चराग़ 
मैं नहीं हूँगा तो तन्हाई में बुझ जाएगा 

सब देख कर गुज़र गए इक पल में और हम 
दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए 

अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा 
शिकस्त खा के वो पानी में ज़हर डाल आया

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