मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है
हर एक रात को महताब देखने के लिए
मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए
अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास
कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं
मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं
इस हादसे को देख के आँखों में दर्द है
अपनी जबीं पे अपने ही क़दमों की गर्द है
ख़ुद-कुशी के लिए थोड़ा सा ये काफ़ी है मगर
ज़िंदा रहने को बहुत ज़हर पिया जाता है
वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना
उस को ख़त लिखना तो मेरा भी हवाला देना
ख़ुद अपने पाँव भी लोगों ने कर लिए ज़ख़्मी
हमारी राह में काँटे यहाँ बिछाते हुए
जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे
इतने घने दरख़्तों से पत्ते गिरे न थे
सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया
इक ऐसी बात कही उस ने लड़खड़ाते हुए
ये मस्ख़रों को वज़ीफ़े यूँही नहीं मिलते
रईस ख़ुद नहीं हँसते हँसाना पड़ता है
वो जिस के सेहन में कोई गुलाब खिल न सका
तमाम शहर के बच्चों से प्यार करता था
चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर
जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए
घर से किस तरह मैं निकलूँ कि ये मद्धम सा चराग़
मैं नहीं हूँगा तो तन्हाई में बुझ जाएगा
सब देख कर गुज़र गए इक पल में और हम
दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए
अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा
शिकस्त खा के वो पानी में ज़हर डाल आया
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