Friday, October 30, 2020

सफर शायरी

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी

किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
अहमद फ़राज़

अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
निदा फ़ाज़ली

इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई
हम न सोए रात थक कर सो गई
राही मासूम रज़ा

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
निदा फ़ाज़ली

आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए
वर्ना ये उम्र भर का सफ़र राएगांं तो है
मुनीर नियाज़ी

मैं लौटने के इरादे से जा रहा हू मगर
सफ़र सफ़र है मेरा इंतिज़ार मत करना
साहिल सहरी नैनीताली

मुझे ख़बर थी मेरा इंतिज़ार घर में रहा
ये हादसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा
साक़ी फ़ारुक़

सफ़र में ऐसे कई मरहले भी आते हैं
हर एक मोड़ पे कुछ लोग छूट जाते हैं
आबिद अदीब

ख़ामोश ज़िंदगी जो बसर कर रहे हैं हम
गहरे समुंदरों में सफ़र कर रहे हैं हम
रईस अमरोहव

है कोई जो बताए शब के मुसाफ़िरों को
कितना सफ़र हुआ है कितना सफ़र रहा है
शहरयार

ये बद-नसीबी नहीं है तो और फिर क्या है
सफ़र अकेले किया हम-सफ़र के होते हुए
हसीब सोज़

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