Tuesday, October 27, 2020

जिंदगी और मोहब्बत शायरी

मोहब्बत को छुपाए लाख कोई छुप नहीं सकती 
ये वो अफ़्साना है जो बे-कहे मशहूर होता है 

ग़ैरों से तो फ़ुर्सत तुम्हें दिन रात नहीं है 
हाँ मेरे लिए वक़्त-ए-मुलाक़ात नहीं है 

लड़ने को दिल जो चाहे तो आँखें लड़ाइए 
हो जंग भी अगर तो मज़ेदार जंग हो 


दुनिया बहुत ख़राब है जा-ए-गुज़र नहीं 
बिस्तर उठाओ रहने के क़ाबिल ये घर नहीं 

काबे में भी वही है शिवाले में भी वही 
दोनों मकान उस के हैं चाहे जिधर रहे 

अपनी ज़बान से मुझे जो चाहे कह लें आप 
बढ़ बढ़ के बोलना नहीं अच्छा रक़ीब का 


थे निवाले मोतियों के जिन के खाने के लिए 
फिरते हैं मुहताज वो इक दाने दाने के लिए 

चुपका खड़ा हुआ हूँ किधर जाऊँ क्या करूँ 
कुछ सूझता नहीं है मोहब्बत की राह में

किस तरफ़ आए किधर भूल पड़े ख़ैर तो है 
आज क्या था जो तुम्हें याद हमारी आई 

आहें भी कीं दुआएँ भी मांगीं तिरे लिए 
मैं क्या करूँ जो यार किसी में असर न हो 

मैं ने ज़ुल्फ़ों को छुआ हो तो डसें नाग मुझे 
बे-ख़ता आप ने इल्ज़ाम लगा रक्खा है

क्या क़यामत है कि रुलवा के हमें ऐ 'जौहर' 
क़हक़हे मार के हँसते हैं रुलाने वाले  

रात दिन चैन हम ऐ रश्क-ए-क़मर रखते हैं 
शाम अवध की तो बनारस की सहर रखते हैं 

भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया 
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं 

लाला माधव राम जौहर 

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