Tuesday, October 6, 2020

आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन


आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन 
ढल गया दिन, शेष होगा एक जीवन !


यह सुनहरी साँझ, लोहे के कंटीले तार,
खो गई मेरे हृदय की सुनहली झंकार !
सूर्य-से इस डूबते दिल में नहीं अब प्यार!
वहां नभ में खिल रहा #मंदार का कानन !
आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन !

दूर सोने के कंगूरों से उतरती रात,
रेशमी सुरमई साड़ी में ढंके मृदु गात,
सजीली है—सूक की बेंदी दिए अवदात !
दिप रहा है कनकचम्पक चाँद-सा आनन !
आ गले से लगा लूँ, मेरे अकेलेपन !
देखते आकाश बीती आज आधी रात,
व्यर्थ है वो आये अब भी याद भूली बात,
सह चुका हूं बहुत से आघात पर आघात,
अभी कुछ-कुछ रुका-सा था हृदय का रोदन !
आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन !
दिन मुंदे ही सो गये थे पेड़ के सौ पात,
पड़ गया सोता यहां भी—बढ़ रही है रात,
छिपा नौ का अंक जो लिखते सितारे सात !
जागते बस दो जने—मैं और मेरा मन !
आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन !

नरेन्द्र शर्मा

मंदार- 1. (पुराण) स्वर्ग का एक वृक्ष 2. स्वर्ग 3. धतूरा 4. हाथी 5. मदार; आक।

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