Saturday, October 24, 2020

किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का

न पाक होगा कभी हुस्न ओ इश्क़ का झगड़ा 
वो क़िस्सा है ये कि जिस का कोई गवाह नहीं 

कुछ नज़र आता नहीं उस के तसव्वुर के सिवा 
हसरत-ए-दीदार ने आँखों को अंधा कर दिया 

बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का 
जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला 

दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर 
दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा 

लगे मुँह भी चिढ़ाने देते देते गालियाँ साहब 
ज़बाँ बिगड़ी तो बिगड़ी थी ख़बर लीजे दहन बिगड़ा

आप की नाज़ुक कमर पर बोझ पड़ता है बहुत 
बढ़ चले हैं हद से गेसू कुछ इन्हें कम कीजिए 

अब मुलाक़ात हुई है तो मुलाक़ात रहे 
न मुलाक़ात थी जब तक कि मुलाक़ात न थी 

हाजत नहीं बनाओ की ऐ नाज़नीं तुझे 
ज़ेवर है सादगी तिरे रुख़्सार के लिए 

मेहंदी लगाने का जो ख़याल आया आप को 
सूखे हुए दरख़्त हिना के हरे हुए 

ये दिल लगाने में मैं ने मज़ा उठाया है 
मिला न दोस्त तो दुश्मन से इत्तिहाद किया

किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का 
कोई ख़रीद के टूटा पियाला क्या करता 

आज तक अपनी जगह दिल में नहीं अपने हुई 
यार के दिल में भला पूछो तो घर क्यूँ-कर करें 

ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता 
शीशा इक रोज़ तो वाइज़ के बग़ल में होता 

ऐसी ऊँची भी तो दीवार नहीं घर की तिरे 
रात अँधेरी कोई आवेगी न बरसात में क्या 

काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता 
यार मिलता है तो पहलू ही में है मिल जाता 

शीरीं के शेफ़्ता हुए परवेज़ ओ कोहकन 
शाएर हूँ मैं ये कहता हूँ मज़मून लड़ गया

हैदर अली आतिश

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