दिल के जाने का निहायत ग़म रहा
हुस्न था तेरा बहुत आलम-फ़रेब
ख़त के आने पर भी इक आलम रहा
दिल न पहुंचा गोशा-ए-दामां तलक
क़तरा-ए-ख़ूं था मिज़ा पर जम रहा
सुनते हैं लैला के ख़ेमे को सियाह
उस में मजनूं का मगर मातम रहा
जामा-ए-एहराम-ए-ज़ाहिद पर न जा
था हरम में लेक ना-महरम रहा
ज़ुल्फ़ें खोलीं तो तू टुक आया नज़र
उम्र भर यां काम-ए-दिल बरहम रहा
उस के लब से तल्ख़ हम सुनते रहे
अपने हक़ में आब-ए-हैवां सम रहा
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