यूं ही चलता रहेगा |
आसूंओं के सैलाब आकर
क्या दिलों में बिछाएंगे पत्थर |
माएं हाथ फैलाएं रह जाएंगी
और कोख यूं ही उजड़ती जाएंगी |
नादानियां हरगिज़ नहीं ये हरकत
अपने संस्कार कम पड़ रहे हैं |
सुना हैं जंगलों में शेर घट रहे हैं
पर भेड़ियों पर कब अंकुश लग रहे हैं |
हे विधाता ! तुम ही कुछ तो बदल डालो
बुराईयों को चुन-चुन निर्मूल कर तो डालो |
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