है जो तू लायक़,क़ुर्बान करूँ ज़िंदगी।
मैं तेरा मुरीद,है तू मेरी मुरीद अगर,
इबादत करूँ,मैं ख़ुदा की करूँ बन्दग़ी।
पुश्तैनी इश्क़ तुझसे,कर चाहे शिनाख़्त,
आरज़ू नहीं मुल्क़ की,तेरी है तिश्नग़ी।
शुद-ख़सारे से,बेशक़ दूर है अब तल्क़,
अपनी फ़ितरत यही है सादग़ी।
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
No comments:
Post a Comment