खगदल हैं ऐसे भी कि न जो
आते हैं, लौट नहीं आते
वह लिए ललाई नीलापन
वह आसमान का पीलापन
चुपचाप लीलता है जिनको
वे गुंजन लौट नहीं आते
वे बातें लौट नहीं आतीं
बीते क्षण लौट नहीं आते
बीती सुगन्ध की सौरभ भर
पर, यादें लौट चली आतीं
पीछे छूटे, दल से पिछड़े
भटके-भरमे उड़ते खग-सी
वह लहरी कोमल अक्षर थी
अब पूरा छन्द बन गई है —
'तरू-छायाओं के घेरे में
#उद्भ्रांत जुन्हाई के हिलते
छोटे-छोटे मधु-बिम्बों-सी
वह याद तुम्हारी आई है' —
पर बातें लौट न आएंगी
बीते पल लौट न आएंगे
- गजानन माधव मुक्तिबोध
उद्भ्रांत- घूमता हुआ, चकित, विह्वल; विकल।
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