रोज टूटते हैं कई तारे
मेहर-ओ-माह भी तो बख्त को रोए हैं
और भला मैं तो था ही जुगुनू सा
तेरा इश्क़ कैद-ए-पिंजरा था
जिसमें आज भी कैद हूँ
मेहर-ओ-माह भी रोज़ ढल जाते हैं
और समा से आज़ादी की गुज़ारिश करता हूँ।।
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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