Saturday, October 24, 2020

ये सवाल ज़ेहन पे भारी है

ग़मगीन थी फ़ज़ा यूँ कभी-
क्या आलम हर-सू तारी है।
बहारें लौटेंगी चमन में फिर,
ये सवाल ज़ेहन पे भारी है।
ज़िन्दगी का साथ कहाँ तक-
कि किस्मत कहाँ सँवारी है।
पल-पल तुझे देता रहा,अब
एक साँस मेरे पास सारी है।
तू मानी क्या, जो वो मानेगी,
इक जान, कितनी दुश्वारी है।
नौहा-मातम, सोग़-ग़मी बस,
कौन गया, किसकी बारी है।
साथ देती ज़ीस्त जीत जाते,
मौत से जो बाज़ी ये हारी है।
'हमराह' जब तक साथ तेरा,
गुल, बादा, जश्न-ए-बहारी है।

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