Saturday, October 31, 2020

आज धरती से कौन विदा हुआ - अमृता प्रीतम

आज धरती से कौन विदा हुआ 
कि आसमान ने बाँहें फैला कर 
धरती को गले से लगा लिया 
त्रिपुरा ने हरी चादर कफ़न पर डाली 
और सुबह की लालिमा ने 
आँखों का पानी पोंछ कर 
धरती के कंधे पर हाथ टिकाया 
कहा— 
थोड़ी-सी महक विदा हुई है 
पर दिल से न लगाना 
कि आसमान ने तुम्हारी महक को 
सीने में सँभाल लिया है... 

आओ तन्हाई में गुजर बसर कर के देखें.

आओ तन्हाई में गुजर बसर कर के देखें. 
तन्हाई कितनी गहरी है दिल में उतर के देखें ।

मुट्ठी भर आसमान है हमारे तुम्हारे सामने ,
चलो दम हैं तो वहां जाकर हम चढ़ के देखें ।

मानता हूं हवाओं पर जोर चलेगा न हमारा ,
पर फिक्र किसे लगता है हवाओं से झगड़ के देखें ।

कौन संभालेगा तुझे इस भरी महफिल में ,
तुमने क्यों सोचा कि यहां थोड़ा उखड़ के देखें ।

हर शाम यहां जाम आदमी की जरूरत हैं ,
हम पीते नही पर जिद है जाम पकड़ के देखें ।

जो वर्तमान हैवो परेशान है

जो वर्तमान है
वो परेशान है
जो भूत हो गया
वो शुद्ध हो गया
जो भविष्य में है
वो भाग्यवान है

कोई शस्त्र ना उठा
कोई अस्त्र ना चला
सोच कर बात कर
ये सब मौत का सामान है

सांस बंद हो गई
नब्ज़ भी थम गई
असमय मृत्यु
सृष्टि का अपमान है

ना सुनाई दिया
ना दिखाई दिया
ऐसे दुश्मन पर अटकी
क्यों तेरी जान है

युद्ध के अंत से
जो वाकिफ ना हो
विश्व में क्या ऐसा
कोई इंसान है

जो खत्म हो गया
वह भस्म हो गया
बीती बातों का किस्सा
हजम हो गया

सब हंस कर रहे
सब मिल कर चले
शांति ही सुख का परिधान है

हम न सोए रात थक कर सो गई

ओस की बूंद से क्या करती है अब सुबह सुलूक
वह मेरे साथ के सब तश्ना दहां कैसे हैं
उड़ती-पड़ती ये सुनी थी कि परेशान हैं लोग
अपने ख्वाबों से परेशान हैं लोग


जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवायें कैसी
इन दिनों मश्गलए-जुल्फे परीशां क्या है
साख कैसी है जुनूं वालों की
कीमते चाके गरीबां क्या है


1. रास्ते अपनी नज़र बदला किए
हम तुम्हारा रास्ता देखा किए
अहल-ए-दिल सहरा में गुम होते रहे
ज़िंदगी बैठी रही पर्दा किए
एहतिमाम-ए-दार-ओ-ज़िंदाँ की क़सम
आदमी हर अहद ने पैदा किए
हम हैं और अब याद का आसेब है
उस ने वादे तो कई ईफ़ा किए
हाए-रे वहशत कि तेरे शहर का
हम सबा से रास्ता पूछा किए.


2. हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद
अपनी रात की छत पर कितना तन्हा होगा चाँद
जिन आँखों में काजल बन कर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक क़तरा होगा चाँद
रात ने ऐसा पेँच लगाया टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जा कर अटका होगा चाँद
चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा कैसा होगा चाँद .


3. जिन से हम छूट गए अब वो जहाँ कैसे हैं
शाख़-ए-गुल कैसी है ख़ुश्बू के मकाँ कैसे हैं
ऐ सबा तू तो उधर ही से गुज़रती होगी
उस गली में मिरे पैरों के निशाँ कैसे हैं
पत्थरों वाले वो इंसान वो बेहिस दर-ओ-बाम
वो मकीं कैसे हैं शीशे के मकाँ कैसे हैं
कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आ के देखो मिरी यादों के जहाँ कैसे हैं
कोई ज़ंजीर नहीं लायक़-ए-इज़हार-ए-जुनूँ
अब वो ज़िंदानी-ए-अंदाज़-ए-बयाँ कैसे हैं
ले के घर से जो निकलते थे जुनूँ की मशअल
इस ज़माने में वो साहब-नज़राँ कैसे हैं
याद जिन की हमें जीने भी न देगी 'राही'
दुश्मन-ए-जाँ वो मसीहा-नफ़साँ कैसे हैं .


4. इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई
हम न सोए रात थक कर सो गई

 - राही मासूम रज़ा 


तेरा वक़्त भी आएगा

रख यक़ीन ऐ बंदे
तेरा दिन भी आएगा
हर नफ़रत करने वाला तुझसे तेरे आगे सिर झुकाएगा
आज तू गुमनाम है
सारी खुशियों से अनजान है
रख यक़ीन बस इतना की तेरा वक़्त भी आएगा
तु भी हर सुख आजमाएगा
छोड़ तु दुनिया का सहारा
यहां हर कोई मतलबी दुनिया से हारा
रख खुद पर और उस खुदा पे भरोसा
उनके अलावा और कोई ना किसी का

हर सुब्ह धूप तुझे जगाती है तेरी पलक को छूकर

हर सुब्ह धूप तुझे जगाती है तेरी पलक को छूकर
खुशबू फूले नहीं समाती है तेरी अलक को छूकर

हम अगर तेरा साया भी छू लें तो हंगामा हो जाए
तितली मगर उड़ जाती है तेरे लब तलक को छूकर

बुलन्दियों की ख्वाहिश भी बड़ी अजीब ख्वाहिश है
मेरी तमन्ना जमीं पे लौट आती है रोज़ फलक को छूकर

मैं सच बोल तो दूं हुकूमत का कच्चा चिट्ठा खोल तो दूं
मगर एक तलवार मुझे डरा जाती है मेरे हलक को छूकर

'नामचीन' दुनिया पर खुदा की मेहरबानियां बहुत हैं
तभी तो हर कयामत लौट जाती है इस खलक को छूकर

Friday, October 30, 2020

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नोमान शौक़ की शायरी mage Credit/Pexels Ylanite-Koppens
NEWS18HINDI
LAST UPDATED: OCTOBER 30, 2020, 9:55 AM IST
नोमान शौक़ की शायरी (Noman Shauq Shayari) : नोमान शौक़ का नाम शायरी की दुनिया में बेहद अदब के साथ लिया जाता है. नोमान शौक़ बिहार के आरा से ताल्लुक रखते हैं. नोमान शौक़ की शायरी में प्रेम और प्रतिरोध का अनोखा मेल आप देख सकते हैं. नोमान शौक़ जलता शिकारा ढूंढने में, फ़्रीज़र में रखी शाम, अपने कहे किनारे उर्दू में और कविता संग्रह रात और विषकन्या जैसी प्रसिद्ध रचनाएं लिखी हैं. उन्होंने आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा में भी काम किया है. आज हम आपके लिए रेख्ता के साभार से लेकर आए हैं नोमान शौक़ की शायरी...
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1. अब ऐसी वैसी मोहब्बत को क्या सँभालूँ मैं
ये ख़ार-ओ-ख़स का बदन फूँक ही न डालूँ मैं

गर एक दिल से नहीं भरता मेरे यार का दिल
तो इक बदन में भला कितने साँप पालूँ मैं
न क़ब्र की है जगह शहर में न मस्जिद की
बताओ रूह के काँटे कहाँ निकालूँ मैं
सदाक़तों पे बुरा वक़्त आने वाला है
अब उस के काँपते हाथों से आईना लूँ मैं
कई ज़माने मिरा इंतिज़ार करते हैं
ज़मीं रुके तो कोई रास्ता निकालूँ मैं
मैं आँख खोल के चलने की लत न छोड़ सका
नहीं तो एक न इक रोज़ ख़ुद को पा लूँ मैं
हज़ार ज़ख़्म मिले हैं मगर नहीं मिलता
वो एक संग जिसे आइना बना लूँ मैं
सुनो मैं हिज्र में क़ाएल नहीं हूँ रोने का
कहो तो जश्न ये अपनी तरह मना लूँ मैं .
2. क़ाएदे बाज़ार के इस बार उल्टे हो गए
आप तो आए नहीं पर फूल महँगे हो गए
एक दिन दोनों ने अपनी हार मानी एक साथ
एक दिन जिस से झगड़ते थे उसी के हो गए
मुझ को इस हुस्न-ए-नज़र की दाद मिलनी चाहिए
पहले से अच्छे थे जो कुछ और अच्छे हो गए
मुद्दतों से हम ने कोई ख़्वाब भी देखा नहीं
मुद्दतों इक शख़्स को जी भर के देखे हो गए
बस तिरे आने की इक अफ़्वाह का ऐसा असर
कैसे कैसे लोग थे बीमार अच्छे हो गए .
3.आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
एक मजमे के लिए शेर सुनाते हुए हम
किस गुमाँ में हैं तिरे शहर के भटके हुए लोग
देखने वाले पलट कर नहीं जाते हुए हम
कैसी जन्नत के तलबगार हैं तू जानता है
तेरी लिक्खी हुई दुनिया को मिटाते हुए हम
रेल देखी है कभी सीने पे चलने वाली
याद तो होंगे तुझे हाथ हिलाते हुए हम
तोड़ डालेंगे किसी दिन घने जंगल का ग़ुरूर
लकड़ियाँ चुनते हुए आग जलाते हुए हम
तुम तो सर्दी की हसीं धूप का चेहरा हो जिसे
देखते रहते हैं दीवार से जाते हुए हम
ख़ुद को याद आते ही बे-साख़्ता हँस पड़ते हैं
कभी ख़त तो कभी तस्वीर जलाते हुए हम .
4. बताऊँ कैसे कि सच बोलना ज़रूरी है
तअल्लुक़ात में ये तजरबा ज़रूरी है
नज़र हटा भी तो सकती है कम-नज़र दुनिया
वहीं है भीड़ जहाँ तख़लिया ज़रूरी है
तिरे बग़ैर कोई और इश्क़ हो कैसे
कि मुशरिकों के लिए भी ख़ुदा ज़रूरी है
नहीं तो शहर ये सो जाएगा सदा के लिए
मुझे ख़बर है मिरा बोलना ज़रूरी है
किसी को होता नहीं यूँ मोहब्बतों का यक़ीं
चराग़ बुझ के बताए हवा ज़रूरी है
मैं ख़ुद को भूलता जाता हूँ और ऐसे में
तिरा पुकारते रहना बड़ा ज़रूरी है
वो मेरी रूह की आवाज़ सुन रहा होगा
बदन रहे न रहे राब्ता ज़रूरी है .
5. बरसों पुराने ज़ख़्म को बे-कार कर दिया
हम ने तिरा जवाब भी तय्यार कर दिया
तौक़-ए-बदन उतार के फेंका ज़मीं से दूर
दुनिया के साथ चलने से इंकार कर दिया
ख़ुद ही दिखाए ख़्वाब भी तौसी-ए-शहर के
जंगल को ख़ुद ही चीख़ के हुशियार कर दिया
जम्हूरियत के बीच फँसी अक़्लियत था दिल
मौक़ा जिसे जिधर से मिला वार कर दिया
आए थे कुछ सितारे तिरी रौशनी के साथ
हम अपने ही नशे में थे इंकार कर दिया
वो नींद थी कि मौत मुझे कुछ पता नहीं
गहरे घने सुकूत ने बेदार कर दिया
हम आईने के सामने आए तो रो पड़े
उस ने सजा-सँवार के बे-कार कर दिया .

सफर शायरी

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी

किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
अहमद फ़राज़

अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
निदा फ़ाज़ली

इस सफ़र में नींद ऐसी खो गई
हम न सोए रात थक कर सो गई
राही मासूम रज़ा

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
निदा फ़ाज़ली

आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए
वर्ना ये उम्र भर का सफ़र राएगांं तो है
मुनीर नियाज़ी

मैं लौटने के इरादे से जा रहा हू मगर
सफ़र सफ़र है मेरा इंतिज़ार मत करना
साहिल सहरी नैनीताली

मुझे ख़बर थी मेरा इंतिज़ार घर में रहा
ये हादसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा
साक़ी फ़ारुक़

सफ़र में ऐसे कई मरहले भी आते हैं
हर एक मोड़ पे कुछ लोग छूट जाते हैं
आबिद अदीब

ख़ामोश ज़िंदगी जो बसर कर रहे हैं हम
गहरे समुंदरों में सफ़र कर रहे हैं हम
रईस अमरोहव

है कोई जो बताए शब के मुसाफ़िरों को
कितना सफ़र हुआ है कितना सफ़र रहा है
शहरयार

ये बद-नसीबी नहीं है तो और फिर क्या है
सफ़र अकेले किया हम-सफ़र के होते हुए
हसीब सोज़

रेत-सी धूप है खेत चुपचाप हैं- दिनेश कुमार शुक्ल

सखि, डाल #कदम्ब की डोलती है
चहुं ओर सुधारस घोलती है । सखि

रेत-सी धूप है खेत चुपचाप हैं
मेंड़ पर ऊंघते पेड़ चुपचाप हैं
सूखते रुख की आत्मा में कहीं
जो तरलता बची है सो डोलती है
प्यार से ज़िन्दगी को टटोलती है
जो ये डाल कदम्ब की डोलती है । सखि.

अब न यमुना रही ना रहा वेणुवन
अब न मुरली की धुन ना कहीं श्यामघन
तप रही है मही तप रहा है गगन
और बरसों से सोया पड़ा है पवन
फिर भी जीवट तो इसका ज़रा देखिये
एक लौ-सी लगी है सो डोलती है । सखि.

वो नहर के किनारे जहां पेड़ थे
जिनकी माटी में जीवन का गुंजार था
खेलता जिनमें फसलों का अंबार था
उसमें भट्ठे का ज्वालामुखी बो दिया
रात दिन अब धधकता धरा का हिया
चिमनी माहौल में जहर घोलती है
फिर भी डाल कदम्ब की डोलती है । सखि.


हमने सोचा था अबकी फसल जो कटी
जाके कंगन तुम्हारे छुड़ा लाऊंगा
और कपड़े नये सबको सिलवाऊंगा
मां को काशी प्रयाग करा लाऊंगा
और छप्पर नया घर पे डलवाऊंगा।

लेकिन बादल जो आये तो अफसर बने ।
जीप पर तन के आये औ' चलते बने
उनके बंगलों में फूहड़ चमन है खिला
आग में भुन रहा है कि सारा जिला
आप कीजेगा जाकर के किससे गिला
बेरुखी का बड़ा लम्बा है सिलसिला ।
बेरुखी के कुतंत्र को तोड़ती है
जो ये डाल कदम्ब की डोलती है । सखि.
आग का, ध्वंस का यह महाज्वार है
क्या अजब युद्ध है मूसलों मार है
धर्म अब एक महामार हथियार है
जाति की एक कुटिल धार तलवार है
भाई भाई को खाने को तैयार है
दायें बाजू का बायें पे ये वार है
ऐसा खुदकुश समां - वक्त दुश्वार है।

और महलों में बैठा गुनहगार है
जिसकी दुर्नीति का भेद खोलती है । सखि.
किन्तु इतिहास के दौर में जब कभी
सभ्यता शक्ति अपनी बटोरती है
सोती चेतना की झकझोरती है,
न्याय का सूर्य होता उदय है तभी,
मुक्ति मिलती है सारी कुरूपता से,
सूखती पतझरी शाख पर जब कभी
एक कोंपल सुनहरी-सी फूटती हैं। सखि

कदंब- 1. कदम नामक वृक्ष 2. कदम के फल 3. समूह; झुंड 4. राशि; ढेर।
 

हम पंछी उन्मुक्त गगन के

हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएंगे ।

हम बहता जल पीने वाले
मर जाएंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।

स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरु की फुनगी पर के झूले ।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सांसों की डोरी ।
 
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

कनक- 1. स्वर्ण; सोना 2. धतूरा 3. टेसू 4. पलाश; ढाक 5. नागकेसर 6. खजूर 7. गेहूँ का आटा 8. अनाज।

रिश्तों में नहीं अब कारोबार चाहिए

रिश्तों में नहीं अब कारोबार चाहिए
ज़िल्लत-ए-ज़िंदगी को रोजगार चाहिए

कर्म हो ऐसा कि घर -बार चले
कमाई अपनी ही हर-बार चले

इल्म हो ये इंसानियत जिंदा रहे
डिग्रियों का नहीं अम्बार चाहिए
जिल्लत-ए-जिंदगी को रोजगार चाहिए

ख्वाहिशें इतना ही पालो यारों
रोटी,कपड़ा और मकान रहे
खुशहाल जिंदगी जीने का
जरूरी यही सामान रहे

डिग्रियां सर पे जो लिए घूमते
नहीं अब उन्हें अखबार चाहिए
जिल्लत-ए-जिंदगी को रोजगार चाहिए

जीने का यही अपना ढंग हो
कपड़ों से ढंका सबका अंग हो

दुखों की न हो आमद दर पे
खुशियों भरा अपना संसार चाहिए
जिल्लत-ए-जिंदगी को रोजगार चाहिए

Thursday, October 29, 2020

यादों की नदी

जब हम उधर थे,
इधर की याद आती थी
अब इधर हैं तो उधर की याद आती है .
जिन्दगी लगता है
इधर - उधर की यादों की नदी बन गई थी
तभी जब तुम इधर आ गए
और हम उधर रह गए
लगता है जिन्दगी के शेष दिन
इधर - उधर की भाग - दौड़ में बीत जायेंगे,
प्यार बांटने के लिए बहुत कम वक़्त है मेरे पास,
जितना मिले ले लो,
बहस में मत बर्बाद करो कीमती समय,
बीता वक़्त फिर कभी वापस नहीं आता.
आती हैं यादें और तब होती है हमें पीड़ा -
काश, हम यह न करते अथवा ऐसा न कहते !

आगे बढ़ना बंधु

आगे आगे बढ़ना बंधु आगे आगे बढ़ना
चलते रहना है अपना काम
नहीं देना जीवन को विराम बंधु
नहीं देना जीवन को विराम

समय जो न मिल पाया
अब समय है वो आया
पहचानो अपने मन को
क्या हुनर तूने पाया
राहें फिर खोजो जल्दी
अग्रसर हो उस पथ पर ही
फिर देना उसको तुम अन्जाम
पाओगे एक नया मुकाम

हार जिसने न मानी
कर दिखाया जो मन में ठानी
डिगे न मुश्किल से जो
मंजिल है उसकी रानी
निश्चलता पर्वत सी हो
चंचलता नदिया सी हो
सुनो फिर रश्मि की पुकार
मिट जाएगा जीवन का अंधकार

Wednesday, October 28, 2020

तेरी सुरमई आंखों के हवाले हो गया

तेरी सुरमई आंखों के हवाले हो गया ,
तेरे टोके से जो ठहरा तो सवाले हो गया ।

इक लोच है तेरी झुकती उठ़ती निगाह में ,
जरा जरा सी चोट से दिल घायल हो गया ।

नतमस्तक ही रहूं तेरे आगे और तेरे पीछे ,
मेरे लिए तेरा समूचा बदन शिवाला हो गया ।

इंतजार की हद तक तुम्हें निहारने के लिए ,
अपने ही बेशकीमती वक्त के निवाले हो गया ।

अब के तुम आई हो कई रातें गुजरने के बाद ,
तेरे आने भर से ही मेरे घर में उजाले हो गया ।

बिना कुछ कहे एक इशारे में

झुकती आंखों ने
किसी पर कहर ढा दिया
बिना कुछ कहे एक इशारे में
सब कुछ बता दिया

कहते हैं आंखें होती हैं
दिल का आइना
सारे दिल के राज़ बस
यूं ही उनको जता दिया

दिल रूठ बैठा है
आंखों से अब तो
इतना छुपाया था जो मैंने
तुमने बिना पूछे कैसे बता दिया

मैं क्या करूं झूठ बोल
नहीं सकती मैं किसी से
बस जो दिल में था
वोही उनको समझा दिया

ज़रा सी देर क्या हुईतुम यूँ ख़फा हुए ।

ज़रा सी देर क्या हुई
तुम यूँ ख़फा हुए ।
ज़रा सी बात पर
बस यूँ ही चल दिए।
जरा सी देर क्या हुई
नज़र यूँ फिरा लिए
जैसे हम नहीं कोई
जहाँ अलग बसा लिए ।
रूठना ही तो था,
एक बहाने की तलाश थी
ख़बर थी कहाँ तुझे
मैं कितनी हताश थी
पूछा भी नहीं
नयी महफ़िल सजा लिए।

Tuesday, October 27, 2020

जिंदगी और मोहब्बत शायरी

मोहब्बत को छुपाए लाख कोई छुप नहीं सकती 
ये वो अफ़्साना है जो बे-कहे मशहूर होता है 

ग़ैरों से तो फ़ुर्सत तुम्हें दिन रात नहीं है 
हाँ मेरे लिए वक़्त-ए-मुलाक़ात नहीं है 

लड़ने को दिल जो चाहे तो आँखें लड़ाइए 
हो जंग भी अगर तो मज़ेदार जंग हो 


दुनिया बहुत ख़राब है जा-ए-गुज़र नहीं 
बिस्तर उठाओ रहने के क़ाबिल ये घर नहीं 

काबे में भी वही है शिवाले में भी वही 
दोनों मकान उस के हैं चाहे जिधर रहे 

अपनी ज़बान से मुझे जो चाहे कह लें आप 
बढ़ बढ़ के बोलना नहीं अच्छा रक़ीब का 


थे निवाले मोतियों के जिन के खाने के लिए 
फिरते हैं मुहताज वो इक दाने दाने के लिए 

चुपका खड़ा हुआ हूँ किधर जाऊँ क्या करूँ 
कुछ सूझता नहीं है मोहब्बत की राह में

किस तरफ़ आए किधर भूल पड़े ख़ैर तो है 
आज क्या था जो तुम्हें याद हमारी आई 

आहें भी कीं दुआएँ भी मांगीं तिरे लिए 
मैं क्या करूँ जो यार किसी में असर न हो 

मैं ने ज़ुल्फ़ों को छुआ हो तो डसें नाग मुझे 
बे-ख़ता आप ने इल्ज़ाम लगा रक्खा है

क्या क़यामत है कि रुलवा के हमें ऐ 'जौहर' 
क़हक़हे मार के हँसते हैं रुलाने वाले  

रात दिन चैन हम ऐ रश्क-ए-क़मर रखते हैं 
शाम अवध की तो बनारस की सहर रखते हैं 

भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया 
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं 

लाला माधव राम जौहर 

-

रात की धड़कन जब तक जारी रहती है - राहत इंदौरी

रात की धड़कन जब तक जारी रहती है 
सोते नहीं हम ज़िम्मेदारी रहती है 

जब से तू ने हल्की हल्की बातें कीं 
यार तबीअत भारी भारी रहती है 

पाँव कमर तक धँस जाते हैं धरती में 
हाथ पसारे जब ख़ुद्दारी रहती है 

वो मंज़िल पर अक्सर देर से पहुँचे हैं 
जिन लोगों के पास सवारी रहती है 

छत से उस की धूप के नेज़े आते हैं 
जब आँगन में छाँव हमारी रहती है 

घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया 
घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है 

Monday, October 26, 2020

यह प्रेम तोमन का सौदा है

कुछ नहीं प्रिये यह प्रेम तो
मन का सौदा है
हृदय बीच वटवृक्ष
समक्ष बस पौधा है

कितनी जागीरें नष्ट हुईं
इसे पाने में
कितने मतवाले दिल को
इसने रौंदा है

लब की खामोशी देख कभी
यह सोचा है
तन का मन से कोई मेल नहीं
अलग्योझा है

संग संग रहना महज़
एक धोखा है
जीवन यापन के हेतु
बड़ा समझौता है

अक्षुण्ण रहता है प्रेम
वह हृदय घरौंदा है
इतने वर्षों से प्रश्न
ये मन में कौंधा है
कुछ नहीं प्रिये यह प्रेम तो
मन का सौदा है

मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है

ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं 
मगर चराग़ जलाना तो इख़्तियार में है 

हर एक रात को महताब देखने के लिए 
मैं जागता हूँ तिरा ख़्वाब देखने के लिए 

अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास 
कितना दुश्वार है ख़ुद को कोई चेहरा देना 

कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं 
मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं

इस हादसे को देख के आँखों में दर्द है 
अपनी जबीं पे अपने ही क़दमों की गर्द है 

ख़ुद-कुशी के लिए थोड़ा सा ये काफ़ी है मगर 
ज़िंदा रहने को बहुत ज़हर पिया जाता है 

वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना 
उस को ख़त लिखना तो मेरा भी हवाला देना 

ख़ुद अपने पाँव भी लोगों ने कर लिए ज़ख़्मी 
हमारी राह में काँटे यहाँ बिछाते हुए 

जब तक सफ़ेद आँधी के झोंके चले न थे 
इतने घने दरख़्तों से पत्ते गिरे न थे 

सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया 
इक ऐसी बात कही उस ने लड़खड़ाते हुए 

ये मस्ख़रों को वज़ीफ़े यूँही नहीं मिलते 
रईस ख़ुद नहीं हँसते हँसाना पड़ता है 

वो जिस के सेहन में कोई गुलाब खिल न सका 
तमाम शहर के बच्चों से प्यार करता था 

चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर 
जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए 

घर से किस तरह मैं निकलूँ कि ये मद्धम सा चराग़ 
मैं नहीं हूँगा तो तन्हाई में बुझ जाएगा 

सब देख कर गुज़र गए इक पल में और हम 
दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए 

अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा 
शिकस्त खा के वो पानी में ज़हर डाल आया

मौन धरों ना, कुछ तो बोलो

मौन धरों ना, कुछ तो बोलो,
करो शिकायत रूठो हमसे,
मन के भावों को अपनें तुम,
जैसे भी हो व्यक्त करो तुम
मौन धरों ना कुछ तो बोलो ।
अंतर्मन की पीड़ा को,
यूँ अंतर्मन में ना धरो।
मौन धरों ना कुछ तो बोलो,
अंतिम क्षणों में,प्रिये,मिले थे,
जब हम थे अंतिम बार।
अंतिम शब्द थे प्रिये हमारे,
अंतिम है प्रिये तुमसे मिलन,
कर्म-पथ पर जाना होगा।
अपना धर्म निभाना होगा।
राजनीति का मकड़जाल है ।
दुष्टों का फैला जंजाल है ।
इस जंजाल से मकड़जाल से,
मानवता को मुक्त कराना होगा।
इसी कर्म का धर्म निभाने,
तुमसे दूर अब जाना होगा।
पर शायद ये मेरा भ्रम था।
तुमसे ना मैं दूर जा पाया,
ना ही तुमको मैं भूल ही पाया।
हर पल एक मौन सा चेहरा,
तुम्हारा, प्रिये ,मेरे सपनों में आता,
और तब ये मन हर पल ये ही कहता,
मौन धरों ना कुछ तो बोलो ।
करो शिकायत रूठो हमसे ।
पर यूँ मौन ना धारो तुम
मौन धरों ना कुछ तो बोलो ।
मौन धरों ना कुछ तो बोलो ।
मौन धरों ना कुछ तो बोलो ।
करों शिकायत रूठो हमसे ।।

Sunday, October 25, 2020

सपनों की होली, हसरतों की डोली

सपनों की होली,.
हसरतों की डोली.

अश्कों की वैतरणी,
स्मृतियों की पूंजी.

गमगीन अन्धेरे,
वीरान सवेरे.

मध्यम होते चिराग,
बूझते हूए दीये
और गहराता एकान्त .

तेरे प्रेम मिलन के
योग वियोग
के गणित का
क्या यही
गूणाकं, शेषांक था ?

मेरे संग तुम शाम बिताकर तो देखो

मेरे संग तुम शाम बिताकर तो देखो,
दिल को दिल से मिलाकर तो देखो।

भूल के ही सही ख़ता के रूप में ही,
एकबार मेरी राह में आकर तो देखो।

बेगानों में खुशियाँ ढूंढ़ते फिरते हो,
अपनों को जरा गले लगाकर तो देखो।

इश्क़ मुहब्बत सब एक तरफ़ हो जायेंगे,
हाल फिलहाल ठोकरे खाकर तो देखो।

ढांढस बंध जाएगा खुद ही 'दोस्त' ,
कुछ पल मयखानो में गुजराकर तो देखो।

रमा है सबमें राम - मैथिलीशरण गुप्त

रमा है सबमें राम, 
वही सलोना श्याम। 

जितने अधिक रहें अच्छा है 
अपने छोटे छन्द, 
अतुलित जो है उधर अलौकिक 
उसका वह आनन्द 
लूट लो, न लो विराम; 
रमा है सबमें राम। 

अपनी स्वर-विभिन्नता का है 
क्या ही रम्य रहस्य; 
बढ़े राग-रञ्जकता उसकी 
पाकर सामंजस्य
गूँजने दो भवधान, 
रमा है सबमें राम। 


बढ़े विचित्र वर्ण वे अपने 
गढ़ें स्वतन्त्र चरित्र; 
बने एक उन सबसे उसकी 
सुन्दरता का चित्र। 
रहे जो लोक ललाम, 
रमा है सबमें राम। 
अयुत दलों से युक्त क्यों न हों 
निज मानस के फूल; 
उन्हें बिखरना वहाँ जहाँ है 
उस प्रिय की पद-धूल।
 
मिले बहुविधि विश्राम, 
रमा है सबमें राम। 
अपनी अगणित धाराओं के 
अगणित हों विस्तार; 
उसके सागर का भी तो है 
बढ़ो बस आठों #याम, 
रमा है सबमें राम। 
हुआ एक होकर अनेक वह 
हम अनेक से एक, 
वह हम बना और हम वह यों 
अहा ! अपूर्व विवेक। 
भेद का रहे न नाम, 
रमा है सबमें राम।

याम-1. समय; काल 2. तीन घंटे का काल; पहर, यम संबंधी; यम का। 

Saturday, October 24, 2020

किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का

न पाक होगा कभी हुस्न ओ इश्क़ का झगड़ा 
वो क़िस्सा है ये कि जिस का कोई गवाह नहीं 

कुछ नज़र आता नहीं उस के तसव्वुर के सिवा 
हसरत-ए-दीदार ने आँखों को अंधा कर दिया 

बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का 
जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला 

दोस्तों से इस क़दर सदमे उठाए जान पर 
दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा 

लगे मुँह भी चिढ़ाने देते देते गालियाँ साहब 
ज़बाँ बिगड़ी तो बिगड़ी थी ख़बर लीजे दहन बिगड़ा

आप की नाज़ुक कमर पर बोझ पड़ता है बहुत 
बढ़ चले हैं हद से गेसू कुछ इन्हें कम कीजिए 

अब मुलाक़ात हुई है तो मुलाक़ात रहे 
न मुलाक़ात थी जब तक कि मुलाक़ात न थी 

हाजत नहीं बनाओ की ऐ नाज़नीं तुझे 
ज़ेवर है सादगी तिरे रुख़्सार के लिए 

मेहंदी लगाने का जो ख़याल आया आप को 
सूखे हुए दरख़्त हिना के हरे हुए 

ये दिल लगाने में मैं ने मज़ा उठाया है 
मिला न दोस्त तो दुश्मन से इत्तिहाद किया

किसी ने मोल न पूछा दिल-ए-शिकस्ता का 
कोई ख़रीद के टूटा पियाला क्या करता 

आज तक अपनी जगह दिल में नहीं अपने हुई 
यार के दिल में भला पूछो तो घर क्यूँ-कर करें 

ऐ फ़लक कुछ तो असर हुस्न-ए-अमल में होता 
शीशा इक रोज़ तो वाइज़ के बग़ल में होता 

ऐसी ऊँची भी तो दीवार नहीं घर की तिरे 
रात अँधेरी कोई आवेगी न बरसात में क्या 

काबा ओ दैर में है किस के लिए दिल जाता 
यार मिलता है तो पहलू ही में है मिल जाता 

शीरीं के शेफ़्ता हुए परवेज़ ओ कोहकन 
शाएर हूँ मैं ये कहता हूँ मज़मून लड़ गया

हैदर अली आतिश

कभी आवाज देना चला आऊंगा मैं

स्याह अंधेरी रात
बेवफा चांद ने छोड़ा साथ
तारों की चादर को
बिछौना बना दूंगा मैं
कभी आवाज देना
चला आऊंगा मैं !!!!

कश्ती में हिचकोले हों
समुन्दर में तुम अकेले हो
उफनती लहरों को ही
मांझी बना दूंगा मैं
कभी आवाज देना
चला आऊंगा मैं !!!

पथरीली बहुत हो डगर
मंजिल न आये नजर
रास्ते के टीलों को
आशियाना बना दूंगा मैं
कभी आवाज देना
चला आऊंगा मैं !!!!

आंधियों का कहर हो
तूफान भरी सहर हो
धूल से भरी हवाओं को
शामियाना बना दूंगा मैं
कभी आवाज देना
चला आऊंगा मैं !!!!

ये सवाल ज़ेहन पे भारी है

ग़मगीन थी फ़ज़ा यूँ कभी-
क्या आलम हर-सू तारी है।
बहारें लौटेंगी चमन में फिर,
ये सवाल ज़ेहन पे भारी है।
ज़िन्दगी का साथ कहाँ तक-
कि किस्मत कहाँ सँवारी है।
पल-पल तुझे देता रहा,अब
एक साँस मेरे पास सारी है।
तू मानी क्या, जो वो मानेगी,
इक जान, कितनी दुश्वारी है।
नौहा-मातम, सोग़-ग़मी बस,
कौन गया, किसकी बारी है।
साथ देती ज़ीस्त जीत जाते,
मौत से जो बाज़ी ये हारी है।
'हमराह' जब तक साथ तेरा,
गुल, बादा, जश्न-ए-बहारी है।

चला आऊंगा मैं

स्याह अंधेरी रात
बेवफा चांद ने छोड़ा साथ
तारों की चादर को
बिछौना बना दूंगा मैं
कभी आवाज देना
चला आऊंगा मैं !!!!

कश्ती में हिचकोले हों
समुन्दर में तुम अकेले हो
उफनती लहरों को ही
मांझी बना दूंगा मैं
कभी आवाज देना
चला आऊंगा मैं !!!

पथरीली बहुत हो डगर
मंजिल न आये नजर
रास्ते के टीलों को
आशियाना बना दूंगा मैं
कभी आवाज देना
चला आऊंगा मैं !!!!

आंधियों का कहर हो
तूफान भरी सहर हो
धूल से भरी हवाओं को
शामियाना बना दूंगा मैं
कभी आवाज देना
चला आऊंगा मैं !!!!

शक पे है यकीन उनको

शक पे है यकीन उनको,
यकीन पे है शक मुझे;
रूहदार का अफ़साना सच्चा,
या झूठी कहानी चचा की…
किसका झूठ, झूठ है,
किसके सच में सच नहीं;
है… कि है नहीं,
बस यही सवाल है,
और सवाल का जवाब भी सवाल है;
दिल की गर सुनूं तो है,
दिमाग की, तो है नहीं,
जान लूं कि जान दूं,
मैं रहूं कि मैं नहीं!

तुझसे शिक़वा करूँ या करूँ दिल्लगी

तुझसे शिक़वा करूँ या करूँ दिल्लगी ,
है जो तू लायक़,क़ुर्बान करूँ ज़िंदगी।

मैं तेरा मुरीद,है तू मेरी मुरीद अगर,
इबादत करूँ,मैं ख़ुदा की करूँ बन्दग़ी।

पुश्तैनी इश्क़ तुझसे,कर चाहे शिनाख़्त,
आरज़ू नहीं मुल्क़ की,तेरी है तिश्नग़ी।

शुद-ख़सारे से,बेशक़ दूर है अब तल्क़,
अपनी फ़ितरत यही है सादग़ी।

Thursday, October 22, 2020

किस से करते जो कोई इश्क़ दोबारा करते

ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं 
फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं 
-इफ़्तिख़ार आरिफ़

काश देखो कभी टूटे हुए आईनों को 
दिल शिकस्ता हो तो फिर अपना पराया क्या है 
-उबैदुल्लाह अलीम

अजीब तजरबा था भीड़ से गुज़रने का 
उसे बहाना मिला मुझ से बात करने का 
-राजेन्द्र मनचंदा बानी

एक चेहरे में तो मुमकिन नहीं इतने चेहरे 
किस से करते जो कोई इश्क़ दोबारा करते 
-उबैदुल्लाह अलीम

Wednesday, October 21, 2020

उसकी यादों में खोना मुनासिब नहीं।

उसको पाने की चाहत मुनासिब नहीं,
उसकी यादों में खोना मुनासिब नहीं।
वक्त यूं तो गुज़र जाएगा ख़्वाब में,
ख़्वाब को दिल में लाना मुनासिब नहीं।।

फिर से मन को दुखाना मुनासिब नहीं,
दिल में दीपक जलाना मुनासिब नहीं।
जो ना अपना बनाना चाहे मुझे,
उसको दिल में बसाना मुनासिब नहीं।।

साड़ी शायरी

आज मैंने साड़ी क्या पहनी,
मुझे खुद से इश्क़ हो गया. 

कितनी सुंदर लगती है वह नारी,
जिसने पहन रक्खी हो साड़ी. 

Tuesday, October 20, 2020

तारीफ़ करूँ आपकी या गिला करूँ

तारीफ़ करूँ आपकी या गिला करूँ,
याद में आपकी ग़ज़ले सिला करूँ।

गुफ़्तगू किया करूं बैठ ख्वाबों में
सुबह-शाम आपसे मैं मिला करूँ।

मुरझाया हूं बिन सावन-बारिश के,
रिमझिम के आगोश में खिला करूँ।

चोरी की मुलाक़ात मुलाक़ात नहीं है

जाती है दूर बात निकल कर ज़बान से 
फिरता नहीं वो तीर जो निकला कमान से 

आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते 
दो कश्तियाँ मिली हैं डुबोने के वास्ते 

एहसान नहीं ख़्वाब में आए जो मिरे पास 
चोरी की मुलाक़ात मुलाक़ात नहीं है 

देखा है आशिक़ों ने बरहमन की आँख से 
हर बुत ख़ुदा है चाहने वालों के सामने 


सुर्ख़ी शफ़क़ की ज़र्द हो गालों के सामने 
पानी भरे घटा तिरे बालों के सामने 

चेहरा तमाम सुर्ख़ है महरम के रंग से 
अंगिया का पान देख के मुँह लाल हो गया

मैं जुस्तुजू से कुफ़्र में पहुँचा ख़ुदा के पास 
का'बे तक इन बुतों का मुझे नाम ले गया 

जलसों में गुज़रने लगी फिर रात तुम्हारी 
इस भीड़ में जाती न रहे बात तुम्हारी 

आँखें ख़ुदा ने बख़्शी हैं रोने के वास्ते 
दो कश्तियाँ मिली हैं डुबोने के वास्ते 

हाथ मलवाती हैं हूरों को तुम्हारी चूड़ियाँ 
प्यारी प्यारी है कलाई प्यारी प्यारी चूड़ियाँ

बे-वक़्त जो घर से वो मसीहा निकल आया 
घबरा के मिरे मुँह से कलेजा निकल आया  

कंघी से इतनी देर में सुलझाई एक ज़ुल्फ़ 
ऐ जान आधी रात बखेड़े में ढल गई 

जुदाई के सदमों को टाले हुए हैं 
चले जाओ हम दिल सँभाले हुए हैं 

ज़माने की फ़िक्रों ने खाया है हम को 
हज़ारों के मुँह के निवाले हुए हैं 

शाखों पर बैठकर गुजारी हमने रातें

उन शाखों पर बैठकर गुजारी हमने रातें
डर था जिनके कट जाने का

लोगों ने कहा ये तो पागल है
भरोसा नहीं इनके बच पाने का

तांकते रहे उन रास्तों को हम
डर था जिससे दुश्मन क़े आने का

सुरक्षित है आज हमी से वो लोग
जिनको डर था अपने घरों के लुट जाने का

कभी-कभी आंधियाँ भी अपना रुख बदल लेती है
अगर कर लो इरादा उनसे भिड़ जाने का

कभी मत उड़ाओ मजाक किसी का
एक दिन इंतजार करोगे तुम ही
उनकी पीठ थप थपाने का

मेरे मासूम सवालों की गहराई से मत डरना

उठ गया कलम, स्याही से मत डरना
मेरे मासूम सवालों की गहराई से मत डरना ।
लिखे हुए अल्फ़ाज़ों की गहराई में जाइए
मुझे तो बस मेरे सवालों के जवाब चाहिए
क्या सो गई है सरकार है ?
भुखमरी से मर रहा गरीब इंसान है
क्यों जिंदा यह सरकार है ?
योजना पर योजना चलाई जा रही,
कागजी कार्यवाही में गरीब दौड़ाई जा रही
कितनों तक यह योजना पहुंचाई जा रही
या कागजी कार्यवाही करा करा कर
गरीबों के नाम पर यह योजना अमीरों तक पहुंचाई जा रही
उठ गया है कलम ,स्याही से मत डरना
मेरे मासूम सवालों की गहराई से मत डरना
क्या खो गया है इंसान बिक गई इंसानियत,
क्या बस रह गया हैवान और जिंदा है हैवानियत ?
क्यों पूज रहे हो कन्या रूपी देवियां
जबकि सरेआम लूट रही है बेटियां
भीख मांग रहे हो इंसाफ की
यह तो बताओ लोकतंत्र किस काम की
लुट गई है बेटियां तो इंसाफ चाहिए,
यह तो बताओ लोकतंत्र का बस नाम चाहिए
अरे यह क्यों नहीं कहते, नहीं हमें ऐसे हैवान चाहिए
लोकतंत्र के नाम पर राजतंत्र नहीं चाहिए
हमें तो बस स्वतंत्र समाज चाहिए

मुझे मेरे सवालों के जवाब चाहिए
उठ गए हैं कलम स्याही से मत डरना
मेरे मासूम सवालों की गहराई से मत डरना

नभ में जो इक तारा था

नभ में जो इक तारा था
वह तारा भी परदेस गया
मैं एक पंछी बेसहारा
फिरूं इस गगन में आवारा
कोई न डोर है
न जाल है
न किसी की आवाज की गूंज का
इशारा
जो कुछ विद्यमान है
मेरे पीछे पीछे चलता है
बदकिस्मती मेरी है यह कि
मैं आगे आगे बढ़ता हूं
पीछे मुड़कर देख नहीं सकता
संयम खो देता हूं
गिर जाता हूं
साथ है जो साया
उसे पहचान नहीं पा रहा
अपना हो जायेगा पराया
पराया हो जायेगा
साया
साया कर लेगा
मुझसे किनारा
यह सम्पूर्ण प्रक्रिया
सच में
किसी ब्रह्मांड की भांति ही
अनसुलझे रहस्य की तरह
समझ नहीं पाया।

Monday, October 19, 2020

जब सफ़ीना मौज से टकरा गया

जब सफ़ीना मौज से टकरा गया 
नाख़ुदा को भी ख़ुदा याद आ गया
-फ़ना निज़ामी कानपुरी

जाती है दूर बात निकल कर ज़बान से 
फिरता नहीं वो तीर जो निकला कमान से 
-मुनीर शिकोहाबादी


इरादे बाँधता हूँ सोचता हूँ तोड़ देता हूँ 
कहीं ऐसा न हो जाए कहीं ऐसा न हो जाए  
-हफ़ीज़ जालंधरी

दिल पागल है रोज़ नई नादानी करता है 
आग में आग मिलाता है फिर पानी करता है 
-इफ़्तिख़ार आरिफ़

सब कुछ कह लेने के बाद

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 
'सब कुछ कह लेने के बाद'

सब कुछ कह लेने के बाद
कुछ ऐसा है जो रह जाता है,
तुम उसको मत वाणी देना।

वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,
वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,
वह सारी रचना का क्रम है,
वह जीवन का संचित श्रम है,
बस उतना ही मैं हूँ,
बस उतना ही मेरा आश्रय है,
तुम उसको मत वाणी देना।

वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,
सच्चाई है-अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,
वह यति है-हर गति को नया जन्म देती है,
आस्था है-रेती में भी नौका खेती है,
वह टूटे मन का सामर्थ है,
वह भटकी आत्मा का अर्थ है,
तुम उसको मत वाणी देना।

वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,
वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,
बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,
इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,

अन्तराल है वह-नया सूर्य उगा लेती है,
नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,
वह मेरी कृति है
पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,
तुम उसको मत वाणी देना।

यति- तपस्वी, त्यागी।

Sunday, October 18, 2020

रात की धड़कन जब तक जारी रहती है

रात की धड़कन जब तक जारी रहती है 
सोते नहीं हम ज़िम्मेदारी रहती है 

जब से तू ने हल्की हल्की बातें कीं 
यार तबीअत भारी भारी रहती है 

पाँव कमर तक धँस जाते हैं धरती में 
हाथ पसारे जब ख़ुद्दारी रहती है 

वो मंज़िल पर अक्सर देर से पहुँचे हैं 
जिन लोगों के पास सवारी रहती है 

छत से उस की धूप के नेज़े आते हैं 
जब आँगन में छाँव हमारी रहती है 

घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया 
घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है

राहत इंदौरी

ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है

कब उन आंखों का सामना न हुआ
तीर जिन का कभी ख़ता न हुआ
- मुबारक अज़ीमाबादी


खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए
सवाल ये है किताबों ने क्या दिया मुझ को
- नज़ीर बाक़री


बहुत सुकून से रहते थे हम अंधेरे में
फ़साद पैदा हुआ रौशनी के आने से
- आलम ख़ुर्शीद

तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है
- वसीम बरेलवी

मरना कितना आसां है जीना कितना भारी है।

हर चेहरे पर बेचैनी है हर आंखों में लाचारी है,
मरना कितना आसां है यहां जीना कितना भारी है।

बेटी घर से बाहर हो तो दिल घबराता रहता है,
कदम-कदम सैयाद खड़े हैं बहुत बड़ी दुश्वारी है।

तहजीबों के कातिल है जो महफ़िल रोज सजाते हैं,
फिर भी खुद को नायक कहते ये कैसी फ़नकारी है।

रिश्ते, नाते, ईमान,जमीर सब बिकता है बाजारों में,
जिसने खुद को जितना बेचा वो उतना बड़ा व्यापारी है ।

अपनो में भी तन्हा है सब हर चेहरा अंजाना है,
दिनेश समझ लो बस इतना अब ये ही दुनियादारी है ।

Saturday, October 17, 2020

दिल की धड़कन शायरी

बढ़ रही है दिल की धड़कन आँधियों धीरे चलो
फिर कोई टूटे न दर्पन आँधियों धीरे चलो
- कुंवर बेचैन

दिल की धड़कन भी बड़ी चीज़ है तन्हाई में 
तेरी खोई हुई आवाज़ सुना करते हैं 
-शबनम नक़वी

इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें 
कुछ देर को बजने दो ये शहनाई ज़रा और 
-आनिस मुईन

हम अपने दिल की धड़कन में एक तमन्ना लाए हैं 
तुझ से प्यार की बातें करने दूर कहीं से आए हैं 
-जाज़िब क़ुरैशी

दिल की धड़कन उलझ रही है ये कैसी सौग़ात ग़ज़ल की 
तार-ए-नफ़स पर उँगली रख दी छेड़ के तुम ने बात ग़ज़ल की 
-रख़शां हाशमी

कोई धड़कन कोई उलझन कोई बंधन माँगे 
हर-नफ़स अपनी कहानी में नया-पन माँगे 
-फ़रहत क़ादरी


हम अपने दिल की धड़कन में एक तमन्ना लाए हैं
तुझ से प्यार की बातें करने दूर कहीं से आए हैं
- जाज़िब क़ुरैशी

दिल की धड़कन सुनी तो वो बोले
ये खनकता सितार कैसा है
- पूजा भाटिया

दिल की धड़कन से लरज़ता है बदन
अपनी वहशत में खंडर बोलता है
- सैफ़ुद्दीन सैफ़

दिल का दिलबर जब से दिल की धड़कन होने वाला है 
सूना सूना मेरा आँगन गुलशन होने वाला है 
-सय्यद ज़िया अल्वी

धड़कन हो कर दिल से साज़िश करता हूँ
और फिर जीने की फ़रमाइश करता हूँ
- शोएब ज़मान

तेज़ होती जा रही है किस लिए धड़कन मिरी
हो रही है रफ़्ता रफ़्ता आँख भी रौशन मिरी
- ग़ज़नफ़र

यूँ जगा देती है दिल की धड़कन
उस के क़दमों की सदा हो जैसे
- नूर जहाँ सरवत

कोई धड़कन जैसा शख़्स अचानक छोड़े साथ
ग़ुस्सा कर लेना पर अपने दिल का नास नहीं
- हमीदा शाहीन

दिल की धड़कन बढ़ी है सुनने वालों की
किस ने ख़बर उड़ा दी हम कुछ बोलेंगे
- सदार आसिफ़

Thursday, October 15, 2020

हर पल हर जगह नजर आने लगी हो तुम

प्यार का मीठा एहसास दिलाने लगी हो तुम
अब तो मुझको मुझी से चुराने लगी हो तुम
तेरी चाहते का छाया है सुरूर इस कदर
हर पल हर जगह नजर आने लगी हो तुम

वीरान थी यह जिन्दगी तेरे आने से पहले
खुशियों के सपने दिखाने लगी हो तुम
हर पल मुझे यह एहसास होता है तेरा
इस कदर मेरे सांसों में घुलने लगी हो तुम

एक पल की भी दूरी सह नहीं पाता हूं मैं
हो कर दूर मुझसे क्यों आजमाने लगी हो तुम
राह चलते अक्सर होता है यह गुमान मुझको
की बन साया मेरे साथ चलने लगी हो तुम

नाम कोई भी लिख लूं तो नाम आय तेरे लबों पर
बन कर जादू मेरे रूह में समाने लगी हो तुम

तेरी यादों से ही दिल होना है कनक मेरा
घुल कर साथ लहू के नस नस में समाने लगी हो तुम

जानें कौन सी डोर है तेरी और खींच ले जाती हो तुम
मुझ को अपना दीवाना बनाने लगी हो तुम

ये तो बता क्या नाम दूं इस दीवानगी काे
बेचैन कर के है लम्हा मुझे तड़पाने लगी हो तम

तेरे ख्यालों से सिर्फ महकने लगी है मेरी जिन्दगी
मेरे जेहन और दिल में इस कदर छाने लगी हो तुम

यह मासूमियत यह भोलापन यह सादगी तेरी
मुझको हर अदा से अब सताने लगी हो तुम
जेठ की गर्मी में भी तुम बारिश बन कर बरसने लगीं हो तुम
मेरी आंखे तुम को ढूंढ़ती रहती है क्या बंद होने
से पहले तक भी मेरी बाहों में आ पाऊंगी तुम
क्या इस बात का एहसास है तुम्हें श्रृति
मेरी हर कविता हर गजल में आने लगी हो तुम

भला मैं तो था ही जुगुनू सा

समा की सर-ए-महफिल
रोज टूटते हैं कई तारे
मेहर-ओ-माह भी तो बख्त को रोए हैं
और भला मैं तो था ही जुगुनू सा

तेरा इश्क़ कैद-ए-पिंजरा था
जिसमें आज भी कैद हूँ
मेहर-ओ-माह भी रोज़ ढल जाते हैं
और समा से आज़ादी की गुज़ारिश करता हूँ।।

आते हैं वो यूँ ही मेरे ख़यालों में

आते हैं वो यूँ ही मेरे ख़यालों में,
न दूरियां अब.. जैसे कोई बाकी है
आते हैं कई सवाल फिर शांत हो जाता हूं,
कि शायद उनका कुछ कहना हमसे बाकी है
आखिर उनसे चंद सवालात कर ही लिए
कुछ तो हिम्मत हममें भी बाकी है
आते हो जब मेरे तस्सवुर में तुम,
एक हवा सुकून की साथ चली आती है
बताओ बेवज़ह आते हो ज़हन में मेरे,
या कुछ बातें अनकही बाकी है?

सुनते ही मेरे सवालात वो थोड़ा गुस्साये,
मानो कुछ अपनापन अब भी बाकी है

चेहरे पर नाराजगी के साथ..
हल्की सी मुस्कराहट लिए वो बोले...
हम थे साथ ..तो कुछ और बात थी,
फिलहाल एक प्यारा सा अपना साथी है
छूटा साथ तेरा तो सब कुछ भूलें,
न कोई वज़ह न कुछ अनकही बाकी है
क्यूं करते हो अब भी .. याद मुझे इतना,
आँखें खुलती नहीं कि हिचकियां आती हैं
बंद हैं रास्ते सब.. मेरे दिल को पाने के,
न तमन्ना कोई तेरे साथ आने की है
न करना जिक्र मेरा कहीं अब ज़माने में,
कर न बदनाम, थोड़ी सी इज्ज़त बाकी है

सुनकर जवाब उनका हम भी रह न सके...

बस कह लिया जो कहना था तुमने,
अब सुनना न कुछ ऐसा .. तुमसे बाकी है
होते हमसफर.. तो बात कुछ और ही होती,
पर अब ये जिन्दगी जैसे तन्हा राह बाकी है,
एक तुम ही होते बस मंजिल अपनी ,
होती न परवाह कि सफर कितना बाकी है
पर जिक्र तेरा रहेगा हर नज़्म में मेरी,
लिखनी तुम पर कई ग़ज़लें बाकी है
अभी तो चंद लफ़्ज़ों में समेटा है तुझे..
अभी तो मेरी किताबों में तेरा सफर बाकी है....
अभी तो चंद लफ़्ज़ों में समेटा है तुझे..
अभी तो मेरी किताबों में तेरा सफर बाकी है....

दिल मिलना बाकी है।

अभी कुछ कुछ हुआ है उजाला
पर सवेरा होना बाकी है।

अभी मिली हैं आँखें उनसे
पर दिल मिलना बाकी है।

पेड़ों के अभी कुछ कुछ पत्ते झरे हैं
पर हरियाली अभी बाकी है।

अभी तो मैंने देखा है एक चाँद
पर उससे मुलाकात अभी बाकी है।

सुसख हवा चली है कुछ कुछ
पर गर्मी आना बाकी है।

अभी दो चार हुई हैं उनसे मुलाकातें
पर अभी प्यार होना बाकी है

Wednesday, October 14, 2020

आस, नसीहत शायरी

रोज़ इस आस पे दरवाज़ा खुला रखता हूँ
शायद आ जाए वो चुपके से कभी उस जानिब
- फ़ैसल हाश्मी

आस पे तेरी बिखरा देता हूँ कमरे की सब चीज़ें
आस बिखरने पर सब चीज़ें ख़ुद ही उठा के रखता हूँ
- अजमल सिद्दीक़ी

सच्ची ख़ुशी की आस न टूटे दुआ करो
झूटी तसल्लियों से बहलते रहा करो
- अय्यूब फ़हमी


तेरी सदा की आस में इक शख़्स रोएगा
चेहरा अँधेरी रात का अश्कों से धोएगा
- प्रकाश फ़िक्री

ख़ुर्शीद की निगाह से शबनम को आस क्या
तस्वीर-ए-रोज़गार से दिल है उदास क्या
- हसन नईम


ख़्वाब में कोई मुझ को आस दिलाने बैठा था
जागा तो मैं ख़ुद अपने ही सिरहाने बैठा था
- इरफ़ान सत्तार

बादलों की आस उस के साथ ही रुख़्सत हुई
शहर को वो आग की बे-रहमियाँ भी दे गया
- अज़रा वहीद

तुम्हारी गुफ़्तुगू से आस की ख़ुश्बू छलकती है
जहाँ तुम हो वहाँ पे ज़िंदगी मालूम होती है
- अफ़रोज़ आलम

वफ़ा की आस में दिल दे के पछताया नहीं करते
ये नख़्ल-ए-आरज़ू है इस में फल आया नहीं करते
- रियासत अली ताज

मैं शाख़ से उड़ा था सितारों की आस में
मुरझा के आ गिरा हूँ मगर सर्द घास में
- शकेब जलाली

बारहा बात जीने मरने की
एक बिखरी सी आस हो तुम भी
- आलोक मिश्रा

मिरी उम्मीद का सूरज कि तेरी आस का चाँद
दिए तमाम ही रुख़ पर हवा के रक्खे थे
- ज़फ़र मुरादाबादी

वक़्त तो कब का निकल चुका

सूख चुकी है कलम की स्याही
ना शब्दों का भण्डार बचा
शायद कही, मैं ही रुक सा गया हूँ
वक़्त तो कब का निकल चुका

Tuesday, October 13, 2020

पथिकों के लिए पदचिह्न ....

मंजिलों का न कोई
ओर होता है न कोई छोर
पथिक हैं सब अनजानी राहों के
पर वक़्त पर भी चलता न कोई जोर
सफ़र वो भी जारी रखते हैं
जो जानते हैं मंजिलें मृगतृष्णा हैं
जो अपनी राहों के खुद निर्माता हों
वो कब परवाह करते हैं
कुछ पाने और खोने की
ये गांठ बांध अग्रसर होते हैं कर्मपथ पर
कि सबसे आगे नहीं तो
सबसे पीछे भी नहीं हैं हम
निरंतर आगे ही बढ़ रहे हैं हम
कम-से-कम पीछे तो नहीं
मुड़ रहे हैं हम
सदा तसल्ली होगी कि
कुछ तो है जो छोड़े जा रहे हैं
किसी और के जो काम आ सके l

अपने पीछे चले आ रहे
पथिकों के लिए पदचिह्न ....

हर एक बात को चुप-चाप क्यूं सुना जाए- निदा फ़ाज़ली

हर एक बात को चुप-चाप क्यूं सुना जाए 
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए 


तुम्हारा घर भी इसी शहर के हिसार में है 
लगी है आग कहां क्यूं पता किया जाए

जुदा है हीर से रांझा कई ज़मानों से 
नए सिरे से कहानी को फिर लिखा जाए 


कहा गया है सितारों को छूना मुश्किल है 
ये कितना सच है कभी तजरबा किया जाए


किताबें यूं तो बहुत सी हैं मेरे बारे में 
कभी अकेले में ख़ुद को भी पढ़ लिया जाए 

Monday, October 12, 2020

ढलती शाम शायरी

शाम ढलने से फ़क़त शाम नहीं ढलती है
उम्र ढल जाती है जल्दी पलट आना मिरे दोस्त
- अशफ़ाक़ नासिर


वो न आएगा हमें मालूम था इस शाम भी
इंतिज़ार उस का मगर कुछ सोच कर करते रहे
- परवीन शाकिर

सुब्ह बिछड़ कर शाम का व'अदा शाम का होना सहल नहीं
उन की तमन्ना फिर कर लेना सुब्ह को पहले शाम करो
- निसार इटावी


फिर आज 'अदम' शाम से ग़मगीं है तबीअत
फिर आज सर-ए-शाम मैं कुछ सोच रहा हूँ
- अब्दुल हमीद अदम


दुख के ताक़ पे शाम ढले
किस ने दिया जलाया था
- अनवर सदीद

शाम से उन के तसव्वुर का नशा था इतना
नींद आई है तो आँखों ने बुरा माना है
- अज्ञात

हम भी इक शाम बहुत उलझे हुए थे ख़ुद में
एक शाम उस को भी हालात ने मोहलत नहीं दी
- इफ़्तिख़ार आरिफ़


वो मुझे छोड़ के इक शाम गए थे 'नासिर'
ज़िंदगी अपनी उसी शाम से आगे न बढ़ी
- हकीम नासिर

आ गई याद शाम ढलते ही
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही
- मुनीर नियाज़ी


जब शाम उतरती है क्या दिल पे गुज़रती है
साहिल ने बहुत पूछा ख़ामोश रहा पानी
- अहमद मुश्ताक़

फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा
- बशीर बद्र


शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
- राजेश रेड्डी

आज ये शाम भीगती क्यों है
तुम कहीं छुप के रो रही हो क्या
- ज़िया ज़मीर


शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का
- मीर तक़ी मीर

सफर शायरी

जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं

- अहमद फ़राज़


अब के सफ़र में दर्द के पहलू अजीब हैं
जो लोग हम-ख़याल न थे हम-सफ़र हुए

- खलील तनवीर

ज़िंदगी अपना सफ़र तय तो करेगी लेकिन
हम-सफ़र आप जो होते तो मज़ा और ही था

- अमीता परसुराम मीता


सफ़र के साथ सफ़र के नए मसाइल थे
घरों का ज़िक्र तो रस्ते में छूट जाता था

- वसीम बरेलवी

सफ़र में होती है पहचान कौन कैसा है
ये आरज़ू थी मिरे साथ तू सफ़र करता

- तैमूर हसन


अब जुदाई के सफ़र को मिरे आसान करो
तुम मुझे ख़्वाब में आ कर न परेशान करो

- मुनव्वर राना
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शिकस्ता-दिल अँधेरी शब अकेला राहबर क्यूँ हो
न हो जब हम-सफ़र कोई तो अपना भी सफ़र क्यूँ हो

- इन्दिरा वर्मा


हम-सफ़र रह गए बहुत पीछे
आओ कुछ देर को ठहर जाएँ

- शकेब जलाली
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उस को नए सफ़र में नए हम-सफ़र के साथ
दिल ख़ुश हुआ है क्यों ये ज़िया देखते हुए

- ज़िया ज़मीर


सफ़र के बीच ये कैसा बदल गया मौसम
कि फिर किसी ने किसी की तरफ़ नहीं देखा

- मंज़र भोपाली


सफ़र के बाद भी ज़ौक़-ए-सफ़र न रह जाए
ख़याल ओ ख़्वाब में अब के भी घर न रह जाए

- अभिषेक शुक्ला



हम जुदा हो गए आग़ाज़-ए-सफ़र से पहले
जाने किस सम्त हमें राह-ए-वफ़ा ले जाती

- शहरयार


मुमकिन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो कुछ हम भी बदल कर देखें

- निदा फ़ाज़ली



आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए
वर्ना ये उम्र भर का सफ़र राएगाँ तो है

- मुनीर नियाज़ी

तू चाहिए न तेरी वफ़ा चाहिए मुझे - ख़ुमार बाराबंकवी

तू चाहिए न तेरी वफ़ा चाहिए मुझे 
कुछ भी न तेरे ग़म के सिवा चाहिए मुझे 

मरने से पहले शक्ल ही इक बार देख लूँ 
ऐ मौत ज़िंदगी का पता चाहिए मुझे 

या रब मुआ'फ़ कर के न दे कर्ब-ए-इंफ़िआल 
मैं ने ख़ताएँ की हैं सज़ा चाहिए मुझे 

ख़ामोशी-ए-हयात से उकता गया हूँ मैं 
अब चाहे दिल ही टूटे सदा चाहिए मुझे 

उन मस्त मस्त आँखों में आँसू अरे ग़ज़ब 
ये इश्क़ है तो क़हर-ए-ख़ुदा चाहिए मुझे 

नासेह नसीहतों का ज़माना गुज़र गया 
अब प्यारे सिर्फ़ तेरी दुआ चाहिए मुझे 
हर दर्द को दवा की ज़रूरत है ऐ 'ख़ुमार' 
जो दर्द ख़ुद हो अपनी दवा चाहिए मुझे 

Sunday, October 11, 2020

कहां ढूंढ़ते हो ख़ुद को

कहां ढूंढ़ते हो ख़ुद को
तस्वीरों में या तक़दीरों में
सूनी सड़को के अंधियारों में
या बंद कमरे की चित्करों में ?

कहीं नहीं मिलोगे, ना तस्वीरों में
ना ही किसकी की तक़दीरों में
ना ही सूनी सड़को पर
ना ही बंद कमरों की चित्कारों में !

वक़्त है जरा सा ठहर जाओ
स्वयं को दो तनिक वक़्त और भीतर जाओ
करो परीक्षण स्वंय की और बतलाओ
तुम कहीं नहीं हो , ख़ुद में हो !

मन के सहमे कोने में कहीं छिपे हुए हो
या फ़िर किसी की यादों में कहीं बंधे हुए हो
तुम ख़ुद से अनभिज्ञ हो
अरे ! देखो ना तुम रुद्र हो
तुम शून्य हो
किंतु अमूल्य हो !

ख़ुशी मिले या ग़म सहना पड़ता है

ख़ुशी मिले या ग़म सहना पड़ता है
ख़ुदा जिस हाल में रखे रहना पड़ता है

ज़िन्दगी को दरिया के पानी की तरह
वक़्त के बहाव के साथ बहना पड़ता है

दिल के समन्दर में जब लहरे-ग़म उठने लगे
तो आंसुओं को आंख से बहना पड़ता है

चाहे कितनी भी बुलन्द इमारत हो
जब मियाद आ जाती है ढ़हना पड़ता है

बादशाह या कलन्दर हों सबको इक दिन
इस दुनिया को अलविदा कहना पड़ता है. 

जीना पड़ता है

जीवन कितना कठिन हो,
फिर भी जीना पड़ता है।
जीवन में मिले गरल तो,
खुद ही पीना पड़ता है।

पथ के कांटों को चुनकर,
खुद आगे बढ़ना पड़ता है।
चाहे चुभन हो पैरों में,
फिर भी हंसना पड़ता है।

लक्ष्य कठिन हो चाहे कितना,
अर्जुन सा सधना पड़ता है।
लगा तीर निशाने पर फिर,
जीत का वरण वो करता है।

जो जीवन का गरल है पीते,
उनको ही अमृत मिलता है।
मेहनत के जल से उनके,
बंजर में फूल खिलता है।

कुछ करने की चाह हो जिसमें,
पत्थर से झरना बहता है।
अटल इरादे, दृढ़संकल्प से,
जीत का सेहरा बंधता है।

दर्द का सिलसिला चलता रहेगा |

दर्द का सिलसिला ये क्या
यूं ही चलता रहेगा |

आसूंओं के सैलाब आकर
क्या दिलों में बिछाएंगे पत्थर |

माएं हाथ फैलाएं रह जाएंगी
और कोख यूं ही उजड़ती जाएंगी |

नादानियां हरगिज़ नहीं ये हरकत
अपने संस्कार कम पड़ रहे हैं |

सुना हैं जंगलों में शेर घट रहे हैं
पर भेड़ियों पर कब अंकुश लग रहे हैं |

हे विधाता ! तुम ही कुछ तो बदल डालो
बुराईयों को चुन-चुन निर्मूल कर तो डालो |

Saturday, October 10, 2020

वे बातें लौट न आएंगी...

वे बातें लौट न आएंगी...


खगदल हैं ऐसे भी कि न जो
आते हैं, लौट नहीं आते
वह लिए ललाई नीलापन
वह आसमान का पीलापन
चुपचाप लीलता है जिनको
वे गुंजन लौट नहीं आते
वे बातें लौट नहीं आतीं

बीते क्षण लौट नहीं आते
बीती सुगन्ध की सौरभ भर
पर, यादें लौट चली आतीं
पीछे छूटे, दल से पिछड़े


भटके-भरमे उड़ते खग-सी
वह लहरी कोमल अक्षर थी
अब पूरा छन्द बन गई है —
'तरू-छायाओं के घेरे में
#उद्भ्रांत जुन्हाई के हिलते
छोटे-छोटे मधु-बिम्बों-सी
वह याद तुम्हारी आई है' —

पर बातें लौट न आएंगी
बीते पल लौट न आएंगे

- गजानन माधव मुक्तिबोध 

उद्भ्रांत- घूमता हुआ, चकित, विह्वल; विकल।

हम परेशाँ ही रहे अपने ख़यालों की तरह

फ़लसफ़े इश्क़ में पेश आए सवालों की तरह 
हम परेशाँ ही रहे अपने ख़यालों की तरह 

शीशागर बैठे रहे ज़िक्र-ए-मसीहा ले कर 
और हम टूट गए काँच के प्यालों की तरह 

जब भी अंजाम-ए-मोहब्बत ने पुकारा ख़ुद को 
वक़्त ने पेश किया हम को मिसालों की तरह 

ज़िक्र जब होगा मोहब्बत में तबाही का कहीं 
याद हम आएँगे दुनिया को हवालों की तरह

सुदर्शन फ़ाकिर

ऐसा नहीं कि दर्द से ही फ़ासला होते रुका है

ऐसा नहीं कि दर्द से ही फ़ासला होते रुका है,
उसका चेहरा भी तो मेरा आईना होते रुका है।

अब आसमां में देखना क्या पूनम के चांद को,
कल ही बे-घूंघट उसका सामना होते रुका है।

ये ऐसे वैसे लोग भी फूलों में लिपटे हैं लेकिन,
मेरा दिल ही ख़ुशबूओं का रास्ता होते रुका है।

दर पर दस्तक थी मगर, दरवाज़ा खोला नहीं,
तन्हाइयों का ज़िन्दगी से ख़ात्मा होते रुका है।

फ़िज़ा कब बदल दे, मिज़ाज अमीरे शहर का,
कल तक मेरे शहर में भी हादसा होते रुका है।

घर से निकला था अपनी जेब में रखकर पता,
इसलिए वो शख़्स मरकर लापता होते रुका है।

ये ज़िन्दगी जो लौट आयी मेरी मां के बदन में,
यूं मेरा दिल भी ग़मों का थामला होते रुका है।

कुछ समझदार भी बैठे थे गांव की चौपाल पर,
इसलिए कल हाथरस सा मामला होते रुका है।

दोस्त सच कहने की मेरी आदत जो छूटी नहीं,
उसकी महफ़िल में मेरा दाख़िला होते रुका है।

उजाले भी, अंधेरों से, मोहब्बत खूब करते हैं।

उजाले भी, अंधेरों से, मोहब्बत खूब करते हैं।
मगर इन्सान, दोनों की, शिकायत खूब करते हैं।

उजाले बिन, अंधेरा क्या, अंधेरे बिन, उजाला क्या?
रहे हैं दूर, लेकिन दोनों, इज्ज़त खूब करते हैं।

यहां बारिश, वहां सूखा, हमारी ये शिकायत है,
यहां बातों ही बातों पर, मशक्कत खूब करते हैं।

न तेरे कहने से बदले, न मेरे कहने से बदले,
तभी हालत बदलती है, जो मेहनत खूब करते हैं।

जिन्हें बचपन नहीं मिलता, खफ़ा रहते हैं दुनिया से,
ख़ुदा से वो ज़माने की, शिक़ायत खूब करते हैं।
खुदा की भी ख़ुदा से वो शिकायत खूब करते हैं।

जिन्हें मालूम है, हम जैसे, पागल कैसे बनते हैं,
हमारी सोच पर वो फिर, सियासत खूब करते हैं।

किसी मज़हब को मानें हम, हमें आज़ादी कितनी है,
लड़ाये जो हमें, हम उससे, नफ़रत खूब करते हैं।

हमारी संस्कृति में पूजते, हर तत्व जीवन का,
हमेशा हम तो जीवन की इबादत खूब करते हैं।

सब कुछ होते हुए भी कुछ तो कमी है

सब कुछ होते हुए भी कुछ तो कमी है
तभी तो आज मेरी आंखों में नमी है ;
अतीत में शायद कुछ तो ऐसा बोया होगा
उस वक़्त मैंने कुछ तो खोया होगा;
तभी तो आज जीवन में कोई ललक नहीं
मीलों दूर तक मंजिल की कोई झलक नहीं;
अब ना कोई अरमान और ना कोई सपना है
बिना कर्म किए जो मिल जाए वही अपना है;
जीने की औपचारिकता निभा रहा हूं
नकारा जीवन जिए जा रहा हूं ;
पता नहीं जीने की ऐसी क्या मजबूरी है
शायद आपके आंसू ही मेरी कमजोरी है ;
आखिर कब तक यह बंधन मुझको रोकेगा
कभी तो ख़ुदा मेरे बारे में भी सोचेगा
तब शायद वो मुझे अपने पास बुला लेगा
और मुझे हमेशा के लिए चैन से सुना देगा!!

ये क्या कि सब से बयां दिल की हालतें करनी

ये क्या कि सब से बयां दिल की हालतें करनी
'फ़राज़' तुझ को न आईं मोहब्बतें करनी

ये क़ुर्ब क्या है कि तू सामने है और हमें
शुमार अभी से जुदाई की साअ'तें करनी

कोई ख़ुदा हो कि पत्थर जिसे भी हम चाहें
तमाम उम्र उसी की इबादतें करनी

सब अपने अपने क़रीने से मुंतज़िर उस के
किसी को शुक्र किसी को शिकायतें करनी

हम अपने दिल से ही मजबूर और लोगों को
ज़रा सी बात पे बरपा क़यामतें करनी

मिलें जब उन से तो मुबहम सी गुफ़्तुगू करना
फिर अपने आप से सौ सौ वज़ाहतें करनी

ये लोग कैसे मगर दुश्मनी निबाहते हैं
हमें तो रास न आईं मोहब्बतें करनी

कभी 'फ़राज़' नए मौसमों में रो देना
कभी तलाश पुरानी रिफाक़तें करनी

आज फिर हसीन लम्हों ने मुझे पुकारा था

आज फिर हसीन लम्हों ने मुझे पुकारा था,
दूर मैं आज कोसों सही,
पर पास एक किनारा था।।

इन काली रातों का सहमा हूं मैं,
आता है बेपरवाह सोना मुझे भी।।
दौड़ भाग से थक चुका हूं मैं,
आता है बेपनाह रोना मुझे भी।।

आंखें में बेशक आंसू नहीं,
पर भीगे हैं जज़्बात मेरे सभी।।
इस दौर का मैं बेशक नहीं,
भागता रहूं, अब वो बात नहीं।।

दूर है बेशक घर मेरा,
हर राह याद मुझे आज भी।।
मिले जो काश बचपन मेरा,
लौट मैं जाऊं आज ही।।

पूछ रही पुकार मेरे कानों में,
क्या मैं लौट पाऊंगा कभी?

कभी आंखों से ही बात कर लेते थे

कभी आंखों से ही बात कर लेते थे उनसे ,
आज आंखों से आंख ना मिलाने को जी चाहता है ,
कभी बहाने ढूंढता था बात करने को उनसे ,
आज ख़ामोश रहने को जी चाहता है ।
कभी लंबे सफ़र तय करने के साथ में उनके,
आज नजदीक जाने से जी कतराता है ,
जुनून तो इतना था तोड़ूंगा तारे उनके लिए ,
आज उस जुनून को अपशब्द कहने को जी चाहता है।
हर छोटी सी बात बिन कहे ही समझ लेना,
ख़्वाहिशे पूरी करने के वादे क्या किये,
आपने हमें जाने क्या समझ लिया ,
जाने क्या समझ लिया ..............।

बीते उन पलों को समेट कर रख लूं,
ख़ामोशी को ही अपनी आवाज़ बना लूं ।
“आरज़ू-ए-दिल फिर भी जाने क्यों है ,
आरजू-ए-दिल फिर भी जाने क्यों है,”
“बस एक बार उनसे कुछ सवालात कर लूं,
बस एक बार उनसे कुछ सवालात कर लूं।“

ज़िन्दगी में कुछ कमी है

लगता है ज़िन्दगी में कुछ कमी है ,
यूं ही नहीं ये आंखो में नमी है...

चल तो रही है भरपूर सांसे
ना जाने क्यूं ये ज़िन्दगी थमी है...

जो सोचा करते थे के इस दुनिय में बस हम ही हैं,
आज उनकी निगाहें भी दूसरों पर जमी है ...

सुख चैन और अमन ढूंढने निकले थे ,
ना जाने क्यूं मोह में मुस्तैद हो गये ...

सभी आज़ाद पंछी जो उड़ने निकले थे ,
समाज के पिंजरे में कैद हो गये ...

Thursday, October 8, 2020

उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊंगा

अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊंगा
उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊंगा

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं
मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊंगा

मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊंगा

सारी दुनिया की नज़र में है मिरा अहद-ए-वफ़ा
इक तिरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊंगा

मेरी उदासी की है किसे फ़िक्र यहां ..

मेरी उदासी की है किसे फ़िक्र यहां ..
मुझे बेकार दुनिया में लाया गया है ..

सिलती हूं रोज़ ही इक नया ज़ख्म..
नमक का मरहम भी लगाया गया है..

सन्नाटा है ज़ीस्त में गज़ब का मेरी..
मगर ग़म का तराना गाया गया है..

हंस देती हूं पीकर खारे अश्क मैं सारे..
खारे अश्कों का ज़हर पिलाया गया है..

याद फलसफ़े नफ़रत औ मुहब्बत के..
मुझे मगर हर सफ़े से हटाया गया है..

भूलना फ़ितरत है तुम भी भूल जाओगे ..
याद हूं ,इस बात से मुझे बहलाया गया है..

शौक नहीं जीतने का किसी हाल में मुझे...
हार कर जीतूं ये हुनर अपनाया गया है...

होते हैं अब रुख़्सत तेरी बज़्म से दोस्त..
मुझे कब यहां दिल से बुलाया गया है..!!

गुरु दोहा

गुरु अमृत है जगत में, बाकी सब विषबेल,
सतगुरु संत अनंत हैं, प्रभु से कर दें मेल।
 
गीली मिट्टी अनगढ़ी, हमको गुरुवर जान,
ज्ञान प्रकाशित कीजिए, आप समर्थ बलवान। 


गुरु बिन ज्ञान न होत है
गुरु बिन ज्ञान न होत है, गुरु बिन दिशा अजान,
गुरु बिन इन्द्रिय न सधें, गुरु बिन बढ़े न शान।
 
गुरु मन में बैठत सदा, गुरु है भ्रम का काल,
गुरु अवगुण को मेटता, मिटें सभी भ्रमजाल।


शिष्य वही जो सीख ले,
शिष्य वही जो सीख ले, गुरु का ज्ञान अगाध,
भक्तिभाव मन में रखे, चलता चले अबाध।
 
गुरु ग्रंथन का सार है, गुरु है प्रभु का नाम,
गुरु अध्यात्म की ज्योति है, गुरु हैं चारों धाम।

अंधकार से खींचकर
अंधकार से खींचकर, मन में भरे प्रकाश,
ज्यों मैली चुनरी धुले, सोहत तन के पास।
 
गुरु की कृपा हो शिष्य पर, पूरन हों सब काम,
गुरु की सेवा करत ही, मिले ब्रह्म का धाम।
 
गुरु अनंत तक जानिए, गुरु की ओर न छोर,
गुरु प्रकाश का पुंज है, निशा बाद का भोर।

आदमी शायरी

इसी लिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मैं 
तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मैं 
- बशीर बद्र

आदमी आदमी से मिलता है 
दिल मगर कम किसी से मिलता है 
- जिगर मुरादाबादी

सम्भल सम्भल के चलो, ऐहतियात से पहनो, 
बड़े नसीब से मिलता है आदमी का लिबास! 

गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया 
होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया 
- निदा फ़ाज़ली

समझेगा आदमी को वहाँ कौन आदमी 
बंदा जहाँ ख़ुदा को ख़ुदा मानता नहीं 
- सबा अकबराबादी


राह में बैठा हूँ मैं तुम संग-ए-रह समझो मुझे 
आदमी बन जाऊँगा कुछ ठोकरें खाने के बाद 
- बेख़ुद देहलवी

भीड़ तन्हाइयों का मेला है 
आदमी आदमी अकेला है 
- सबा अकबराबादी

मैं आदमी हूँ कोई फ़रिश्ता नहीं हुज़ूर 
मैं आज अपनी ज़ात से घबरा के पी गया 
- साग़र सिद्दीक़ी

आदमी का आदमी हर हाल में हमदर्द हो 
इक तवज्जोह चाहिए इंसाँ को इंसाँ की तरफ़ 
- हफ़ीज़ जौनपुरी

ख़ुदा बदल न सका आदमी को आज भी 'होश' 
और अब तक आदमी ने सैकड़ों ख़ुदा बदले 
- असग़र मेहदी होश

इतना बे-आसरा नहीं हूँ मैं 
आदमी हूँ ख़ुदा नहीं हूँ मैं 
- परवेज़ साहिर

ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा

ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा

हुस्न था तेरा बहुत आलम-फ़रेब
ख़त के आने पर भी इक आलम रहा

दिल न पहुंचा गोशा-ए-दामां तलक
क़तरा-ए-ख़ूं था मिज़ा पर जम रहा

सुनते हैं लैला के ख़ेमे को सियाह
उस में मजनूं का मगर मातम रहा

जामा-ए-एहराम-ए-ज़ाहिद पर न जा
था हरम में लेक ना-महरम रहा
ज़ुल्फ़ें खोलीं तो तू टुक आया नज़र
उम्र भर यां काम-ए-दिल बरहम रहा

उस के लब से तल्ख़ हम सुनते रहे
अपने हक़ में आब-ए-हैवां सम रहा

गुमशुदा ही रहा करता है वो ख़ुद से ही ख़ुद में

एक बिखरा हुआ इंसान बिखरता ही जाता है।
चाहे भी जुड़ना, तो आसानी से न जुड़ पाता है।
गुमशुदा ही रहा करता है वो ख़ुद से ही ख़ुद में,
औरों से क्या, वो तो ख़ुद से ही न मिल पाता है। 


और न याद आ तू अब, और न पल पल मुझे तू यूं आजमा।
एहसास कि कमाल थी मुहब्बत तेरी, फिर से तो न कर बयां।
अब न दिखा ख्वाब बिखरी उम्मीद , कल्पनाओं के आइने में,
न जला फिर से चिराग मायूसियों के इसकदर घनघोर साये में,
इक चिराग यूं बुझ चुका तेरे हाथों से इस कदर हमदम,
हमें उन राख हुये ख्वाबों के अभी तक साये भी न मिले यहाँ।

ग़ज़ल, गजल शायरी

पढ़े जाओ 'बेख़ुद' ग़ज़ल पर ग़ज़ल
वो बुत बन गए हैं सुने जाएंगे
- बेख़ुद देहलवी


मेरी ग़ज़ल को मेरी जां फ़क़त ग़ज़ल न समझ
इक आइना है जो हर दम तिरे मुक़ाबिल है
- कलीम आजिज़

वक़्त इक ज़र्ब लगाए तो ग़ज़ल होती है
दर्द अगर दिल में समाए तो ग़ज़ल होती है
- राबिया सुलताना नाशाद

इक ग़ज़ल लिक्खी तो ग़म कोई पुराना जागा
फिर उसी ग़म के सबब एक ग़ज़ल और कही
- अंजुम ख़लीक़

हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए
- जां निसार अख़्तर


जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल
हम और हो गए बूढ़े ग़ज़ल सुनाते हुए
- अज़हर इनायती

ज़िंदगी सुंदर ग़ज़ल है दोस्तो
ज़िंदगी को गुनगुनाना चाहिए
- आज़िम कोहली


वो ग़ज़ल की किताब है प्यारे
उस को पढ़ना सवाब है प्यारे
- अतीक़ अंज़र

जिसे देखो ग़ज़ल पहने हुए है
बहुत सस्ता ये ज़ेवर वो गया है
- विकास शर्मा राज़


मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
- परवीन शाकिर


ग़ज़ल, गजल शायरी

पढ़े जाओ 'बेख़ुद' ग़ज़ल पर ग़ज़ल
वो बुत बन गए हैं सुने जाएंगे
- बेख़ुद देहलवी


मेरी ग़ज़ल को मेरी जां फ़क़त ग़ज़ल न समझ
इक आइना है जो हर दम तिरे मुक़ाबिल है
- कलीम आजिज़

वक़्त इक ज़र्ब लगाए तो ग़ज़ल होती है
दर्द अगर दिल में समाए तो ग़ज़ल होती है
- राबिया सुलताना नाशाद

इक ग़ज़ल लिक्खी तो ग़म कोई पुराना जागा
फिर उसी ग़म के सबब एक ग़ज़ल और कही
- अंजुम ख़लीक़

हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए
- जां निसार अख़्तर


जवान हो गई इक नस्ल सुनते सुनते ग़ज़ल
हम और हो गए बूढ़े ग़ज़ल सुनाते हुए
- अज़हर इनायती

ज़िंदगी सुंदर ग़ज़ल है दोस्तो
ज़िंदगी को गुनगुनाना चाहिए
- आज़िम कोहली


वो ग़ज़ल की किताब है प्यारे
उस को पढ़ना सवाब है प्यारे
- अतीक़ अंज़र

जिसे देखो ग़ज़ल पहने हुए है
बहुत सस्ता ये ज़ेवर वो गया है
- विकास शर्मा राज़


मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
- परवीन शाकिर


Wednesday, October 7, 2020

मेरे हाल की है तुझे क्या ख़बर

मेरे हाल की है तुझे क्या ख़बर
तेरी आस में फिर रहा दर-बदर

तूने जाने क्या है समझा मुझे
मैं जो हूं वो तूने ना समझा मुझे
मेरा घर कहां है मैं जाऊं किधर
तेरी आस में फिर रहा दर-बदर

मेरे हाल की है तुझे क्या ख़बर
तेरी आस में फिर रहा दर-बदर

इक दिन वो दिन भी आयेगा जब
तू ख़ुद मेरे पास ही आयेगी तब
देखेगी मुझको तू एक नज़र
तेरी आस में फिर रहा दर-बदर

मेरे हाल की है तुझे क्या ख़बर
तेरी आस में फिर रहा दर-बदर

मेरे हाल पर रो रही है बेबसी
तेरे बाद होगी ना उल्फ़त कभी
कोई रास्ता हो या कोई शहर
तेरी आस में फिर रहा दर-बदर

मेरे हाल की है तुझे क्या ख़बर
तेरी आस में फिर रहा दर-बदर

काटते कटती नहीं है, विरह की ये रैन।

डस रही है आज बैरन, नाग सी ये रात।
रो रहीं हूं याद करके, आपकी हर बात।

नींद आंखों से गयी अब, दूर है सुख चैन।
काटते कटती नहीं है, विरह की ये रैन।
याद आये साजन मुझे, प्रेम की वो बात।
डस रही है आज बैरन, नाग सी ये रात।

माह बीते जा रहे हैं, तू न आया पास
मैं निहारूं वाट तेरी, लेकर यही आस।
प्यास है दिल में मिलन की, समझ लो जज़्बात।
डस रही है आज बैरन, नाग सी ये रात।

याद में तेरी बहें है, आंख से अब नीर।
बात बिसरी याद आये, बढ़ रही है पीर।
सर्द रातें आ रहीं हैं, गिर रहा हिमपात।
डस रही है आज बैरन, नाग सी ये रात।

इंतिहा, इन्तहाँ शायरी

इश्क़ तिरी इंतिहा इश्क़ मिरी इंतिहा
तू भी अभी ना-तमाम मैं भी अभी ना-तमाम
- अल्लामा इक़बाल


तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूं
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूं
- अल्लामा इक़बाल

वो ज़िक्र था तुम्हारा जो इंतिहा से गुज़रा
ये क़िस्सा है हमारा जो ना-तमाम निकला
- क़लक़ मेरठी


न इब्तिदा की ख़बर है न इंतिहा मालूम
रहा ये वहम कि हम हैं सो वो भी क्या मालूम
- फ़ानी बदायूंनी

ऐसा सफ़र है जिस की कोई इंतिहा नहीं
ऐसा मकां है जिस में कोई हम-नफ़स नहीं
-,मुनीर नियाज़ी


इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद
- कैफ़ी आज़मी

हम इब्तिदा ही में पहुंचे थे इंतिहा को कभी
अब इंतिहा में भी हैं इब्तिदा से लिपटे हुए
- फ़रियाद आज़र


हम मोहब्बत की इंतिहा कर दें
हाँ मगर इब्तिदा करे कोई
- शफ़ी मंसूर

इब्तिदा मुझ में इंतिहा मुझ में
इक मुकम्मल है वाक़िआ मुझ में
- सईद नक़वी


इंतिहा तक बात ले जाता हूँ मैं
अब उसे ऐसे ही समझाता हूँ मैं
- शारिक़ कैफ़ी


Tuesday, October 6, 2020

आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन


आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन 
ढल गया दिन, शेष होगा एक जीवन !


यह सुनहरी साँझ, लोहे के कंटीले तार,
खो गई मेरे हृदय की सुनहली झंकार !
सूर्य-से इस डूबते दिल में नहीं अब प्यार!
वहां नभ में खिल रहा #मंदार का कानन !
आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन !

दूर सोने के कंगूरों से उतरती रात,
रेशमी सुरमई साड़ी में ढंके मृदु गात,
सजीली है—सूक की बेंदी दिए अवदात !
दिप रहा है कनकचम्पक चाँद-सा आनन !
आ गले से लगा लूँ, मेरे अकेलेपन !
देखते आकाश बीती आज आधी रात,
व्यर्थ है वो आये अब भी याद भूली बात,
सह चुका हूं बहुत से आघात पर आघात,
अभी कुछ-कुछ रुका-सा था हृदय का रोदन !
आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन !
दिन मुंदे ही सो गये थे पेड़ के सौ पात,
पड़ गया सोता यहां भी—बढ़ रही है रात,
छिपा नौ का अंक जो लिखते सितारे सात !
जागते बस दो जने—मैं और मेरा मन !
आ गले से लगा लूं, मेरे अकेलेपन !

नरेन्द्र शर्मा

मंदार- 1. (पुराण) स्वर्ग का एक वृक्ष 2. स्वर्ग 3. धतूरा 4. हाथी 5. मदार; आक।

मिल के भी जो कभी नहीं मिला

आदमी आदमी से मिलता है 
दिल मगर कम किसी से मिलता है 

भूल जाता हूँ मैं सितम उस के 
वो कुछ इस सादगी से मिलता है 

आज क्या बात है कि फूलों का 
रंग तेरी हँसी से मिलता है 

सिलसिला फ़ित्ना-ए-क़यामत का 
तेरी ख़ुश-क़ामती से मिलता है 

मिल के भी जो कभी नहीं मिलता 
टूट कर दिल उसी से मिलता है 

कारोबार-ए-जहाँ सँवरते हैं 
होश जब बे-ख़ुदी से मिलता है 

रूह को भी मज़ा मोहब्बत का 
दिल की हम-साएगी से मिलता है.

जिगर मुरादाबादी

Monday, October 5, 2020

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें।

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें।

जीवन-सरिता की लहर-लहर,
मिटने को बनती यहां प्रिये
संयोग क्षणिक, फिर क्या जाने
हम कहां और तुम कहां प्रिये।

पल-भर तो साथ-साथ बह लें,
कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें।

आओ कुछ ले लें औ' दे लें।

हम हैं अजान पथ के राही,
चलना जीवन का सार प्रिये
पर दुःसह है, अति दुःसह है
एकाकीपन का भार प्रिये।

पल-भर हम-तुम मिल हंस-खेलें,
आओ कुछ ले लें औ' दे लें।

हम-तुम अपने में लय कर लें।

उल्लास और सुख की निधियां,
बस इतना इनका मोल प्रिये
करुणा की कुछ नन्हीं बूंदें
कुछ मृदुल प्यार के बोल प्रिये।

#सौरभ से अपना उर भर लें,
हम तुम अपने में लय कर लें।

हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें।
जग के उपवन की यह मधु-श्री,
सुषमा का सरस वसन्त प्रिये
दो साँसों में बस जाय और
ये साँसें बनें अनन्त प्रिये।

मुरझाना है आओ खिल लें,
हम-तुम जी-भर खुलकर मिल लें।

पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख - दुष्यंत कुमार

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अन्धेरा देख तू आकाश के तारे न देख ।

एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख ।

अब यकीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख ।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख ।

ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख ।

राख़ कितनी राख़ है, चारों तरफ बिख़री हुई, 
राख़ में चिनगारियाँ ही देख अंगारे न देख ।

दुष्यंत कुमार 

मन समर्पित, तन समर्पित

मन समर्पित, तन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूं देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूं।

माँ तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं #अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन-
थाल में लाऊं सजाकर भाल मैं जब भी,
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण।

गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूं देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूं।

मांज दो तलवार को, लाओ न देरी,
बांध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया धनेरी।

स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूं देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूं।
तोड़ता हूं मोह का बंधन, क्षमा दो,
गांव मेरी, द्वार-घर मेरी, आंगन, क्षमा दो,
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो,
और बाएं हाथ में ध्वज को थमा दो।

सुमन अर्पित, चमन अर्पित,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित।
चाहता हूं देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूं।

-रामावतार त्यागी

अकिंचन- 1. अतिनिर्धन; दरिद्र; कंगाल; दिवालिया 2. अपरिग्रही 3. नगण्य; मामूली; महत्वहीन 4. परावलंबी 5. गुमनाम

Sunday, October 4, 2020

तुमसे मिलना था मिल नहीं पाये ।।

फूल जैसे हम खिल नहीं पाये ।
तुमसे मिलना था मिल नहीं पाये ।।
दर्द रीसता है आज भी उनसे ।
जख़्म दिल के जो सिल नहीं पाये ।।
ज़ब्त का भी कमाल इतना था ।
अश्क़ पलकों से फिसल नहीं पाये ।।
भूल सकते थे आपको हम भी ।
आपसा हम जो दिल नहीं पाये ।।
फूल जैसे हम खिल नहीं पाये ।
तुमसे मिलना था मिल नहीं पाये ।।

कतील शिफ़ाई की गजलें

खुला है झूठ का बाज़ार आओ सच बोलें
न हो बला से ख़रीदार आओ सच बोलें
सुकूत छाया है इंसानियत की क़द्रों पर
यही है मौक़ा-ए-इज़हार आओ सच बोलें
हमें गवाह बनाया है वक़्त ने अपना
ब-नाम-ए-अज़मत-ए-किरदार आओ सच बोलें
सुना है वक़्त का हाकिम बड़ा ही मुंसिफ़ है
पुकार कर सर-ए-दरबार आओ सच बोलें
तमाम शहर में क्या एक भी नहीं मंसूर
कहेंगे क्या रसन-ओ-दार आओ सच बोलें
बजा के ख़ू-ए-वफ़ा एक भी हसीं में नहीं
कहाँ के हम भी वफ़ा-दार आओ सच बोलें
जो वस्फ़ हम में नहीं क्यूँ करें किसी में तलाश
अगर ज़मीर है बेदार आओ सच बोलें
छुपाए से कहीं छुपते हैं दाग़ चेहरे के
नज़र है आईना बरदार[9] आओ सच बोलें
'क़तील' जिन पे सदा पत्थरों को प्यार आया
किधर गए वो गुनह-गार आओ सच बोलें

2. तड़पती हैं तमन्नाएँ किसी आराम से पहले
लुटा होगा न यूँ कोई दिल-ए-ना-काम से पहले
ये आलम देख कर तू ने भी आँखें फेर लीं वरना
कोई गर्दिश नहीं थी गर्दिश-ए-अय्याम से पहले
गिरा है टूट कर शायद मेरी तक़दीर का तारा
कोई आवाज़ आई थी शिकस्त-ए-जाम से पहले
कोई कैसे करे दिल में छुपे तूफ़ाँ का अंदाज़ा
सुकूत-ए-मर्ग छाया है किसी कोहराम से पहले
न जाने क्यूँ हमें इस दम तुम्हारी याद आती है
जब आँखों में चमकते हैं सितारे शाम से पहले
सुनेगा जब ज़माना मेरी बर्बादी के अफ़साने
तुम्हारा नाम भी आएगा मेरे नाम से पहले.

3. पत्थर उसे न जान पिघलता भी देख उसे
ख़ुद अपने तर्ज़ुबात में जलता देख उसे
वो सिर्फ़ जिस्म ही नहीं एहसास भी तो है
रातों में चाँद बन के निकलता भी देख उसे
वो धडकनों के शोर से भी मुतमइन न था
अब चंद आहटों से भी बहलता देख उसे
आ ही पड़ा है वक़्त तो फैला ले हाथ भी
और साथ-साथ आँख बदलता भी देख उसे
सूरज है वो तो उसकी परस्तिश ज़रूर कर
साया है वो तो शाम को ढलता भी देख उसे
निकला तो है क़तील वफ़ा की तलाश में
ज़ख्मों के पुल-सिरात पे चलता भी देख उसे.
4.परेशाँ रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ
सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारों तुम तो सो जाओ
हँसो और हँसते-हँसते डूबते जाओ ख़लाओं में
हमें ये रात भारी है सितारों तुम तो सो जाओ
तुम्हें क्या आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
ये बाज़ी हमने हारी है सितारों तुम तो सो जाओ
कहे जाते हो रो-रो के हमारा हाल दुनिया से
ये कैसी राज़दारी है सितारों तुम तो सो जाओ
हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही क़िस्मत हमारी है सितारों तुम तो सो जाओ
हमें भी नींद आ जायेगी हम भी सो ही जायेंगे
अभी कुछ बेक़रारी है सितारों तुम तो सो जाओ.

कतील शिफाई

Friday, October 2, 2020

प्राणों से प्यारा है, ये देश हमारा है

लफ़्जों में टंकार बिठा, लहजे में खुद्दारी रख
सबके सुख में शामिल हो, दुख में साझेदारी रख।
दरबारों से रख दूरी, फुटपाथों से यारी रख।

चंचल हिरनी बनी डोलती
मन के वन में बाट जोहती,
वैसे तो वह चुप रहती है
भीतर एक नदी बहती है।

चरणों में हिन्द महासागर
जिसके सर पर गौरीशंकर
कुदरत भी जिस पर न्योछावर
न्योछावर है अक्षर-अक्षर

कल्याणमयी जिसकी चाहें
अध्यात्ममयी जिसकी राहें
जगतीतल पर जिसकी छाँहें
पूरब पश्चिम जिसकी बाँहें

जो कर्मपाठ की नौबत है
जो विश्वशान्ति के अक्षत है
जो पढ़ना चाह रही दुनिया 
वो इश्क़-मोहब्बत का ख़त है

जिसके आराधन में अर्पित तन-मन-धन- सारा है
प्राणों से प्यारा है, ये देश हमारा है


सारे पन्ने कोरे निकले।

फुरसत नहीं मिली हमको,
यूं तो सारी जिंदगी ।
पर जीवन के जब पन्ने पलटे,
सारे पन्ने कोरे निकले।

भटके किये बहार की तलाश में,
यूं तो सारी उम्र हम।
जिसको भी अपना समझा,
वो ही बेवफा निकले।

यादों के चराग़ दिल के,
जले कुछ इस तरह से।
ना तो मरे ही हम और,
ना ही जिंदा निकले।

जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है

जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है,
जिंदगी पत्तों में पड़ी ओस सी झड़ती जाती है.
जिंदगी सुख दु:ख के धागों में उलझाती है,
नीम सी कड़वाती, कभी काॅफी सी महकाती है .

बचपन के वो रंगीन सपने, ना जाने कहाँ सो गये,
बचपन के साथी संगी,ना जाने कहाँ खो गये.
जिंदगी फिर उसी बचपन को चाहती है,
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.

यूं ही बीत गया जीवन, बेकार के ताने-बानों में,
यूं ही रीत गया जीवन, सपनों के घरौंदे बनाने में.
जिंदगी सर्दियों की धूप सी फिसलती जाती है.
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.

जिंदगी के कितने पन्ने, कोरे - कोरे से रह गये,
जीवन के चमकीलें रंग, कुछ धूसर से हो गये.
जिंदगी फिर से उन्ही इंद्र धनुषी रंगों को चाहती है.
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.

फूलों सी महकाती यादें, मन ही मन में सो गयी,
कितनी ही अनकही बाते, मन के धारों में खो गयी.
जिंदगी तितलियों सी हाथों से उड़ी जाती है,
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.

लहरों सी कब आयी जिंदगी, ना जाने कब लौट गयी,
सुख-दुख के धागों में उलझी, ना जाने कब टूट गयी.
जिंदगी की सांझ कितनी अकेली हुई जाती है.
जिंदगी मुट्ठी में बंद रेत सी रिसती जाती है.