Sunday, May 31, 2020

कसक दिल की किससे कहूँ

कसक दिल की किससे कहूँ
             बिन ख्वाहिश के कैसे रहूँ
यादें सीना छलनी कर देती हैं 
            अब दर्द रुसवाई का कैसे सहूँ। 

जब से देखा है उनका चांद सा चेहरा ।

जब से देखा है उनका चांद सा चेहरा ।
मेरे ख़ुद के दिल पे, है उनका ही पहरा ।।

थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते

थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते 
कुछ और थक गया हूँ आराम करते करते 

अंदर सब आ गया है बाहर का भी अंधेरा 
ख़ुद रात हो गया हूँ मैं शाम करते करते 

ये उम्र थी ही ऐसी जैसी गुज़ार दी है 
बदनाम होते होते बदनाम करते करते 

फँसता नहीं परिंदा है भी इसी फ़ज़ा में 
तंग आ गया हूँ दिल को यूँ दाम करते करते 

कुछ बे-ख़बर नहीं थे जो जानते हैं मुझ को 
मैं कूच कर रहा था बिसराम करते करते 

सर से गुज़र गया है पानी तो ज़ोर करता 
सब रोक रुकते रुकते सब थाम करते करते 

किस के तवाफ़ में थे और ये दिन आ गए हैं 
क्या ख़ाक थी कि जिस को एहराम करते करते 

जिस मोड़ से चले थे पहुँचे हैं फिर वहीं पर 
इक राएगाँ सफ़र को अंजाम करते करते 

आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब 
उस्लूब-ए-ख़ास अपना मैं आम करते करते 

राह की चाह

राह की चाह 

मन विक्षिप्त तन विक्षिप्त
जीवन का हर क्षण विक्षिप्त
श्वसन का हर कण है कहता
कब तक जीवन है संक्षिप्त

राहो मे उलझने है इतनी
दिल भी उसकी टोह ना लेता
पग पग पत्थर मिलते ऐसे
मन मदमस्त हो नशे मे जैसे

कुछ करने की ठानी है जो
मिलता कुछ भी समय पे ना वो
अब तो राही थक जाएगा
समय पे कुछ ना हाथ आएगा

बस एक आशा विश्वास लिए हम
कुछ कर जाने का ठान लिए हम
कभी तो वह आएगा सवेरा
जिसमे मिलेगा एक नया बसेरा

मेरे लिए काफी है।

क्या शिकायत करु मैं तुमसे
तुमने मुझे शून्य से इनफिनिट तक पहुँचाया
तो बस काफी है।

थोड़ा दूर ही साथ चले हम
और तुमने थोड़ा दूर ही सही पर
मेरे साथ चलना पसंद तो किया ना
तो बस काफी है।

बातें करने की लिए कोई ना मिले
तो तुम बात करने के लिए हमेशा पास रहते हो मेरे
तो बस काफी है।

अरे हां मुझे बहुत सारा बात करने को रहता है
पर तुम्हे नींद आ जाती है ना...
लेकिन थोड़ा सा तो थोड़ा सा बात करती हो ना
तो बस काफी है।

मैं जब भी मिलने भुलाता हूं तो तुम
कभी कभी छोड़कर हमेशा मिलने तो आ जाती हो ना...
तो बस इतना काफी है।

और एक आखिरी बात

भले ही थोड़ा रुक रुक ही सही पर चलते रहना मेरे साथ..
क्योंकि तुम्हारा मेरे साथ रुक रुक चलना भी..
मेरे लिए काफी है।

किसी से कुछ तोकिसी से कुछ निकला

किसी से कुछ तो
किसी से कुछ निकला
मैं ही एक रिश्ता था
जिससे सब कुछ निकला
आपस ही में टकरा टकरा कर
बड़ी बड़ी 'शिलाएं '
उगलती रही आग
सूरज की पहली
किरण में जो चमका
मैं तो वह 'ज़र्रा' निकला
संबंध की दुहाई
तो दी थी दिलेरी की
पर हाय रे! वह
बेहद सियासी निकला
कभी ताल्लुक़ टूटा था
थोड़ी सी नाकामयाबी में
कुदरत की ज़र्रानवाज़ी पर
वो तो आपसी निकला

Saturday, May 30, 2020

मेरे लिए काफी है।

क्या शिकायत करु मैं तुमसे
तुमने मुझे शून्य से इनफिनिट तक पहुँचाया
तो बस काफी है।

थोड़ा दूर ही साथ चले हम
और तुमने थोड़ा दूर ही सही पर
मेरे साथ चलना पसंद तो किया ना
तो बस काफी है।

बातें करने की लिए कोई ना मिले
तो तुम बात करने के लिए हमेशा पास रहते हो मेरे
तो बस काफी है।

अरे हां मुझे बहुत सारा बात करने को रहता है
पर तुम्हे नींद आ जाती है ना...
लेकिन थोड़ा सा तो थोड़ा सा बात करती हो ना
तो बस काफी है।

मैं जब भी मिलने भुलाता हूं तो तुम
कभी कभी छोड़कर हमेशा मिलने तो आ जाती हो ना...
तो बस इतना काफी है।

और एक आखिरी बात

भले ही थोड़ा रुक रुक ही सही पर चलते रहना मेरे साथ..
क्योंकि तुम्हारा मेरे साथ रुक रुक चलना भी..
मेरे लिए काफी है।

राह की चाह

राह की चाह 

मन विक्षिप्त तन विक्षिप्त
जीवन का हर क्षण विक्षिप्त
श्वसन का हर कण है कहता
कब तक जीवन है संक्षिप्त

राहो मे उलझने है इतनी
दिल भी उसकी टोह ना लेता
पग पग पत्थर मिलते ऐसे
मन मदमस्त हो नशे मे जैसे

कुछ करने की ठानी है जो
मिलता कुछ भी समय पे ना वो
अब तो राही थक जाएगा
समय पे कुछ ना हाथ आएगा

बस एक आशा विश्वास लिए हम
कुछ कर जाने का ठान लिए हम
कभी तो वह आएगा सवेरा
जिसमे मिलेगा एक नया बसेरा

जब से देखा है उनका चांद सा चेहरा ।

जब से देखा है उनका चांद सा चेहरा ।
मेरे ख़ुद के दिल पे, है उनका ही पहरा ।।

किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं

किताब-ए-आरज़ू के गुम-शुदा कुछ बाब रक्खे हैं
तिरे तकिए के नीचे भी हमारे ख़्वाब रक्खे हैं
- ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर



अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ
- फ़िराक़ गोरखपुरी



गुनगुनाती हुई आती हैं फ़लक से बूँदें
कोई बदली तिरी पाज़ेब से टकराई है
- क़तील शिफ़ाई

वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा
- मीर तक़ी मीर

Thursday, May 28, 2020

मैं एक नदी सी

मैं एक नदी सी
फिसलती हुई एक पहाड़ी से
सागर की गोद में जा गिरी
सागर ने भी मुझ अभागी को
अपनाया नहीं
लाकर पटक दिया किनारे
पे
अब किनारा भी वापिस
धकेल रहा है
सागर में
सागर वापिस फेंक रहा है
मुझे किनारे पे
कैसी विडम्बना है
विकट समस्या है
क्या करूं मैं
क्या हल है इसका
सागर का किनारा
मुझे अपनाने को
एक शर्त पर तैयार है
वह यह कि
मुझे अपने अस्तित्व
को त्यागना होगा
जल को वाष्प बन
उड़ाना होगा
सागर किनारे पे
एक छोटे से आशियाने में
सिर छिपाने के लिए
मुझे खुद को भुलाना होगा
खुद को सुखाना होगा।

होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है व अन्य

होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है
रंज कम सहता है एलान बहुत करता है
रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग

कम से कम रात का नुकसान बहुत करता है
आज कल अपना सफर तय नहीं करता कोई
हाँ सफर का सर-ओ-सामान बहुत करता है.
मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ...
मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ
तुम मसीहा नहीं होते हो तो क़ातिल हो जाओ
दश्त से दूर भी क्या रंग दिखाता है जुनूँ
देखना है तो किसी शहर में दाखिल हो जाओ
जिस पे होता ही नहीं खूने-दो-आलम साबित
बढ़ के इक दिन उसी गर्दन में हमाइल हो जाओ
वो सितमगर तुम्हे तस्ख़ीर किया चाहता है
ख़ाक बन जाओ और उस शख्स को हासिल हो जाओ
इश्क़ क्या कारे-हवस भी कोई आसान नहीं
खैर से पहले इसी काम के क़ाबिल हो जाओ
मैं हूँ या मौजे-फना, और यहाँ कोई नहीं
तुम अगर हो तो ज़रा राह में हाइल हो जाओ
अभी पैकर ही जला है तो ये आलम है मियाँ
आग ये रूह में लग जाए तो कामिल हो जाओ.
 
सुखन में रंग तुम्हारे ख़याल ही के तो हैं...
सुखन में रंग तुम्हारे ख़याल ही के तो हैं
ये सब करिश्मे हवाए-विसाल ही के तो हैं
कहा था तुमने कि लाता है कौन इश्क़ की ताब
सो हम जवाब तुम्हारे सवाल ही के तो हैं
ज़रा सी बात है दिल में, अगर बयाँ हो जाय
तमाम मसअले इज़हारे-हाल ही के तो हैं
यहाँ भी इसके सिवा और क्या नसीब हमें
खुतन में रह के भी चश्मे-ग़िज़ाल ही के तो हैं
हवा की ज़द पे हमारा सफ़र है कितनी देर
चराग़ हम किसी शामे-ज़वाल ही के तो हैं.
 
वो जो इक शर्त थी वहशत की...
वो जो इक शर्त थी वहशत की, उठा दी गई क्या
मेरी बस्ती किसी सेहरा में बसा दी गई क्या
वही लहजा है मगर यार तेरे लफ़्ज़ों में
पहले इक आग सी जलती थी, बुझा दी गई क्या
जो बढ़ी थी कि कहीं मुझको बहा कर ले जाए
मैं यहीं हूँ तो वही मौज बहा दी गई क्या
पाँव में ख़ाक की ज़ंजीर भली लगने लगी
फिर मेरी क़ैद की मीआद बढ़ा दी गई क्या
देर से पहुंचे हैं हम दूर से आये हुए लोग
शहर खामोश है, सब ख़ाक उड़ा दी गई क्या.
बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है ...
बदन में जैसे लहू ताज़ियाना हो गया है
उसे गले से लगाए ज़माना हो गया है
चमक रहा है उफ़क़ तक ग़ुबारे-तीरा शबी
कोई चराग़ सफ़र पर रवाना हो गया है
हमें तो खैर बिखरना ही था कभी न कभी
हवा-ए-ताज़ा का झोंका बहाना हो गया है
फ़ज़ा-ए-शौक़ में उसकी बिसात ही क्या थी
परिन्द अपने परों का निशाना हो गया है
इसी ने देखे हैं पतझड़ में फूल खिलते हुए
दिल अपनी खुश नज़री में दिवाना हो गया है.

ज़मी पर लहू का हर क़तरा हिसाब मांग रहा है

ज़मी पर लहू का हर क़तरा हिसाब मांग रहा है
मेरे जिस्म का हर हिस्सा इंक़लाब मांग रहा है,
तेरा दिल चाहे तो मुझसे रूठ जा ऐ दुनिया
पर अपने हिस्से का रोटी वो मांग रहा है,
ख़्वाब में मिले थे उसको रोटी दाल सब्जी
जगा तो सड़क पर अपना हक़ मांग रहा है,
जो बिछड़ गया था पिछले चुनाव में यार
वो दोस्त रो-रोकर अपना दोस्त मांग रहा है,
बाहर कौन इतना शोर कर रहा, साहब ने डाँटा
नौकर बोला साब कोई बच्चा रोज़गार मांग रहा है।

चिलचिलाती धूप से उठती तपन पर शेर

मयस्सर फिर न होगा चिलचिलाती धूप में चलना
यहीं के हो रहोगे साए में इक पल अगर बैठे
- शहज़ाद अहमद

साएबाँ क्या अब्र का टुकड़ा है क्या
धूप तो मा'लूम है साया है क्या
- अम्बर शमीम

घर में भी हूँ और मुझ को दश्त में भी
धूप में जलते हुए देखा गया है
- दानियाल तरीर


ग़म का सूरज तो डूबता ही नहीं
धूप ही धूप है किधर जाएँ
- सरफ़राज़ दानिश

कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ
- अख़्तर होशियारपुरी

झूट पर उस के भरोसा कर लिया
धूप इतनी थी कि साया कर लिया
- शारिक़ कैफ़ी


कड़ी है धूप तमाज़त से पाँव जलते हैं
जो साएबान सरों पर था क्या हुआ बाबा
- अशरफ़ अली अशरफ़

करना पड़ेगा अपने ही साए में अब क़याम
चारों तरफ़ है धूप का सहरा बिछा हुआ
- वज़ीर आग़ा

शहर है ख़ामोश जैसे हो खंडर
धूप में जलते मकाँ हैं और मैं
- अज़ीज़ प्रीहार

मैं मुसाफ़िर दिन की जलती धूप का
रात मेरा दर्द पहचानेगी क्या
- फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

गिरेगी कल भी यही धूप और यही शबनम
इस आसमाँ से नहीं और कुछ उतरने का
- हकीम मंज़ूर

तमाम दिन मुझे सूरज के साथ चलना था
मिरे सबब से मिरे हम-सफ़र पे धूप रही
- इक़बाल उमर

जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के
- शकेब जलाली

धूप के साथ गया साथ निभाने वाला
अब कहाँ आएगा वो लौट के आने वाला
- वज़ीर आग़ा

हम मुसाफ़िर हैं सुलगती धूप जलती राह के
वो तुम्हारा रास्ता है जिस में आसानी भी है
- रम्ज़ अज़ीमाबादी

रास्ते दौड़े चले जाते हैं किन सम्तों को
धूप में जलते रहे साए बिछाए गए हम
- फ़हीम शनास काज़मी

बला की धूप में ऐसे भी जिस्म जलता रहा
बदन का साया जो अपने सिरों से ढलता रहा
- नबील अहमद नबील

मैं ने कुछ धूप में जलते हुए चेहरे देखे
फिर मुझे साया-ए-दीवार ने सोने न दिया
- लैस क़ुरैशी

ज़िंदगी धूप में जलते हुए काटी जिस ने
साया मिल जाए कोई उस को दुआ दी जाए
- असरा रिज़वी

ये दीन के ताजिर ये वतन बेचने वाले

ये दीन के ताजिर ये वतन बेचने वाले,
“इन्सान की लाशों के कफन बेचने वाले”
ये महलों में बैठे हुए कातिल ये लुटेरे,
कांटो के एवज रूहे-चमन बेचने वाले,
तू इनके लिये मौत का ऐलान बनेगा.
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा..!

पलों को दर्द से जोड़ दिया!

#जरा_सी_बात से उन्होंने मुह मोड़ लिया
                जन्मों का रिस्ता चन्द पलों में तोड़ लिया, 
 कुछ लाये तो थे पल खुशी ज़िन्दगी में
             मगर उन पलों को दर्द से जोड़ दिया! 

तुम मेरी आदतें न अपनाओ

जो हक़ीक़त है उस हक़ीक़त से
दूर मत जाओ लौट भी आओ

हो गईं फिर किसी ख़याल में गुम
तुम मिरी आदतें न अपनाओ..

तुझे देखूँ तो सिर्फ तेरा हो जाऊँ!

दो इजाजत तो करीब हो जाऊँ, 
             बना अपना तो तुझमें खो जाऊँ, 
कैसी मासूमियत है तेरी सनम, 
             तुझे देखूँ तो सिर्फ तेरा हो जाऊँ! 


गर तुम्हारा प्यार है तो ज़िन्दगी गुलज़ार है

गर तुम्हारा प्यार है तो ज़िन्दगी गुलज़ार है
बस तेरा होने का इस दिल को इंतजार है

एक तेरी ही हँसी से मेरी दुनिया में बहार है
इस सारे जहान में बस तुम पर ही ऐतबार है

तेरी मदमस्त आँखों पर ये जान भी निसार है
तुझे गले लगाने को मेरा दिल बेकरार है

मेरे इस तन्हा दिल में बस तेरे लिये ही प्यार है
काश तू आकर कहे मुझे भी तुझसे प्यार है

बिगड़े हुए हालात बदल जाएंगे एक दिन।

गिरे हैं अगर तो संभल जाएंगेे एक दिन,
बिगड़े हुए हालात बदल जाएंगे एक दिन।

आंसूओं को बर्फ में जमना है जमने दो,
दर्द की आंच से पिघल जाएंगे एक दिन।

एक उम्र पड़ी है इनके सजने संवरने की,
अरमान दिल के निकल जाएंगे एक दिन।

अमीरों की तिजोरी में थोड़ा जंग लगने दो,
मेरे खोटे सिक्के भी चल जाएंगे एक दिन।

वो अगर हमारे सांचे में नहीं तो क्या हुआ,
हम उस के सांचे में ढल जाएंगे एक दिन।

सारी आंधियों को अपनी ताक़त दिखानें दो,
हमारे चिराग़ फिर से जल जाएंगे एक दिन।

मेरी हो जाए अगर ठीक से राहों से गुफ्तगू,
ख़्वाब फिर मंज़िल के पल जाएंगे एक दिन।

परिंदे फंदों में उतरकर दाना तो चुग रहे हैं,
शिकारी अगर देख ले छल जाएंगे एक दिन।

मेरी मां की दुआओं का असर तो होने दो,
 हादसे भी सारे टल जाएंगे एक दिन।

दरिया शायरी

बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता
- बशीर बद्र


दोनों चश्मों से मिरी अश्क बहा करते हैं
मौजज़न रहता है दरिया के किनारे दरिया
- वज़ीर अली सबा लखनवी

कोई कश्ती में तन्हा जा रहा है
किसी के साथ दरिया जा रहा है
- मोहसिन ज़ैदी


तू दरिया है तो होगा हाँ मगर इतना समझ लेना
तिरे जैसे कई दरिया मिरी आँखों में रहते हैं
- नफ़स अम्बालवी


अपनी मस्ती में बहता दरिया हूँ
मैं किनारा भी हूँ भँवर भी हूँ
- तहज़ीब हाफ़ी


चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
उसे दरिया का अंदाज़ा नहीं है
- सलीम अहमद

दरिया को किनारे से क्या देखते रहते हो
अंदर से कभी देखो कैसा नज़र आता है
- इनाम नदीम


खींच लाई है तिरे दश्त की वहशत वर्ना
कितने दरिया ही मिरी प्यास बुझाने आते
- रम्ज़ी असीम

मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ
मिरे हमराह दरिया जा रहा है
- अहमद नदीम क़ासमी


अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
मगर ये दरिया मुझे तैरना सिखाता है
- राना आमिर लियाक़त

वो ग़ैर था उसे अपना बना के छोड़ दिया

वो ग़ैर था उसे अपना बना के छोड़ दिया

हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ायब
ये किस ख़राबे में दुनिया ने ला के छोड़ दिया

मैं अपनी जां में उसे जज़्ब किस तरह करता
उसे गले से लगाया लगा के छोड़ दिया

मैं जा चुका हूं मिरे वास्ते उदास न हो
मैं वो हूं तू ने जिसे मुस्कुरा के छोड़ दिया

किसी ने ये न बताया कि फ़ासला क्या है
हर एक ने मुझे रस्ता दिखा के छोड़ दिया

हमारे दिल में है क्या झाँक कर न देख सके
ख़ुद अपनी ज़ात से पर्दा उठा के छोड़ दिया

वो तेरा रोग भी है और तिरा इलाज भी है
उसी को ढूँड जिसे तंग आ के छोड़ दिया

वो अंजुमन में मिला भी तो उस ने बात न की
कभी कभी कोई जुमला छुपा के छोड़ दिया

रखूं किसी से तवक़्क़ो तो क्या रखूं 'शहज़ाद'
ख़ुदा ने भी तो ज़मीं पर गिरा के छोड़ दिया

Wednesday, May 27, 2020

दरिया शायरी

बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता
- बशीर बद्र


दोनों चश्मों से मिरी अश्क बहा करते हैं
मौजज़न रहता है दरिया के किनारे दरिया
- वज़ीर अली सबा लखनवी

कोई कश्ती में तन्हा जा रहा है
किसी के साथ दरिया जा रहा है
- मोहसिन ज़ैदी


तू दरिया है तो होगा हाँ मगर इतना समझ लेना
तिरे जैसे कई दरिया मिरी आँखों में रहते हैं
- नफ़स अम्बालवी


अपनी मस्ती में बहता दरिया हूँ
मैं किनारा भी हूँ भँवर भी हूँ
- तहज़ीब हाफ़ी


चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
उसे दरिया का अंदाज़ा नहीं है
- सलीम अहमद

दरिया को किनारे से क्या देखते रहते हो
अंदर से कभी देखो कैसा नज़र आता है
- इनाम नदीम


खींच लाई है तिरे दश्त की वहशत वर्ना
कितने दरिया ही मिरी प्यास बुझाने आते
- रम्ज़ी असीम

मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ
मिरे हमराह दरिया जा रहा है
- अहमद नदीम क़ासमी


अगरचे रोज़ मिरा सब्र आज़माता है
मगर ये दरिया मुझे तैरना सिखाता है
- राना आमिर लियाक़त

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा 
क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा 

अपने साए से चौंक जाते हैं 
उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा 

रात भर बातें करते हैं तारे 
रात काटे कोई किधर तन्हा 


डूबने वाले पार जा उतरे 
नक़्श-ए-पा अपने छोड़ कर तन्हा 

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में 
रात होती नहीं बसर तन्हा 

हम ने दरवाज़े तक तो देखा था 
फिर न जाने गए किधर तन्हा

गुलजार 

अपनी आज़ादी का मंजर कुछ ऐसा होगा,

अपनी आज़ादी का मंजर कुछ ऐसा होगा,
बेख़ौफ़ सा दिल मुस्कुराता सा होगा,

ज़ोरदार हवाओ मे जलते दियों सा होगा,
पिंजरे से निकले एक पंछी सा होगा,

रात के बाद उस उजाले सा होगा,
जाम छलकाते उस प्याले सा होगा,

मोहब्बत के बाद भी तनहाई मिलती रही,
तनहाईयो से निकले एक आशिक़ सा होगा,

अपनी आज़ादी का मंजर कुछ ऐसा होगा,
बेख़ौफ़ सा दिल मुस्कुराता सा होगा |

Tuesday, May 26, 2020

हम को न मिल सका तो फ़क़त इक सुकून-ए-दिल

हम को न मिल सका तो फ़क़त इक सुकून-ए-दिल
ऐ ज़िंदगी वगरना ज़माने में क्या न था
- आज़ाद अंसारी



आबला-पा कोई इस दश्त में आया होगा
वर्ना आँधी में दिया किस ने जलाया होगा
- मीना कुमारी नाज़



उन का ग़म उन का तसव्वुर उन की याद
कट रही है ज़िंदगी आराम से
- महशर इनायती

मिरा वजूद मिरी रूह को पुकारता है
तिरी तरफ़ भी चलूँ तो ठहर ठहर जाऊँ
- अहमद नदीम क़ासमी

बिगड़े हुए हालात बदल क्यों नहीं जाते

बिगड़े हुए हालात बदल क्यों नहीं जाते
अरमान मिरे दिल के निकल क्यों नहीं जाते।

आखों से वो गुज़रे हुए कल क्यों नहीं जाते
यादों से शबे हिज्र के पल क्यों नहीं जाते।

गिरते हुए लोगों को उठाते हुए अकसर
हम अपने ही पैरों पा संभल क्यों नहीं जाते।

पत्थर का जिगर रखते हुए सीनों में अपने
हम मोम की मानिंद पिघल क्यों नहीं जाते।

ख़ुरशीद की मानिन्द उभरने की तलब है
फिर मिस्ले क़मर सुब्ह को ढल क्यों नहीं जाते।

छप्पर के मकानात तो जल जाते हैं अकसर
शीशे के मकानात भी जल क्यों नहीं जाते।

मंज़िल है निगाहों में तो किस बात का डर है
काटों को सरे राह कुचल क्यों नहीं जाते।

लोगों को बदल पाना तो दुश्वार है, 
लोगों के लिए ख़ुद ही बदल क्यों नहीं जाते।

बरसों बीत गए दिल से मस्कुराए हुए

बरसों बीत गए दिल से मस्कुराए हुए
इस कदर खामोशी ने हमें अपना बना लिया
कि महफ़िल में भी जाने से डर लगता है...
जो हँसी खुशी मस्ताना अदांज पहचान थी मेरी...
वो सब बस यादों मे सिमट गया
और सुकुन भी अब महफिल में नहीं
बीती यादों मे मिलता है.....
जो लब पर हँसी के साथ साथ पलकों को भी भिगोता है।।।

अभी तो मंजिल दूर है, दूर है तेरा गाँव ।

अभी तो मंजिल दूर है, दूर है तेरा गाँव ।
तंबू में तू बैठकर, ले ले थोड़ी छाँव ।।

काट काट के पेड़ नित, बंजर किए है गाँव ।
हमको मिल पाती नहीं, आज शज़र की छाँव ।।

गम हो या कोई खुशी, या कोई त्यौहार ।
स्वामी शक्ति टैंट के, रहे सदा तैयार ।।

सर्दी हो बरसात हो, या गर्मी की धूप ।
टैंट यहाँ मौजूद है, मौसम के अनुरूप ।।

टैंट सरीखा है नहीं, जग में कोई मीत।
इस लिए दुनिया सदा, रखती इससे प्रीत ।।

मित्रों शक्ति टैंट का, ऐसा बदला रूप ।
आज 'खुराना' जी हुए, इस बिजनेस के भूप।।

नभ में जबतक सूर्य है ,गंगा में जलधार ।
निशदिन ही फूले फूले, इनका कारोबार ।।

एक शाम थी, एक डाल थी

एक शाम थी, एक डाल थी
कुछ पंछियों की लंबी उड़ान थी
केसरी पुता एक धीर गगन
कुछ बादलों की कतार थी
सड़कों पर रेंगती गाड़ियां
मेरी तुमसे मिलने की प्यास थी

तुम सब कुछ ही तो जानते हो
झूठा, मैला, सब पहचानते हो
मेरी तुमसे कभी कोई शिकायत न थी
अंधरे बंद किवाड़ों के भीतर
कभी कोई आवाज न थी
पर्दे खुले तो हैं अब तक,
किन्तु! मंच पर कोई जात न थी..

शामें - फ़ुर्सत में कोई रोज रुलाता है मुझे

शामें - फ़ुर्सत में कोई रोज रुलाता है मुझे
याद बीते हुए लम्हों की दिलाता है मुझे

बेखुदी में लिए जाता है कोई तन्हा मुझे ,
मेरी मंजिल का पता कौन बताता है मुझे

डगमगाते हैं कदम कैसे संभालू खुद को ,
मस्त नजरों से कोई जाम पिलाता है मुझे

कौन पोछेगा मेरी आँखों से बहते आसूं ,
जिसको देखूं परेशाँ नजर आता है मुझे

करवटें बदलता रहता हूँ मै तो आजकल ,
यादों का समंदर रात भर जगाता है मुझे! 

हम समय की रेत पर, रख पाँव अपने, चल पड़े।

हम समय की रेत पर, रख पाँव अपने, चल पड़े।
आँख में मंजिल, हृदय विश्वास लेकर, चल पड़े।
दूर अपना लक्ष्य, है दुर्गम सफ़र, हमको पता है,
साथ है कमजोर, साधनहीन हैं, हमको पता है,
जिस दिशा में जा रहे वह राह कैसी क्या ख़बर,
पर लिए संकल्प, चलते जा रहे , हमको पता है।
खुद ही अपना भार अपने पर उठाए, चल पड़े ।
हम समय की रेत पर, रख पाँव अपने, चल पड़े
कुछ चलेंगे, कुछ रुकेंगे , कुछ थकेंगे राह में,
कुछ की हिम्मत साथ देगी, कुछ गिरेंगे राह में,
पैर के छाले किसी के, जख्म बनते जाएंगे,
हाथ कांधे पर लगेगा बोझ भारी, राह में
अपने तन को रथ बनाए, खुद जुते बस, चल पड़े।
हम समय की रेत पर, रख पाँव अपने, चल पड़े
देखता होगा क्या कोई राह, हमको क्या पता?
प्यार के दो बोल,ममता की छुअन भी क्या पता?
दूर दिखती आस की झीनी किरण को देख कर ,
फैसला मन का बना कब जोश ,कैसे, क्या पता?
हौसला जब बन गया तो बन गया बस, चल पड़े।

दाग देहलवी शायरी

हाथ रख कर जो वो पूछे दिल-ए-बेताब का हाल
हो भी आराम तो कह दूं मुझे आराम नहीं


हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले
हाथ मलते ही उठे इत्र के मलने वाले



इस अदा से वो जफ़ा करते हैं
कोई जाने कि वफ़ा करते हैं


चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई
ताड़ ली मज्लिस में सब ने सख़्त रुस्वाई हुई

राह पर उन को लगा लाए तो हैं बातों में
और खुल जाएँगे दो चार मुलाक़ातों में


शब-ए-वस्ल ज़िद में बसर हो गई
नहीं होते होते सहर हो गई

छेड़ माशूक़ से कीजे तो ज़रा थम थम कर
रोज़ के नामा ओ पैग़ाम बुरे होते हैं


शब-ए-वस्ल की क्या कहूँ दास्ताँ
ज़बाँ थक गई गुफ़्तुगू रह गई

देखना हश्र में जब तुम पे मचल जाऊँगा
मैं भी क्या वादा तुम्हारा हूँ कि टल जाऊँगा


उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने
न वो देखते हैं न हम देखते हैं

Monday, May 25, 2020

वो पैदल चल रहा देखो

वो पैदल चल रहा देखो,
है तिल तिल जल रहा देखो।
ना मांगा आसमाँ उसने,
है सूरज ढल रहा देखो।

सुखनवर हाँ मेरे सब हैं,
कि निज नज़रों में जो रब हैं।
जीवित तांडव जहाँ नित दिन,
ये कैसा कल रहा देखो।

ये मेरा और मेरा है,
जो सूरज बिन सवेरा है।
ना हम की बात है बाकी,
ये सौदा फल रहा देखो।

मेरे औचित्य का होना,
था झूठा सत्य का रोना।
त्वरित कहाँ पाप का अंतर,
ना कर वो मल रहा देखो।

न नीयत ठीक नियति की,
न चिंता कोई परिणति की।
ये गज मदमस्त है झूमा,
जो पल पल छल रहा देखो।

ना पांवों में रही चप्पल,
उदर रहा सूखता बिन जल।
ये तलवा भी बड़ा ज़िद्दी,
है किस गति चल रहा देखो।

मोटरी हाथों में टांगे,
लिये बक्सा सड़क लांघे।
दोपहरी आग बन कहती,
है जीवन टल रहा देखो।

थी दाँतों ने चखी जिह्वा,
ज्यों विरहन रो रही विधवा।
वो सचमुच था बना पत्थर,
जो भगवन कल रहा देखो।

धरा माता मेरी कल थी,
जो भरती पेट पल पल थी।
जो ममता भी लगी तपने,
ये कैसा पल रहा देखो।

मैं कितना और क्या बोलूँ,
मैं मानव और क्या तोलूँ।
विरह का ज्वार ना मामूल,
है कागज़ जल रहा देखो।

ईश्वर नहीं हो तुम

जाओ नहीं मानता कि कुछ हो तुम
नहीं जानता कि कौन क्या हो तुम
यदि कर्मकांड मात्र से प्रसन्न हो
तो कोई औपचारिकता हो तुम
हाथ जोड़े जो खड़े रहे
यदि सुनता है बस उनकी
तो स्वपुजा के लालायित तुम
स्तुति करने पर फल दे जाय
त्रुटि होने पर दंड दे जाय
तर्क करने पर कुपित हो जाय
आलोचना से रुष्ट हो जाय
सर न झुका तो अनिष्ट हो जाय
क्या ऐसे ही तू भाव का भूखा कहलाय
फिर मुझे विश्वास है कि
तुम कुछ भी हो सकते हो पर ईश्वर नहीं
ईश्वर कभी चाटुकारों का नहीं होता
भक्तों को डर के साय में नहीं रखता
एजेंटों के माध्यम से नहीं मिलता
ईश्वर तो सहज कृपालु दयालु होता है
अहेतुकी कृपा देता है
उसका न कोई प्रिय न अप्रिय होता है
इन धर्म के ठेकेदारों ने तुम्हे क्या बना दिया
पास होकर तुझे कितना दूर कर दिया

अल्फाज कम पर जाते थे

वो भी क्या दौर थे,
हम साथ चला करते थे,
रास्ते कट जाते थे,
पाव ना थकते थे।

घंटों बातें हुआ करती थी,
अल्फाज कम पर जाते थे,
समय बीत जाता था,
बातें रह जाती थी।

अब वक़्त बदल गया है,
बातें अब भी होती है,
पर जरुरी रह गयी है,
साथ अब भी है,
रास्ते अलग हो गए है।।

ईद शायरी

 
1. ईद का चांद तुम ने देख लिया, 
चांद की ईद हो गई होगी. 

2. देखा हिलाल-ए-ईद तो आया तेरा ख़याल, 
वो आसमां का चांद है तू मेरा चांद है. 

3. ईद ख़ुशियों का दिन सही लेकिन,
इक उदासी भी साथ लाती है,
ज़ख़्म उभरते हैं जाने कब कब केृ
जाने किस किस की याद आती है.

4. मिल के होती थी कभी ईद भी दीवाली भी, 
अब ये हालत है कि डर-डर के गले मिलते हैं. 

5. ईद आई तुम न आए क्या मज़ा है ईद का,
ईद ही तो नाम है इक दूसरे की दीद का.

6. बाकी दिनों का हिसाब रहने दो,
ये बताएं ईद पर मिलने आओगे ना.

7. ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम,
रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है दस्तूर भी है.

8. महक उठी है फ़ज़ा पैरहन की ख़ुश्बू से,
चमन दिलों का खिलाने को ईद आई है,
दिलों में प्यार जगाने को ईद आई है,
हंसो कि हंसने-हंसाने को ईद आई है.

9. हसरत है आपका दीदार करें, 
आप आओ तो हम भी ईद करे.
10. बादल से बादल मिलते हैं तो बारिश होती है, 
दोस्‍त से दोस्‍त मिलता है तो ईद होती है.

11. देखा ईद का चांद तो मांगी ये दुआ रब से,
देदे तेरा साथ ईद का तोहफा समझ कर.

3 कविताएँ

1.
इस विजन में अकेली अनमनी सी क्यो बैठी हो
चलो गोरी, पनिया भरने चलो।
वन-भूमि विकल होकर कहती है:
"चलो, जल की ओर चलो।"
जल-लहरी सी छल-छल स्वर में पुकार रही है।
बगुलों के उड़ते हुए पंखों में 
दिन बीता जाता है,
विहग की गोद में विहगी छिपी हुई है
अबाबील रो-रोकर अपनी प्रिया से विदा हो रहा है,
बरवा धुन में बंशी बज रही है।

सांझ अपना मुख चंदा के दर्पण में देख रही है,
अपने बालोे में उसने छाया-पथ की मांग काढ़ ली है,
छाया-नटी कानन-पुर में नाच रही है,
लता-रूपी कबरी पीछे से पैंग मार रही है।

ननदी कहती है - "बहू, दिन ढल गया है,
पानी भरना है तो चलो"
दूर नदी काली होती जाती है,
नगर नागरिका के वेश में संवर रहा है।

मांझी स्नान वाले घाट में अपनी नाम बांध रहा है,
पथिक जनहीन पथ पर चला जा रहा है,
किसकी याद में तुम्हारा दिन रो-रोकर कटता है?
यह देखो अपनी गगरी तुम आंसुओं के जल से भर रही हो।

ओ बेदरदी, तुम्हारे उन रंगो पांवों पर मामला बनकर कौन लिपट गया?
तुम्हारे साथ कवि भी चक्कर में पड़ गया -
क्या उस माला को पापों पर पड़ा रहने दें? या गले में डालें? 


2
सखि, मेरे साजन ने निर्जन फूलवन में
भेंट होने पर कह देना -
माली जान गया है कि आधी रात में
कौन फूल चुराता है और
फूलों के कुल को कलंकित करता है।
उसे समझा देना कि गुलाब के बाग में 
कांटों की आड़ में, कपट-भरे सुहाग में 
फूल खिला है।
वे फूल मेंहदी के बाड़े से घिरे हुए हैं
और उस वन का प्रहरी है भौंरा।

सखि, उसे बता देना कि उस पथ पर
चोर-कांटे बिछे हुए हैं,
संभल कर चले, कहीं उसका चदरा फंस न जाय।
इस वन-फूल के लिए वह
कांटों को कुचलता हुआ न आए।
मैं स्वयं ही अपने प्रिय की कुंज-गलियों में जाऊंगी,
और उन चरणों पर बिना मूल्य बिक जाऊंगी। 

3
मेरे प्राण किस वेदना से रोते हैं,
यह मैं किसे समझाऊं?
मेरा भीरु ह्रदय रह-रहकर थरथराता रहता है।
वह तो रहता है नील आकाश में
और मैं आंसुओं के सागर में पड़ी रहता हूं।
वह सत्ताईस ताराओं-मेरी सोतों-के साथ चक्कर
लगाता रहता है,
मैं उस चांद को कैसे पकड़ूं? मैे राह तो नहीं हूं।
जिस रूप को मैं काजल की तरह आंखों की पुतलियों में रखती हूं
वह सपनों में ढुलकने वाले गोपन आंसुओं से धुल जाता है,
यदि मैं हार की तरह उसे गले में डाले रहूं
तो वह चोरी चला जाता है,
यदि अफने कंगन के साथ बांधती हूं
तो मलय-पवन उसे उड़ा ले जाता है।
कैसे मैं उदासी की मन मोहूं।


 - काज़ी नज़रूल इस्लाम

इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या

1.इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या

आगे-आगे देखिये होता है क्या

क़ाफ़िले में सुबह के इक शोर है

यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं

तुख़्मे-ख़्वाहिशदिल में तू बोता है क्या

ये निशान-ऐ-इश्क़ हैं जाते नहीं 

दाग़ छाती के अबसधोता है क्या

गै़रते-युसूफ़ ये वक़्त ऐ अजीज़


2. हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया

दिल-ए-सितम-ज़दा को हमने थाम-थाम लिया

खृराब रहते थे मस्जिद के आगे मयख़ाने

निहाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतक़ाम लिया

वो कज-रविश न मिला मुझसे रास्ते में कभू

न सीधी तरहा से उसने मेरा सलाम लिया

मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में

तमामा उम्र मैं नाकामियों से काम लिया

अगपचे गोशा-गुज़ीं हूं मैं शाइरों में मीर

मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम किया.

उन बस्तियों से गुज़रना ही नहीं है

ए जिंदगी तुझसे उलझना ही नहीं है
बेमतलब में अब पड़ना ही नहीं है
बता के गई खुद मौत हमको ये आज
कि हमको तो अभी मरना ही नहीं है

कैद कर ले न कोई हमसे ही हमें
खुदी से बाहर निकलना ही नहीं है

चोर सिपाही दीवाने सब बन लिए
अब जीवन में कुछ बनना ही नहीं है

खड़े है जिंदगी के उस मोड़ पर हम
जहां कुछ शौके-तम्मना ही नहीं है

इश्क़ रहता है जिन बस्तियों में 'कुँवर'
उन बस्तियों से गुज़रना ही नहीं है

मजरुह सुल्तानपुरी शायरी

जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूँ सँभल के बैठ गए 
तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की 

गमे हयात ने मजबूर कर दिया वरना, 
थी आरजू कि तेरे दरपे सुब्हो-शाम करें

बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए 
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते 

ऐसे हंस हंस के न देखा करो सब की जानिब 
लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं 


बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना 
किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते 

अब अहल-ए-दर्द ये जीने का एहतिमाम करें 
उसे भुला के ग़म-ए-ज़िंदगी का नाम करें 

ये रुके रुके से आँसू ये दबी दबी सी आहें 
यूँही कब तलक ख़ुदाया ग़म-ए-ज़िंदगी निबाहें 

तिरे सिवा भी कहीं थी पनाह भूल गए 
निकल के हम तिरी महफ़िल से राह भूल गए 

ज़बाँ हमारी न समझा यहाँ कोई 'मजरूह' 
हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे 

मुझे ये फ़िक्र सब की प्यास अपनी प्यास है साक़ी 
तुझे ये ज़िद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से 

'मजरूह' क़ाफ़िले की मिरे दास्ताँ ये है 
रहबर ने मिल के लूट लिया राहज़न के साथ 

बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने 
ये काँपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके 

सुनते हैं कि काँटे से गुल तक हैं राह में लाखों वीराने 
कहता है मगर ये अज़्म-ए-जुनूँ सहरा से गुलिस्ताँ दूर नहीं 

गुलों से भी न हुआ जो मिरा पता देते 
सबा उड़ाती फिरी ख़ाक आशियाने की 

Sunday, May 24, 2020

ऐ आसमान तेरे ख़ुदा का नहीं है ख़ौफ़

ऐ आसमान तेरे ख़ुदा का नहीं है ख़ौफ़
डरते हैं ऐ ज़मीन तिरे आदमी से हम
- अज्ञात


बहुत हसीन सही सोहबतें गुलों की मगर
वो ज़िंदगी है जो कांटों के दरमियां गुज़रे
- जिगर मुरादाबादी


दोस्तों से मुलाक़ात की शाम है
ये सज़ा काट कर अपने घर जाऊँगा
- मज़हर इमाम

हज़ार चेहरे हैं मौजूद आदमी ग़ाएब
ये किस ख़राबे में दुनिया ने ला के छोड़ दिया
- शहज़ाद अहमद

माँ

माँ ही मंदिर माँ ही पूजा,
जिसमे सारा जग है समाया,
माँ के चरणों में चारों धाम हैं,
धरती पे भगवान की मूरत वो माँ ही तो है।

जितना मैंने अब तक जाना है,
अपने बच्चों से करती निह्स्वार्थ भाव प्यार है,
वो ममता की मूरत हां वो माँ ही तो है।

बचपन में जो लोरिया सुनाती थी,
पापा के डाट से माँ ही तो बचाती थी,
रूठ जाने पे हमको प्यार भी वो करती थी,
मेरी गलती को माँ ही तो सुधारती थी।

कभी ना थकना कभी ना रुकना,
जीवन पथ पे चलते रहना,
ज्योती की भांती सारा जीवन वो जलती है,
अन्धकार जीवन अपने बच्चों के दूर वो करती है,
ममता की मूरत वो माँ कहलाती है।।

क्या ख़ता की थी हमनेजो तुम रूठ गए

क्या ख़ता की थी हमने
जो तुम रूठ गए हमसे
कहाँ मिलने की ख्वाहिश थी दिल में
अब दूर होते गए तुम दिल से
सोचा था कितने प्यारे सपने
पर वो सपने हो न सके अपने
अंज़ार - मिलाने से तुम क्यों डरते हो
अरफ़ - अंजल में यूँ भरते हो
तुम्हारी इन अदाओं से मैं हो गया फ़िगार
ऐसा किया तूने अंज़ार - शिकार
क्या मैं अमल करूँ तुमसे
ऐसा हाल बना दिया तुमने
आहत यह "अमर" दिल है
तेरे बिना सूनी यह महफ़िल
मन में तसव्वुर है तेरा
इसने जीना मुश्क़िल किया है मेरा
ज़िन्दा हूँ अभी प्यार की सौग़ात लिए
दिल की यादों को साथ लिए
अब तो उन लम्हों का इंतजार है
जब तुम खुद ही कहो 'हमें तुमसे प्यार है'।

यूँ देखिए तो आँधी में बस इक शजर गया

यूँ देखिए तो आँधी में बस इक शजर गया
लेकिन न जाने कितने परिंदों का घर गया

अपने होने का फिर एलान किया जाएगा

उस आइने में था सरसब्ज़ बाग़ का मंज़र
छुआ जो मैं ने तो दो तितलियां निकल आईं
- लियाक़त जाफ़री


हर ग़म सहना और ख़ुश रहना
मुश्किल है आसान नहीं है
- वक़ार मानवी


गिरते पेड़ों की ज़द में हैं हम लोग
क्या ख़बर रास्ता खुले कब तक
- अज़हर फ़राग़

जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा
अपने होने का फिर एलान किया जाएगा
- सालिम सलीम

Friday, May 22, 2020

ना मिला ना की कुछ बात

ना मिला ना की कुछ बात
मां के दिल पर आघात
तू कर के चला गया
तू बेटा चला गया
कहां तू चला गया
ना मिला ना की कुछ बात
मां के दिल पर आघात
तू कर के चला गया
तू बेटा चला गया
कहां तू चला गया
कहां तू चला गया
गम की देकर सौगात
तू बेटा चला गया
एक दिन आऊंगा पास
तू दे कर गया था आश
ये जतन किया मैंने
रखा तुझपे विश्वास
अब बरसों बीत गए
और टूट रही है आश
तू बेटा चला गया
कहां तू चला गया
ना रात कटे ना दिन
हर पल को रही हूं गिन
मेरी सांस बसी तुझमें
कैसे मैं जिऊं तेरे बिन
अब उम्र बची थोड़ी
अगली ना बरस मुमकिन
कहां तू चला गया
तू बेटा चला गया
गम की देकर सौगात
कहां तू चला गया
क्या मां से बड़ा परदेश
जिसका तू बना परिवेश
क्या ममता मेरी फीकी
तूने दिल पे लगा दी ठेस
सबकुछ अर्पण तुझको
अब मौत बची है सेष
कहां तू चला गया
तू बेटा चला गया
ना मिला ना की कुछ बात
मां के दिल पर आघात
तू कर के चला गया
तू बेटा चला गया
गम की दे कर सौगात
कहां तू चला गया
तू बेटा चला गया

छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को

काफ़ी है मिरे दिल की तसल्ली को यही बात
आप आ न सके आप का पैग़ाम तो आया
- शकील बदायूंनी



कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
जब तक उलझे न काँटों से दामन
- फ़ना निज़ामी कानपुरी



छेड़ती हैं कभी लब को कभी रुख़्सारों को
तुम ने ज़ुल्फ़ों को बहुत सर पे चढ़ा रक्खा है
- ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी

मैं बहुत ख़ुश था कड़ी धूप के सन्नाटे में
क्यूं तिरी याद का बादल मिरे सर पर आया
- अहमद मुश्ताक़

मैं अपनें दिल को जलाकर भी क्या करूँ ?

आँखों को झूठे ख़्वाब दिखाकर भी क्या करुँ ?
मैं रेत के महल बनाकर भी क्या करूँ ?

मुझको पता है ज़िंदगी इतनी बड़ी नहीं
सदियों के साथ शर्त लगाकर भी क्या करूँ ?

मेरी दिलबस्तगी तो बस ज़मीं से है
ख़ुद को आसमां पे बिठाकर भी क्या करूँ ?

दुनिया के किसी जल से धुलते नहीं कलंक
तो बोलिए गंगा में नहाकर भी क्या करूँ ?

आगे चलकर जो मुझे नीचा दिखायेंगें
उन ज़ालिमों का साथ निभाकर भी क्या करूँ ?

इस तरह तो नसीब नहीं होंगें उजाले
फिर मैं अपनें दिल को जलाकर भी क्या करूँ ?

मैं जानता हूँ उसपे किसी ग़ैर का हक़ है
फिर बेवजह हक़ उसपे जताकर भी क्या करूँ ?

तन-मन से अगर वो मिरा हो ही नहीं सकता
तो उसको अपने दिल में बसाकर भी क्या करूँ ?

महज़ ढ़ाई गज का टुकड़ा है मेरा मुक़द्दर
अपने वज़ूद को मैं बढाकर भी क्या करूँ ?

जिन्दगी की जरूरत हो

एक घूंट में इलायची
एक घूंट में अदरक हो

तुम चाय नहीं हो.... जानम
जिन्दगी की जरूरत हो

☕☕

समस्त शिविरों को मैं विजयी प्रणाम करता हूं

समस्त शिविरों को मैं सौभद्र प्रणाम करता हूं
आज मग्न अश्रुओं से यह अंतिम काम करता हूं ।।

अठखेलियाँ हुईं बहुत माता के आँचल में
सुबह के सूर्य को अब मैं पिता के नाम करता हूं ।।

उत्तरा के प्रश्नों के उत्तर ना दे पाऊं
पहर जब यह विषेश ना लौट कर आए मैं डरता हूं ।।

रचा यह रक्त के धागों से कुरूक्षेत्र जीवन का
बाल से सिंह हो जाऊं इस व्यूह में गर भय-हीन लड़ता हूं ।।

महारंभ हो संहार लीला जब आर्यपुत्रों की
नत-मस्तक स्वयं शिव हो जाएं ऐसी मृत्यु वरता हूं ।।

प्रतीक्षा में खड़ा था भूमी का जो खंड रात में
उठा कर शीश अपना, प्रणाम उसका स्वीकार करता हूं ।।

समस्त शिविरों को मैं सौभद्र प्रणाम करता हूं
आज मग्न अश्रुओं से यह अंतिम काम करता हूं ।।

(अभिमन्यू की मृत्यु के बाद समय कैसे उसे श्रद्धांजली देता है )

अर्जुन भी हूं, कृष्ण हूं, मैं ही सुभद्रा हूं
परंतु शौर्य गान अभिमन्यू का ही सदैव करता हूं ।।

पहिया काठ का उस महायोद्धा ने था जैसे उठा लिया
मैं ब्रह्मास्त्र हूं पर लज्जा से हर क्षण ही मरता हूं ।।

धरा पर जब गिरा था कृष्ण का वो शिष्य तेजस्वी
मैं नंगे पाँव था दौड़ा सोच इसे झोली में भरता हूं ।।

महाभारत कि यह गाथा जब जाए शिला पर लिखी
छुए थे द्रोण ने भी पाँव उस के, स्वर्णाक्षरों में गढ़ता हूं ।।

समस्त शिविरों को मैं विजयी प्रणाम करता हूं
आज मग्न अश्रुओं से यह अंतिम काम करता हूं ।।

-अंकित पराशर

पाँव के छाले शायरी

कोई जुगनू कोई तारा न उजाला देगा
राह दिखलाएँगे ये पाँव के छाले मुझ को
- कामिल बहज़ादी

कसमसाते हैं पाँव के छाले
है अभी भी कोई सफ़र बाक़ी
- ओम प्रभाकर

रेत है गर्म पाँव के छाले
यूँ दहकते हैं जैसे अंगारे
- अली सरदार जाफ़री

हमारे पाँव के छाले हमारी मंज़िल तक
उबल उबल के नया रास्ता बनाते हैं
- राकेश राही

हमारे पाँव के छाले ही ये समझते हैं
कि तेरे प्यार की ख़ातिर कहाँ कहाँ भटके
- अनुभव गुप्ता

ये ख़ुश्क लब ये पाँव के छाले ये सर की धूल
हम शहर की फ़ज़ा में भी सहरा-नवर्द हैं
- इक़बाल हैदर


ज़िंदगी नाम है चलने का तो चलते ही रहे
रुक के देखे न कभी पाँव के छाले हम ने
- अफ़ज़ल इलाहाबादी

धरती को मेरी ज़ात से कुछ तो नमी मिली
फूटा है मेरे पाँव का छाला तो क्या हुआ
- कुंवर बेचैन

अभी से पाँव के छाले न देखो
अभी यारो सफ़र की इब्तिदा है
- एजाज़ रहमानी

हुस्न था उस शहर का आवारगी
और हमें थे पाँव के छाले अज़ीज़
- रसा चुग़ताई

तो हम भी रात के जंगल में सो गए होते
न बनते पाँव के छाले अगर सफ़र में चराग़
- ख़लीक़ुज़्ज़माँ नुसरत

किस क़दर ख़ुद्दार थे दो पाँव के छाले न पूछ
कोई सरगोशी न की ज़ंजीर की झंकार से
- शबनम नक़वी
अब लुत्फ़ मुझे देने लगे पाँव के छाले 
दुश्वार मिरा और भी रस्ता किया जाए 
- अज्ञात 

आज तक साथ हैं सरकार-ए-जुनूँ के तोहफ़े
सर का चक्कर न गया पाँव के छाले न गए
- जलील मानिकपूरी

ऐ मिरे पाँव के छालो मिरे हम-राह रहो
इम्तिहाँ सख़्त है तुम छोड़ के जाते क्यूँ हो
-लईक़ आजिज़
लईक़ आजिज़ऐ मिरे पाँव के छालो मिरे हम-राह रहो
इम्तिहाँ सख़्त है तुम छोड़ के जाते क्यूँ हो
- लईक़ आजिज़

तुम्हारी मेरी रिफ़ाक़त है चंद क़ौमों तक
तुम्हारे पाँव का छाला हूँ फूट जाऊँगा
- सुलैमान अरीब
इन राहों में वो नक़्श-ए-कफ़-ए-पा तो नहीं है
क्यूँ फूट के रोए हो यहाँ पाँव के छालो
- वहीद अख़्तर

सीने के ज़ख़्म पाँव के छाले कहाँ गए
ऐ हुस्न तेरे चाहने वाले कहाँ गए
- कलीम आजिज़

जो बेघर हैं तूफां में, वो महज़ प्यादे हैं |

महफूज़ सारे बादशाह ,वज़ीर और शहज़ादे हैं |
जो बेघर हैं तूफां में, वो महज़ प्यादे हैं | 

मेरी दुआओं जरा साथ साथ ही रहना - राहत इंदौर

तू तसल्ली है दिलासा है दुआ है क्या है

ख़्वाब, उम्मीद, तमन्नाएँ, तअल्लुक़, रिश्ते
जान ले लेते हैं आख़िर ये सहारे सारे
- इमरान-उल-हक़ चौहान


इक इश्क़ का ग़म आफ़त और उस पे ये दिल आफ़त
या ग़म न दिया होता या दिल न दिया होता
- चराग़ हसन हसरत



आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अंजाम बस इतना है
जब दिल में तमन्ना थी अब दिल ही तमन्ना है
- जिगर मुरादाबादी

नाम होंटों पे तिरा आए तो राहत सी मिले
तू तसल्ली है दिलासा है दुआ है क्या है
- नक़्श लायलपुरी

मेरी दुआओं जरा साथ साथ ही रहना - राहत इंदौर

Thursday, May 21, 2020

अकबर इलाहाबादी शायरी

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम 

वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता 







 
  
इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद 

अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता 



 
 

हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना 

हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना 





 
 
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ 

बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ 







 
 
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं 

फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं 







 
  

पैदा हुआ वकील तो शैतान ने कहा 

लो आज हम भी साहिब-ए-औलाद हो गए 







 
 
जो कहा मैं ने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर 

हँस के कहने लगा और आप को आता क्या है 



 
 
रहता है इबादत में हमें मौत का खटका 

हम याद-ए-ख़ुदा करते हैं कर ले न ख़ुदा याद 







 
 
अकबर दबे नहीं किसी सुल्ताँ की फ़ौज से 

लेकिन शहीद हो गए बीवी की नौज से 



 
 

मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट 

इल्मी मुबाहिसे हों ज़रा पास आ के लेट 



 
 

हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है 

डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है 







 
  
बी.ए भी पास हों मिले बी-बी भी दिल-पसंद 

मेहनत की है वो बात ये क़िस्मत की बात है 



 
 
लिपट भी जा न रुक 'अकबर' ग़ज़ब की ब्यूटी है 

नहीं नहीं पे न जा ये हया की ड्यूटी है 



 
 

ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए 

मैं लेटा तो उठ के खड़े हो गए 



 
 

हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं 

कि जिन को पढ़ के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं 







 
 

इस क़दर था खटमलों का चारपाई में हुजूम 

वस्ल का दिल से मिरे अरमान रुख़्सत हो गया 



 
 
धमका के बोसे लूँगा रुख़-ए-रश्क-ए-माह का 

चंदा वसूल होता है साहब दबाव से 



 
 

जो वक़्त-ए-ख़त्ना मैं चीख़ा तो नाई ने कहा हँस कर 

मुसलमानी में ताक़त ख़ून ही बहने से आती है 



 
 
हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया 

कि वो जामे से बाहर है ये पाजामे से बाहर है 



 
 
कोट और पतलून जब पहना तो मिस्टर बन गया 

जब कोई तक़रीर की जलसे में लीडर बन गया 







 
 


तमन्नाएँ थीं ख्वाबें बेसुमार थीं

कहाँ से चला था
तमन्नाएँ थीं ख्वाबें बेसुमार थीं
उत्साह की उमरी ज्वार थी.
ध्येय निश्चय कर उसे पाना
जीवन की थी नित्य प्रेरणा.

राह की अवरोधें
मानो ललकारती वजूद को,
वैज्ञानिक हल ढूँढता, प्रबंधन के नीति पर कसता
उर्जावान हो हल सुझाता.

"सफल" शब्द सा सुनहरा
और ना पाया कुछ जग में,
जोश, जुनून, धैर्य व दृढ़ता
बनते साधन उपलब्धि में.

संयोग बना इक दिन ऐसा
आया हो प्रश्नों का सैलाब जैसा,
क्या कर्म है क्या है जीवन
जानें इनका प्रयोजन

देखा जब "ध्यान " से इसे
बह रही है नदी जैसे
मूढ़ता है इसे काबू में करना
बुद्धों ने सुझाया "मुक्त करना".
भरम है ये सुख दुख
जाने सो आलोक उन्मुख॥

कांटों पर जलते हुए

कांटों पर जलते हुए

देख विधाता तूने लिख दी
पीड़ हमारे जीवन
पर कांटों में चलते हैं हम
जैसे सुंदर मधुवन

देख पैर के छालों से
टप टप रिसता पानी
और भूख से सूखा ये तन
खुद ही कहे कहानी
मगर नहीं घुटने टेकेगा
सागर जैसा ये मन
पर कांटों में चलते हैं हम
जैसे सुंदर मधुवन।

बाग सजाकर दुनिया के
पाई हमने शूल
अपने घर की स्वर्णभस्म
अब बनी राह की धूल
खिले पुष्प से मुरझाए हम
ढलक रहा है यौवन
पर कांटों में चलते हैं हम
जैसे सुंदर मधुवन।

जिन हाथों से कर्म किया वो
कहाँ बैठ सुख पाते
अनथक चलते जाते हैं हम
अपने खेत बुलाते
अपने हाथों से खेतों को
देंगे हम नव जीवन
पर कांटों में चलते हैं हम
जैसे सुंदर मधुवन।

कटती है आरज़ू के सहारे पे ज़िंदगी

ऐ ग़म-ए-ज़िंदगी न हो नाराज़
मुझ को आदत है मुस्कुराने की
- अब्दुल हमीद अदम



मैं समझता हूँ कि है जन्नत ओ दोज़ख़ क्या चीज़
एक है वस्ल तिरा एक है फ़ुर्क़त तेरी
- जलील मानिकपूरी



कटती है आरज़ू के सहारे पे ज़िंदगी
कैसे कहूँ किसी की तमन्ना न चाहिए
- शाद आरफ़ी

मिरे हालात को बस यूँ समझ लो
परिंदे पर शजर रक्खा हुआ है
- शुजा ख़ावर

उदासी शायरी

न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ 
इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं 
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब 
क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो 
- अल्लामा इक़बाल

एक बे-नाम उदासी से भरा बैठा हूं 
आज दिल खोल के रोने की ज़रूरत है मुझे। 
- अंजुम सलीमी


उदास शाम की यादों भरी सुलगती हवा 
हमें फिर आज पुराने दयार ले आई। 
- राजेंद्र मनचंदा बानी

इस जुदाई में तुम अंदर से बिखर जाओगे
किसी माज़ूर को देखोगे तो याद आऊंगा। 
- वसी शाह  

ग़म बयां करने का कोई और ढंग ईजाद कर,
तेरी आंखों का यह पानी तो पुराना हो गया। 
- वसीम बरेलवी 


हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल 
उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती 
- वसीम बरेलवी

हम ग़म-ज़दा हैं लाएँ कहाँ से ख़ुशी के गीत 
देंगे वही जो पाएँगे इस ज़िंदगी से हम 
- साहिर लुधियानवी
 
हमारे घर की दीवारों पे 'नासिर' 
उदासी बाल खोले सो रही है 
- नासिर काज़मी

जिसको बड़ा ग़ुरूर था अपने वजूद पर, 
वो आफ़ताब शाम की चौखट पे मर गया।
- शाहिद सागरी 
वो पलकों पै आ ही गया बन के आंसू,
ज़ुबां पे न हम ला सके जो फ़साना। 
- हसरत सुहवाई 

मुझे ये डर है तिरी आरज़ू न मिट जाए 
बहुत दिनों से तबीअत मिरी उदास नहीं 
- नासिर काज़मी

ना-उमीदी बढ़ गई है इस क़दर 
आरज़ू की आरज़ू होने लगी 
- दाग़ देहलवी

ना-उमीदी मौत से कहती है अपना काम कर 
आस कहती है ठहर ख़त का जवाब आने को है 
- फ़ानी बदायुनी

इतना मैं इंतिज़ार किया उस की राह में 
जो रफ़्ता रफ़्ता दिल मिरा बीमार हो गया 
- शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

ऐसे ना छोड़ना मुझे

ऐसे ना मुझे छोड़ना के मैं ,
सदमे में होश खो बैठू ,

थोड़ी आज दूरी बना थोड़ी कल,
ऐसे ही धीरे-धीरे छोड़ देना ,

जिससे तुम्हें भी दर्द ना हो
और मुझे भी एहसास न हो

मिजाज शायरी

अपनी आदत कि सब से सब कह दें
शहर का है मिज़ाज सन्नाटा
- सलमान अख़्तर


कुछ तो इनायतें हैं मिरे कारसाज़ की
और कुछ मिरे मिज़ाज ने तन्हा किया मुझे
- अकरम नक़्क़ाश



अभी फिर रहा हूँ मैं आप-अपनी तलाश में
अभी मुझ से मेरा मिज़ाज ही नहीं मिल रहा
- तारिक़ नईम


दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे
जो रंज की घड़ी भी ख़ुशी से गुज़ार दे
- दाग़ देहलवी


चुप रहो क्यूँ मिज़ाज पूछते हो
हम जिएँ या मरें तुम्हें क्या है
- लाला माधव राम जौहर


फिर मिरी आँख हो गई नमनाक
फिर किसी ने मिज़ाज पूछा है
- असरार-उल-हक़ मजाज़

सब गए पूछने मिज़ाज उन का
मैं गया अपनी दास्ताँ ले कर
- जलील मानिकपूरी


पूछ लेते वो बस मिज़ाज मिरा
कितना आसान था इलाज मिरा
- फ़हमी बदायूंनी

तू जिधर जाए दिन निकल आए
रौशनी का मिज़ाज पैदा कर
- नुसरत मेहदी


सूफियाना मिज़ाज है अपना
मस्त रहते हैं अपनी मस्ती में
- राज़िक़ अंसारी

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी 
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी 

ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र ओ क़रार 
बे-क़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी 

उस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू 
कि तबीअ'त मिरी माइल कभी ऐसी तो न थी 

अक्स-ए-रुख़्सार ने किस के है तुझे चमकाया 
ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी 

अब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़ 
सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थी 

पा-ए-कूबाँ कोई ज़िंदाँ में नया है मजनूँ 
आती आवाज़-ए-सलासिल कभी ऐसी तो न थी 

निगह-ए-यार को अब क्यूँ है तग़ाफ़ुल ऐ दिल 
वो तिरे हाल से ग़ाफ़िल कभी ऐसी तो न थी 

चश्म-ए-क़ातिल मिरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन 
जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी 

क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार 
ख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी 

लौट जाना शायरी

रास्ता आगे भी ले जाता नहीं
लौट कर जाना भी मुश्किल हो गया
- जलील ’आली’


पहुँचे तो दिल में जोश-ए-तमन्ना लिए हुए
लौटे मगर लुटी हुई दुनिया लिए हुए
- शकील बदायूंनी


ये दश्त वो है जहाँ रास्ता नहीं मिलता
अभी से लौट चलो घर अभी उजाला है
- अख़्तर सईद ख़ान


देर लगती है बहुत लौट के आते आते
और वो इतने में हमें भूल चुका होता है
- अज़हर अदीब


अब नहीं लौट के आने वाला
घर खुला छोड़ के जाने वाला
- अख़्तर नज़्मी


बाहर सारे मैदाँ जीत चुका था वो
घर लौटा तो पल भर में ही टूटा था
- अम्बर बहराईची

मैं अपनी यात्रा पर जा रहा हूँ
मुझे अब लौट कर आना नहीं है
- महेंद्र कुमार सानी


लुट गया है सफ़र में जो कुछ था
पास अपने मकान तक भी नहीं
- ज़ुहूर नज़र

निकल आया हूँ आगे उस जगह से
जहाँ से लौट जाना चाहिए था
- अज़हर अदीब


यूं तसल्ली को तो इक याद भी काफ़ी थी मगर
दिल को तस्कीन तिरे लौट के आने से मिली
- अनवर सदीद

मैं बहुत दूर निकल आया हूं।

मैं बहुत दूर निकल आया हूं।
मुझे मशहूर नहीं होना
मुझे नाम कमाना है,
और नाम बनाना है।
पर्चो में छपवाना है,
क्या कहूं रातों में क्यों नहीं सोता
सच बताऊं तो ,नींदों का सौदा कर आया हूं।
भीड़ महफ़िल और चकाचौंध नज़रें
मैं सब कुछ तो देख आया,
और फिर कुछ सोच , चंद किताबों के लिए
मैं अपना सुकून बेच आधा कर आया हूं।
अब मैं हूं , कुछ पन्ने
और कुछ रातें है जागी सी
क्या पता, मेरा नाम होगा कभी
इन पन्नों में, या यूं ही ढह जाऊंगा
पर अब पास कुछ नहीं खोने को
इसलिए पहचान पाने का वादा कर आया हूं।
मैं बहुत दूर निकल आया हूं।

हम न होंगे तो ये दुनिया दर-ब-दर हो जाएगी

ज़िंदगी की हर कहानी बे-असर हो जाएगी

हम न होंगे तो ये दुनिया दर-ब-दर हो जाएगी

पांव पत्थर कर के छोड़ेगी अगर रुक जाइए
चलते रहिए तो ज़मीं भी हम-सफ़र हो जाएगी

जुगनुओं को साथ ले कर रात रौशन कीजिए
रास्ता सूरज का देखा तो सहर हो जाएगी

ज़िंदगी भी काश मेरे साथ रहती उम्र-भर
ख़ैर अब जैसे भी होनी है बसर हो जाएगी

तुम ने ख़ुद ही सर चढ़ाई थी सो अब चक्खो मज़ा
मैं न कहता था कि दुनिया दर्द-ए-सर हो जाएगी

तल्ख़ियां भी लाज़मी हैं ज़िंदगी के वास्ते
इतना मीठा बन के मत रहिए शकर हो जाएगी

Wednesday, May 20, 2020

जो हैं मज़लूम उन को तो तड़पता छोड़ देते हैं

जो हैं मज़लूम उन को तो तड़पता छोड़ देते हैं 

ये कैसा शहर है ज़ालिम को ज़िंदा छोड़ देते हैं 

अना के सिक्के होते हैं फ़क़ीरों की भी झोली में 

जहाँ ज़िल्लत मिले उस दर पे जाना छोड़ देते हैं 

हुआ कैसा असर मा'सूम ज़ेहनों पर कि बच्चों को 

अगर पैसे दिखाओ तो खिलौना छोड़ देते हैं 

अगर मा'लूम हो जाए पड़ोसी अपना भूका है 

तो ग़ैरत-मंद हाथों से निवाला छोड़ देते हैं 

मोहज़्ज़ब लोग भी समझे नहीं क़ानून जंगल का 

शिकारी शेर भी कव्वों का हिस्सा छोड़ देते हैं 

परिंदों को भी इंसाँ की तरह है फ़िक्र रोज़ी की 

सहर होते ही अपना आशियाना छोड़ देते हैं 

तअ'ज्जुब कुछ नहीं 'दाना' जो बाज़ार-ए-सियासत में 

क़लम बिक जाएँ तो सच बात लिखना छोड़ देते हैं 

Tuesday, May 19, 2020

हिम्मत रख बदलेगा मंजर

हिम्मत रख बदलेगा मंजर,
संकट का पल कट जायेगा।।
फिर से होगा नया सबेरा
घोर अँधेरा छट जायेगा।।

अरुणाचल में लाली होगी,
कलरव होगा घर आंगन में।
ऊषा बटोरेगी नव नीरद,
मधु पल्लव होगा उपवन में।
मधुपों-मुकुलों के मलय वात से
किसलय खिलकर मुस्कायेगा।।
हिम्मत रख बदलेगा मंजर,
संकट का पल कट जायेगा।।


पल ये कठिन बहुत है लेकिन,
इससे अब घबराना कैसा।।
भाग्य नीड़ यह परिवर्तन है,
किसी पे दोष लगाना कैसा।।

धूप दोपहरी निष्फल जीवन,
शुभ आशा से घट जायेगा।।
हिम्मत रख बदलेगा मंजर,
संकट का पल कट जायेगा।।

लक्ष्य से तुम ना कभी विचलना,
राह में चाहे कोटि बाधा हो।
हौसलों की ढाल बनाकर,
भाग्य मूल केवल साधा हो।।


मिलना जो है वही मिलेगा,
विधि का लेख भी बट जायेगा।।
हिम्मत रख बदलेगा मंजर,
संकट का पल कट जायेगा।।

 घर-घर में कोहराम मचा है
शहर-नगर भय कोलाहल है।
कुम्हला गई है कलियाँ सारी,
असमय उपवन-वन व्याकुल है ।।

विकट,विषम विपुल दुखदायक ,
बहुजन हृदय भी लुट जायेगा।।
हिम्मत रख बदलेगा मंजर,
संकट का पल कट जायेगा।।
खुद को हवा से तेज करो तुम
अतिवेग से आप बढों अब।
राह कठिन हो कितनी भी पर,
अकंम्पित हो प्रतिवेग चढ़ो अब।।

अविचल,अकथ ,सतत चलने से,
मंजिल क्षण झटपट आयेगा।।
हिम्मत रख बदलेगा मंजर,
संकट का पल कट जायेगा।।
 मजबूरी की मूढ़ विवशता,
 छाया है घनघोर अँधेरा।
धुधली सी बादल की चादर,
जाने कब हो नया सबेरा।।

सपनों के लाचार पाँव अब,
दुर्दम्य घाव से कट जायेगा।।
हिम्मत रख बदलेगा मंजर,
संकट का पल कट जायेगा।।

मैं उस के सामने से गुज़रता हूँ इस लिए

कौन रोता है किसी और की ख़ातिर ऐ दोस्त
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया
- साहिर लुधियानवी


मैं उस के सामने से गुज़रता हूँ इस लिए
तर्क-ए-तअल्लुक़ात का एहसास मर न जाए
- फ़ना निज़ामी कानपुरी


हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक
- मिर्ज़ा ग़ालिब

अदा हुआ न क़र्ज़ और वजूद ख़त्म हो गया
मैं ज़िंदगी का देते देते सूद ख़त्म हो गया
- फ़रियाद आज़र

रक्ख पराती माथे पर मजदूर चले

छोड़ जगह पहले वाली फिर दूर चले
होकर सारे बनजारे मजबूर चले

धीरे-धीरे गुजर गए सारे पुरखे
संग मुक़म्मल उनके सब दस्तूर चले

ख़ुद्दारी से जीने वाले हैं घर में
पैर पकड़ने वाले हो मशहूर चले

ऑक्टोपड ने लूट लिया हर महफ़िल को
जोगी लेकर इकतारे संतूर चले

सूरज निकला चीर अँधेरा सुबह हुई
रक्ख पराती माथे पर मजदूर चले

भभग उठी चिंगारी दिल में लोगों के
होकर जब हम राहों से मग़रूर चले

हम थे कुछ हुशियार न आए क़ाबू में
व्यूह अगरचे दुश्मन ने भरपूर चले


(२)
होता है कब अमर बुलबुला पानी का
शोक करो मत तुम भी जीवन फ़ानी का

कौन बचाए सर्दी से उनको जिनने
पहन रखा पहनावा मच्छरदानी का

नेकी रहती है मुद्दत तक दुनिया में
मग़र रुका है यश कब बेईमानी का

सोच समझकर काम करो सब जीवन में
कौन दिया है साथ भला नादानी का

जितने किस्से गढ़ना है तुम गढ़ डालो
बेहद कम होता है वक़्त जवानी का

फ़क़त अहम के कारण लंका उजड़ गई
होता हश्र बुरा हरक़त बचकानी का

किनारा क्यों किया तुमने

किनारा सामने था तब किनारा क्यों किया तुमने,
मेरी आँखों के आगे ये तमाशा क्यों किया तुमने।

अंधेरा है अगर मेरा मुक़द्दर जानते थे तुम,
ज़रा सी देर की ख़ातिर उजाला क्यों किया तुमने।

भरोगे एक दिन तुम सबकी झोली चांद तारों से,
मुहब्बत में फ़क़ीरों से ये वादा क्यों किया तुमने।


चले आए मेरे ख़्वाबों में ये तो ठीक था लेकिन,
भरे बाज़ार में ख़्वाबों का सौदा क्यों किया तुमने।

मेरी तन्हाइयों के ज़ख़्म तुमसे पूछते हैं ये,
बताओ अब तो मेरे साथ ऐसा क्यों किया तुमने।

मुझे धोके में रक्खा फिर अना लूटी गई मेरी,
वफ़ादारी में मेरे साथ धोका क्यों किया तुमने।

परिंदे की तरह पाला था तुमने प्यार से मुझको,
मुझे घर से उड़ाने का इरादा क्यों किया तुमने।

कितना भी गहरा हो रिश्ते की तरफ मत जाना

कितना भी गहरा हो रिश्ते की तरफ मत जाना,
उसके मासूम से चेहरे की तरफ मत जाना।

जी भी दिखता हो मगर सच है के वो क़ाफ़िर है,
उसके तुम भूल के सजदे की तरफ मत जाना।

दुश्मनी उसकी है पत्थर से दिखाने के लिए,
हो समझदार तो शीशे की तरफ मत जाना।

छाँव गहरी है बहुत और है ठंडी भी मगर,
गिरती दीवार के साए की तरफ मत जाना।

वो है किरदार कहानी का पुराना पापी,
तुम सुनाए हुए किस्से की तरफ मत जाना।

उसने बर्बादी को मंज़िल में छिपा रखा है,
बात ये मान के रस्ते की तरफ मत जाना।

पास में उसके जो अल्फ़ाज़ हैं ,ज़हरीले हैं,
उसके आसान से लहज़े की तरफ मत जाना।
रहा था मुझमें कभी वो मलाल छीन लिया,
सफ़र में उम्र का हर एक साल छीन लिया।

उसे क़रीब मैं पाता था जिसके होने से,
उसी ने ज़ेह्न से मेरा ख़याल छीन लिया।

नज़र में उसकी रहूँ सोचकर मिला लेकिन,
दिखा के आईना उसने जमाल छीन लिया।

मैं इससे पहले के कुछ पूछता सलीके से,
सवाल पूछ के उसने सवाल छीन लिया।

उसे ये कैसे बताता के कुछ तो मैं भी हूँ,
के उसने अपने हुनर से कमाल छीन लिया।

मैं आफ़ताब रहा था किसी ज़माने में,
मगर समय ने मेरा सब ज़लाल छीन लिया।

अजब ये हाल किया मिल के मछलियों ने मेरा,
बड़े तपाक से हाथों का जाल छीन लिया।

-सुरेंद्र चतुर्वेदी 

बहुत खास हो तुम

कुछ तो तुममें ऐसा है, दिल के इतने पास हो तुम
ख़ूबसूरत सा एहसास हो, मेरे लिए बहुत खास हो तुम

उषा की मंजुल लालिमा हो, भोर की मुस्कान हो तुम
सुरमई शाम की मदहोशी हो, पूनम का चाँद हो तुम

ख़्वाबों की उड़ान हो, एक अडिग विश्वास हो तुम
जीवन का आधार हो, अनकहा एतबार हो तुम

होंठों का तबस्सुम हो, चेहरे का मेरे नूर हो तुम
आँखों की शरारत हो, ख़ामोशी की ज़ुबान हो तुम

दिल की धड़कन हो, साँसों की महक हो तुम
प्रेम की सरगम हो, प्रीत का सुरीला राग हो तुम

जज़्बातों की बारिश हो, ग़ज़ल के अल्फ़ाज़ हो तुम
ज़िंदगी का साज़ हो, साज़ की मधुर आवाज़ हो तुम

उम्मीदों का गुलशन हो, उमंग भरी सौग़ात हो तुम
मन हर्षित जो कर दे, ख़्वाबों का श्रृंगार हो तुम

बाहों की स्नेहिल छुअन हो, सुकून देता अपनापन हो तुम
ज़िंदगी का सुरीला साज़ हो, रूह की आवाज़ हो तुम

इबादत में माँगी दुआ हो, ख़ुशियों का जहान हो तुम
ख़ुशनुमा कायनात हो, मेरे लिए बहुत खास हो तुम! 

पैदल शायरी

छप्पर के चाए-ख़ाने भी अब ऊँघने लगे
पैदल चलो कि कोई सवारी न आएगी
- बशीर बद्र

ऐसी मजबूरी नहीं है कि चलूँ पैदल मैं
ख़ुद को गर्माता हूँ रफ़्तार में रहने के लिए
- शकील आज़मी

रिकाब-ए-ख़ाक में उलझे हैं आसमाँ के पाँव
मिरा ख़याल हवा पर है और पैदल मैं
- फ़रहत एहसास

आने न दिया बार-ए-गुनह ने पैदल
ताबूत में काँधों पे सवार आया हूँ
- भारतेंदु हरिश्चंद्र

पैदल जो आ रहा है सो है वो भी आदमी
पब्लिक से जिस ने वोट लिया वो भी आदमी
- सरफ़राज़ शाहिद

ये हवाएँ कब निगाहें फेर लें किस को ख़बर
शोहरतों का तख़्त जब टूटा तो पैदल कर दिया
- राहत इंदौरी

आओ पैदल ही सफ़र के सिलसिलों को रौंद दें
बैठे बैठे बाँझ होते जा रहे हैं दोस्तो
- मरातिब अख़्तर

इस क़दर बढ़ने लगे हैं घर से घर के फ़ासले
दोस्तों से शाम के पैदल सफ़र छीने गए
- इफ़्तिख़ार क़ैसर
इक तो वैसे बड़ी तारीक है ख़्वाहिश-नगरी
फिर तवील इतनी कि पैदल नहीं देखी जाती
- जव्वाद शैख़

मैं शाहराह नहीं रास्ते का पत्थर हूँ
यहाँ सवार भी पैदल उतर के चलते हैं
- बशीर बद्र
लाखों का हक़ मार चुके हो चैन कहाँ से पाओगे
पैदल आगे सरकाओ तो फ़र्ज़ीं की भी चाल खुले
- मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

सूरज के पापों की गठरी सर पर लादे थकी थकी सी
ख़ामोशी से मुँह लटकाए चल देती है पैदल शाम
- बद्र वास्ती
बयाबाँ की तन्हाई को दूर करने की ख़ातिर
मैं तपती हुई रेत पर सदियों पैदल चला हूँ
- शहाब जाफ़री

खोज में तेरी अन-गिन ट्रामें और बसें छानी हैं
कोलतार की सड़कों पर मीलों पैदल घूमा हूँ
- सादिक़

चांद चांद होता है

चांद पूरा हो, अधूरा हो
आधा हो, पौना हो या चौथाई हो
बढ़ता हुआ हो या घटता हुआ हो
चांद चांद ही होता है
चांदनी रातों का चांदनी का चांद
चांद होते हुए या
चांद न होते हुए भी बस
चांदनी का होता है।

हर पल ही मुस्कराते रहे हम बस यही ज़िंदगी है।

बदलते हवा के रुख़ सा यहां लोग बदलते हैं,
हर रिश्तों में ही ख़ुशियाँ और ग़म झलकते हैं,
मगर कौन कैसा है ये तो वक़्त ही जानता है,
इस जहाँ में बोलो कौन किसको पहचानता है।

तुम बूरे हो काम जिसके न कोई भी तुम आए,
हो प्यारे दुलारे जिसके तुमने कोई काम बनाए,
है मतलबी दुनिया, मतलब हर शख्स ढूंढता है,
हर कोई यहाँ पर अपने मन का आईना ढूंढता है।

बिखरा हर कोई है, कोई भी गुलगार दिखता नहीं,
मगर संभल कर जो बढ़ जाए उसी की ये डगर है।
एक पल की मुस्कान के लिए क्यों पल हम तलाशे,
हर पल ही मुस्कराते रहे हम बस यही ज़िंदगी है।

Monday, May 18, 2020

किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम

किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम

किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया


वो बरगश्ता थे कुछ हमसे उन्हें क्योंकर यक़ीं आता

चलो अच्छा हुआ एहसास पलकों तक चला आया


जो हमको ढूँढने निकला तो फिर वापस नहीं लौटा

तसव्वुर ऐसे ग़ैर—आबाद हलकों तक चला आया


लगन ऐसी खरी थी तीरगी आड़े नहीं आई

ये सपना सुब्ह के हल्के धुँधलकों तक चला आया

-दुष्यंत कुमार 

तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं

तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं

तो ख़्यालों में बहुत दूर निकल जाते हैं

गर वफ़ाओं में सदाक़त भी हो और शिद्दत भी
फिर तो एहसास से पत्थर भी पिघल जाते हैं

उसकी आँखों के नशे में हैं जब से डूबे
लड़-खड़ाते हैं क़दम और संभल जाते हैं

बेवफ़ाई का मुझे जब भी ख़याल आता है
अश्क़ रुख़सार पर आँखों से निकल जाते हैं

प्यार में एक ही मौसम है बहारों का मौसम
लोग मौसम की तरह फिर कैसे बदल जाते हैं

यूं तो है बहारां का मौसम

यूं तो है बहारां का मौसम एक गुल का मगर पैग़ाम नहीं
तू हाल हमारा देख जिगर यक लहजा हमें आराम नहीं

सब से तो मुख़ातिब है लेकिन हम तक ही ये दौरे-जाम नहीं
दिल तुझसे ख़फ़ा तो है साक़ी तुझपर है मगर इल्ज़ाम नहीं

क्यों उसकी गली से उठ जायें क्यों ज़ख़्म न अबके हम खायें
बर्बाद तो है ये दिल मेरा इस दर्जा मगर नाकाम नहीं

होती है सुबह जिसके रुख़ से हम भी हैं फ़िदा उस काफ़िर पे
वो कह दे तो ये शब रात नहीं वो कह दे तो सुब्हो-शाम नहीं

ज़ाहिद तू न यां की सोच मियां जा देख ले अपना हाल ज़रा
आंखों से टपकते अश्क नहीं हाथों में छलकता जाम नहीं

लाखों शक्लों के मेले में तनहा रहना मेरा काम...

लाखों शक्लों के मेले में तनहा रहना मेरा काम...


लाखों शक्लों के मेले में तनहा रहना मेरा काम
भेस बदल कर देखते रहना तेज़ हवाओं का कोहराम

एक तरफ़ आवाज़ का सूरज एक तरफ़ इक गूँगी शाम
एक तरफ़ जिस्मों की ख़ुश्बू एक तरफ़ इस का अन्जाम

बन गया क़ातिल मेरे लिये तो अपनी ही नज़रों का दाम
सब से बड़ा है नाम ख़ुदा का उस के बाद है मेरा नाम.


तोड़ना टूटे हुये दिल का बुरा होता है...

तोड़ना टूटे हुये दिल का बुरा होता है.
जिस का कोई नहीं उस का तो ख़ुदा होता है.

माँग कर तुम से ख़ुशी लूँ मुझे मंज़ूर नहीं,
किस का माँगी हुई दौलत से भला होता है.

लोग नाहक किसी मजबूर को कहते हैं बुरा,
आदमी अच्छे हैं पर वक़्त बुरा होता है.

क्यों "मुनिर" अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा,
जितना तक़दीर में लिखा है अदा होता है.

मैं और मेरा ख़ुदा ...

लाखों शक्लों के मेले में तनहा रहना मेरा काम
भेस बदल कर देखते रहना तेज़ हवाओं का कोहराम

एक तरफ़ आवाज़ का सूरज एक तरफ़ इक गूँगी शाम
एक तरफ़ जिस्मों की ख़ुश्बू एक तरफ़ इस का अन्जाम

बन गया क़ातिल मेरे लिये तो अपनी ही नज़रों का दाम
सब से बड़ा है नाम ख़ुदा का उस के बाद है मेरा नाम.

हमेशा देर कर देता हूँ मैं...

हमेशा देर कर देता हूँ मैं
ज़रूरी बात कहनी हो
कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

मदद करनी हो उसकी
यार का धाढ़स बंधाना हो
बहुत देरीना रास्तों पर
किसी से मिलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

बदलते मौसमों की सैर में
दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो
किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं

किसी को मौत से पहले
किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ
उस को जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूँ मैं.


-मुनीर नियाजी 

महामारी लगी थी

महामारी लगी थी घरों को भाग लिये थे सभी मज़दूर, कारीगर. मशीनें बंद होने लग गयी थीं शहर की सारी उन्हीं से हाथ पांव चलते रहते थे वगर्ना ज़िन्दगी तो गाँव ही में बो के आये थे. वो एकड़ और दो एकड़ ज़मीं, और पांच एकड़ कटाई और बुआई सब वहीं तो थी.ज्वारी, धान, मक्की, बाजरे सब. वो बंटवारे, चचेरे और ममेरे भाइयों से फ़साद नाले पे, परनालों पे झगड़े लठैत अपने, कभी उनके. वो नानी, दादी और दादू के मुक़दमे. सगाई, शादियां, खलियान,सूखा, बाढ़, हर बार आसमां बरसे न बरसे. मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है. यहां तो जिस्म ला कर प्लग लगाए थे !निकालेंं प्लग सभी ने,‘ चलो अब घर चलें ‘ – और चल दिये सब, मरेंगे तो वहीं जा कर जहां पर ज़िंदगी है !

– गुलज़ार

मैं हूँ मजदूर

मैं हूँ मजदूर,
भूख मिटाने को आया इतनी दूर,
इसमे मेरा क्या कसूर,
सैकड़ों मील लम्बी,
शेषनाग-सी सड़कों पर चलने को हूँ मजबूर,
मैं हूँ मजदूर।।

गठरी में गृहस्थी बांधे,
पीठ पर बच्चा लादे,
कोख में बच्चा पाले,
जीने की लिए आशाएं,
चल रही है सैकड़ों माताएं,
हमारी ओर हुक्मरानों का ध्यान न जाए,
क्योंकि मैं हूँ मजदूर।।

कतार में खड़ा मैं,
रोजी-रोटी के लिए,
रेल टिकट के लिए,
मतदान के लिए,
शौचालय के लिए,
जान बचाने के लिए,
कतार में जीवन बिताने को हूँ मजबूर,
क्योंकि मैं हूँ मजदूर।।

रेल पटरियां हमें रास्ता दिखलाए,
जगह-जगह में रोका-टोका जाए,
वर्दी का रौब दिखाए,
फिर भी हम जिजीविषा लिए आगे बढ़ते जाए,
हे भगवान!
अगले जन्म में हमें मजदूर न बनाए,
मजदूर को सोच समझकर मजदूर बनाये,
मजदूर कितना है मजबूर,
मैं समझता हूं,,,
क्योंकि मैं हूँ मजदूर।।

तबियत ख़ुद बहल जाती है बहलाई नहीं जाती

हर मंज़र के अंदर भी इक मंज़र है
देखने वाला भी तो हो तैयार मुझे
- अतीक़ुल्लाह


ख़्वाहिश है कि ख़ुद को भी कभी दूर से देखूँ
मंज़र का नज़ारा करूँ मंज़र से निकल कर
- सऊद उस्मानी

कोई दिलकश नज़ारा हो कोई दिलचस्प मंज़र हो
तबीअत ख़ुद बहल जाती है बहलाई नहीं जाती
- शकील बदायुनी


वो अलविदा का मंज़र वो भीगती पलकें
पस-ए-ग़ुबार भी क्या क्या दिखाई देता है
- शकेब जलाली


उस आइने में था सरसब्ज़ बाग़ का मंज़र
छुआ जो मैं ने तो दो तितलियाँ निकल आईं
- लियाक़त जाफ़री


प्यास बुझ जाए ज़मीं सब्ज़ हो मंज़र धुल जाए
काम क्या क्या न इन आँखों की तेरी आए हमें
- अब्दुल अहद साज़

दुनिया-भर में जितने मंज़र अच्छे हैं
उन का हुस्न और शोर हवा का तेरे नाम
- ताजदार आदिल


कभी दिखा दे वो मंज़र जो मैं ने देखे नहीं
कभी तो नींद में ऐ ख़्वाब के फ़रिश्ते आ
- कुमार पाशी

सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
कोई इस शहर में आया हुआ लगता है मुझे
- अज़हर अदीब


खुला न उस पे कभी मेरी आँख का मंज़र
जमी है आँख में काई कोई दिखाए उसे
- सिद्दीक़ शाहिद

सारे मंज़र हसीन लगते हैं
दूरियाँ कम न हों तो बेहतर है
- साबिर


मंज़र था राख और तबीअत उदास थी
हर-चंद तेरी याद मिरे आस पास थी
- वज़ीर आग़ा

मैं हूँ मजदूर

मैं हूँ मजदूर,
भूख मिटाने को आया इतनी दूर,
इसमे मेरा क्या कसूर,
सैकड़ों मील लम्बी,
शेषनाग-सी सड़कों पर चलने को हूँ मजबूर,
मैं हूँ मजदूर।।

गठरी में गृहस्थी बांधे,
पीठ पर बच्चा लादे,
कोख में बच्चा पाले,
जीने की लिए आशाएं,
चल रही है सैकड़ों माताएं,
हमारी ओर हुक्मरानों का ध्यान न जाए,
क्योंकि मैं हूँ मजदूर।।

कतार में खड़ा मैं,
रोजी-रोटी के लिए,
रेल टिकट के लिए,
मतदान के लिए,
शौचालय के लिए,
जान बचाने के लिए,
कतार में जीवन बिताने को हूँ मजबूर,
क्योंकि मैं हूँ मजदूर।।

रेल पटरियां हमें रास्ता दिखलाए,
जगह-जगह में रोका-टोका जाए,
वर्दी का रौब दिखाए,
फिर भी हम जिजीविषा लिए आगे बढ़ते जाए,
हे भगवान!
अगले जन्म में हमें मजदूर न बनाए,
मजदूर को सोच समझकर मजदूर बनाये,
मजदूर कितना है मजबूर,
मैं समझता हूं,,,
क्योंकि मैं हूँ मजदूर।।

शहर में दर-ब-दर भटकता है

चार तिनके उठा के जंगल से 
एक बाली अनाज की ले कर 
चंद क़तरे बिलकते अश्कों के 
चंद फ़ाक़े बुझे हुए लब पर 
मुट्ठी भर अपनी क़ब्र की मिट्टी 
मुट्ठी भर आरज़ुओं का गारा 
एक तामीर की, लिए हसरत 
तेरा ख़ाना-ब-दोश बे-चारा 
शहर में दर-ब-दर भटकता है 
तेरा कांधा मिले तो सर टेकूं 

-गुलजार 

(किताब यार जुलाहे का एक संपादित अंश)

विश्वास तो रखना होगा!

रिश्तों को मजबूत रखना होगा, रिश्तों को मजबूत रखना है तो
विश्वास तो रखना होगा !
दूसरे के दिमाग और दिल को पढ़ना होगा,
हर मोड़ पर शांति से काम लेना होगा,
कभी खुद को तो कभी सामने वाले को सॉरी बोलना होगा,
आज की पीढ़ी को रिश्तों की अहमियत को समझना होगा,
एक दूसरे के मन और हालात को समझना होगा,
रिश्तों को मजबूत रखना होगा, रिश्तों को मजबूत रखना है, तो
विश्वास तो रखना होगा!
सामने वाले के लिए खुद को बदलना होगा,
अगर वो खुश हमे रखता है, तो हमे भी उसे खुश रखना होगा,
प्यार और अपनेपन की भावना को जिन्दा रखना होगा,
स्वार्थ छोड़कर दूसरे के लिए जीना होगा,
रिश्तों को मजबूत रखना होगा, रिश्तों को मजबूत रखना है तो
विश्वास तो रखना होगा!
रिश्तों को मन से निभाना होगा, रिश्तों को समय देना होगा,
अपने अहंकार को भी त्यागना होगा, चेहरे पर हंसी लाने के लिए बहुत कुछ करना होगा,
जीवन को और इसकी महत्ता को समझना होगा,
रिश्तों को मजबूत रखना होगा, रिश्तों को मजबूत रखना है, तो
विश्वास तो रखना होगा!

अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं

अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत ऐ मुतरिब 
अभी हयात का माहौल ख़ुश-गवार नहीं 
- साहिर लुधियानवी


भीड़ तन्हाइयों का मेला है
आदमी आदमी अकेला है
- सबा अकबराबादी


तुम ने छेड़ा तो कुछ खुले हम भी
बात पर बात याद आती है
- अज़ीज़ लखनवी

किसी अकेली शाम की चुप में
गीत पुराने गा के देखो
- मुनीर नियाज़ी

किसी भी शख्स में अच्छाई नहीं दिखती।।

ग़रीबों की तुझे क्यो आंख पथराई नहीं दिखती।
मसीहा अब तेरे अन्दर मसीहाई नहीं दिखती।।

ज़ुबा सूखी, बदन टूटा, हजा़रो पॉव में छाले।
अमीर ए मुल्क तेरी आँखों को सच्चाई नहीं दिखती।।

कोई भी देखिये चैनल, धर्म के ज़ात के झगड़े।
सहाफत को सियासत की तमाशाई नहीं दिखती।।

जो संसद में छिपे बैठे क़बा ओढ़े शराफ़त की।
मुझे तो इन में रत्ती भर भी अच्छाई नहीं दिखती।।

हकीकत है, तजुर्बा है, मुझे दुनियां की जीनत का।
अगर पल्ले में पैसा हो तो मँहगाई नहीं दिखती।।

गरीबों के दिलो में जिंदगी के ख़्वाब है लेकिन।
मुझे आंखों में जिन्दा इन के बिनाई नहीं दिखती।।

कोई टीवी पे कहता है बुलंदी छू रहा भारत।
हकीकत में तरक्की एक चौथाई नहीं दिखती।।

बुजुर्गो से मिली जो सीख मैं तुम को बताता हूं।
सलीके से करी जाये तो तुरपाई नहीं दिखती।।

ये मिसरा कह रहा हूं मैं तकब्बुर के हवाले से।
अगर सूरज हो सर पे अपनी परछाई नहीं दिखती।।

तुम्हें हम ढूंढते हैं रात भर ख्वाबो के महलों में।
मगर तुम क्या तुम्हारी हम को परछाई नहीं दिखती।।

न जाने कौन सी तहज़ीब के हामी हुए हैं हम।।
किसी भी शख्स में अच्छाई नहीं दिखती।।

Sunday, May 17, 2020

नसीर तुराबी की शायरी

वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी

वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
न अपना रंज न औरों का दुख न तेरा मलाल
शब-ए-फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी

मोहब्बतों का सफ़र इस तरह भी गुज़रा था
शिकस्ता-दिल थे मुसाफ़िर शिकस्ता-पाई न थी
अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं बहुत
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी

बिछड़ते वक़्त उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी
किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन
सदा तो आई थी लेकिन कोई दुहाई न थी

कभी ये हाल कि दोनों में यक-दिली थी बहुत
कभी ये मरहला जैसे कि आश्नाई न थी
अजीब होती है राह-ए-सुख़न भी देख 'नसीर'
वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी.

मिलने की तरह मुझ से वो पल भर नहीं मिलता...

मिलने की तरह मुझ से वो पल भर नहीं मिलता ,
दिल उस से मिला जिस से मुक़द्दर नहीं मिलता .
ये राह-ए-तमन्ना है यहाँ देख के चलना ,
इस राह में सर मिलते हैं पत्थर नहीं मिलता .

हमरंगी-ए-मौसम के तलबगार न होते ,
साया भी तो क़ामत के बराबर नहीं मिलता .
कहने को ग़म-ए-हिज्र बड़ा दुश्मन-ए-जाँ है ,
पर दोस्त भी इस दोस्त से बेहतर नहीं मिलता .

कुछ रोज़ 'नसीर' आओ चलो घर में रहा जाए ,
लोगों को ये शिकवा है कि घर पर नहीं मिलता .
 
इस कड़ी धूप में साया कर के...

इस कड़ी धूप में साया कर के
तू कहाँ है मुझे तन्हा कर के
मैं तो अर्ज़ां था ख़ुदा की मानिंद
कौन गुज़रा मिरा सौदा कर के

तीरगी टूट पड़ी है मुझ पर
मैं पशीमाँ हूँ उजाला कर के
ले गया छीन के आँखें मेरी
मुझ से क्यूँ वादा-ए-फ़र्दा कर के

लौ इरादों की बढ़ा दी शब ने
दिन गया जब मुझे पसपा कर के
काश ये आईना-ए-हिज्र-ओ-विसाल
टूट जाए मुझे अंधा कर के

हर तरफ़ सच की दुहाई है ‘नसीर’
शेर लिखते रहो सच्चा कर के.

मैं भी ऐ काश कभी मौज-ए-सबा हो जाऊं...

मैं भी ऐ काश कभी मौज-ए-सबा हो जाऊँ
इस तवक़्क़ो पे कि ख़ुद से भी जुदा हो जाऊँ
अब्र उट्ठे तो सिमट जाऊँ तिरी आँखों में
धूप निकले तो तिरे सर की रिदा हो जाऊँ

आज की रात उजाले मिरे हम-साया हैं
आज की रात जो सो लूँ तो नया हो जाऊँ
अब यही सोच लिया दिल में कि मंज़िल के बग़ैर
घर पलट आऊँ तो मैं आबला-पा हो जाऊँ

फूल की तरह महकता हूँ तिरी याद के साथ
ये अलग बात कि मैं तुझ से ख़फ़ा हो जाऊँ
जिस के कूचे में बरसते रहे पत्थर मुझ पर
उस के हाथों के लिए रंग-ए-हिना हो जाऊँ

आरज़ू ये है कि तक़्दीस-ए-हुनर की ख़ातिर
तेरे होंटों पे रहूँ हम्द-ओ-सना हो जाऊँ
मरहला अपनी परस्तिश का हो दरपेश तो मैं
अपने ही सामने माइल-ब-दुआ हो जाऊँ

तीशा-ए-वक़्त बताए कि तआरुफ़ के लिए
किन पहाड़ों की बुलंदी पे खड़ा हो जाऊँ
हाए वो लोग कि मैं जिन का पुजारी हूँ ‘नसीर’
हाए वो लोग कि मैं जिन का ख़ुदा हो जाऊँ.

अब मसीहा भी क्या दवा देगा

आदमी आदमी को क्या देगा

जो भी देगा वही ख़ुदा देगा

मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिब है
क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा

ज़िन्दगी को क़रीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा

हमसे पूछो दोस्ती का सिला
दुश्मनों का भी दिल हिला देगा

इश्क़ का ज़हर पी लिया 'फ़ाकिर'
अब मसीहा भी क्या दवा देगा

-सुदर्शन फ़ाकिर

चिड़ियों का कलरव, नदियों की सरगम

चिड़ियों का कलरव, नदियों की सरगम
खुशनुमा मौसम की शीतल बयार
हवाओं का बेखौफ़-सा ये लड़कपन
हर तरफ हो जैसे बासंती त्यौहार

नये फूल, नयी पत्तियाँ जैसे देती पैगाम
नवजीवन की आहट भरती सब में जान
इस बार का बसंत कुछ नया है सिखाता
जीने की नयी राह सब को है दिखाता

ये दौलत,ये शोहरत,ये रुतबे की बातें
है एक भ्रम मात्र ये सब को बताता
नया सफर,नयी राह,नया है सवेरा
है सब कुछ समय का,ना तेरा ना मेरा।

Saturday, May 16, 2020

बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में

जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है
मगर वो आज भी बरहम नहीं है

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है

बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है

तक़ाज़े क्यूँ करूँ पैहम न साक़ी
किसे याँ फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम नहीं है

उधर मश्कूक है मेरी सदाक़त
इधर भी बद-गुमानी कम नहीं है

मिरी बर्बादियों का हम-नशीनो
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है

अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं
अभी तो आँख भी पुर-नम नहीं है

ब-ईं सैल-ए-ग़म ओ सैल-ए-हवादिस
मिरा सर है कि अब भी ख़म नहीं है

'मजाज़' इक बादा-कश तो है यक़ीनन
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है

सयुंक्त परिवार

बहुत प्यार दुलार से चुना एकएक मोती
बना तब मेरे गले का हार
सभी रिश्तों को सहेज समेट कर
बन पाया सयुंक्त परिवार

जीवन ने सिखलाया था हमको
करना रिश्तों का मान सम्मान
बड़ो से बनी थी घर की छाया
बच्चों से बढ़ा था प्यार दुलार
ऐसा था सयुंक्त परिवार

दादा जी का अद्भुत ज्ञान
दादी का अनोखा दुलार
माँ पिता की लगे जब फटकार
दादी का आँचल बनजाय पतवार
मौसा मौसी सब चीज दिलावें
गोद उठा उठा कर पुचकारें
फूफा खूब घुमा कर लावें
बुआ रानी खूब लड्डू खिलावें
कहानी सुनाने को ताऊ ताई
सदा ही रहते थे तैयार
माँ पापा याद आते जब तब
पुस्तक बस्ते की हो दरकार
ऐसा होता था सयुंक्त परिवार

आज एकल परिवारों के बच्चों का
हाय ये कैसा है दुर्भाग्य
माँ पिता एक भाई यहॉ बहना
यही है इनका परिवार
चाचा ताऊ अतिथि हैं इनके
क्या ये जाने, क्या होता है सयुंक्त परिवार
भाभी के संग हंसी ठिठोली
भाई संग बांटे आचार विचार
चाचा चाची संग बीते प्यारे वो दिन
समझाते रिश्तों का अद्भुत संसार

बड़ा सा होता था एक बरामदा
अम्मा की खटिया बीचों बीच
सबके हाथों में एक एक प्याली
बहनें बनाती गरमागरम पकौड़ी
ऐसे होता था संध्या का सत्कार
यही तो था सयुंक्त परिवार

बड़ी सी होती थी एक रसोई
बहुएं बनाती थी प्रेमसे दालभात
बातें करते, हंसते मुस्कुराते
दुःख सुख सारे यूहीं बांटे जाते
नाकुछ मेरा नाकुछ तेरा
ये सिखलाते सयुंक्त परिवार ll

वीराना शायरी

हर सम्त है वीरानी सी वीरानी का आलम
अब घर सा नज़र आने लगा है मिरा घर भी
- बिस्मिल आग़ाई


कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
- मिर्ज़ा ग़ालिब



हमें इस तरह ही होना था आबाद
हमारे साथ वीराने लगे हैं
- बकुल देव


बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत वहशत की है धूप 'ज़िया'
चारों जानिब वीरानी है दिल का इक वीराना क्या
- अहमद ज़िया



बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
इक शख़्स सारे शहर को वीरान कर गया
- ख़ालिद शरीफ़


इतनी सारी यादों के होते भी जब दिल में
वीरानी होती है तो हैरानी होती है
- अफ़ज़ल ख़ान

न हम वहशत में अपने घर से निकले
न सहरा अपनी वीरानी से निकला
- काशिफ़ हुसैन ग़ाएर


शायद यही जहाँ किसी मजनूँ का घर बने
वीराना भी अगर है तो वीराँ न कीजिए
- हफ़ीज़ जालंधरी

दूर तक कोई भी नहीं दिल में
आख़िरी शहर भी मिला वीरान
- स्वप्निल तिवारी


कितनी वीरानी है मेरे अंदर
किस क़दर तेरी कमी है मुझ में
- नाहीद विर्क

देखोगे तो आएगी तुम्हें अपनी जफ़ा याद

रोज़ बढ़ता हूं जहां से आगे
फिर वहीं लौट के आ जाता हूं
- कैफ़ी आज़मी 


देखोगे तो आएगी तुम्हें अपनी जफ़ा याद
ख़ामोश जिसे पाओगे ख़ामोश न होगा
- अंजुम रूमानी


रात कौन आया था
कर गया सहर रौशन
- मोहम्मद अल्वी

फ़राग़त से दुनिया में हर दम न बैठो
अगर चाहते हो फ़राग़त ज़ियादा
- अल्ताफ़ हुसैन हाली

तेरे साथ तेरी याद आई क्या तू सचमुच आई है

तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ ये कैसी तन्हाई है 
तेरे साथ तेरी याद आई क्या तू सचमुच आई है 

शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का 
मुझ को देखते ही जब उस की अंगड़ाई शर्माई है 

उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रिफ़ाक़त का एहसास 
जब उस के मल्बूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है 

हुस्न से अर्ज़-ए-शौक़ न करना हुस्न को ज़क पहुँचाना है 
हम ने अर्ज़-ए-शौक़ न कर के हुस्न को ज़क पहुँचाई है 


हम को और तो कुछ नहीं सूझा अलबत्ता उस के दिल में 
सोज़-ए-रक़ाबत पैदा कर के उस की नींद उड़ाई है 

हम दोनों मिल कर भी दिलों की तन्हाई में भटकेंगे 
पागल कुछ तो सोच ये तूने कैसी शक्ल बनाई है 

इश्क़-ए-पेचाँ की संदल पर जाने किस दिन बेल चढ़े 
क्यारी में पानी ठहरा है दीवारों पर काई है


हुस्न के जाने कितने चेहरे हुस्न के जाने कितने नाम 
इश्क़ का पेशा हुस्न-परस्ती इश्क़ बड़ा हरजाई है 

आज बहुत दिन बाद मैं अपने कमरे तक आ निकला था 
ज्यों ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है 

एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ 
वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है
-जौन एलिया 

प्रकृति की आगोश में हैं भांति भांति के रंग.

सदाबहार को देखकर हर मन में उठे उमंग.
प्रकृति की आगोश में हैं भांति भांति के रंग.
फूल सभी हर लेते हैं मनुजों का संताप.
खिलना उनका देखकर खुश होते हम आप.
उनसे मिलती सीख यह रहो प्रकृति के संग.
मौसम चाहे जो भी रहे कायम रहेगी उमंग.
वर्षा गरमी शीत सबका सह लेते वो प्रहार.
सारे जग को बांटते बस खुशियों का उपहार...

परवीन शाकिर शायरी

बाद मुद्दत उसे देखा...

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो
खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो
उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो
अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो
दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो. 


तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ...

तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ-साथ
बचपने का साथ, फिर एक से दोनों के दुख
रात का और मेरा आँचल भीगता है साथ-साथ
वो अजब दुनिया कि सब खंज़र-ब-कफ़ फिरते हैं और
काँच के प्यालों में संदल भीगता है साथ-साथ
बारिशे-संगे-मलामत में भी वो हमराह है
मैं भी भीगूँ, खुद भी पागल भीगता है साथ-साथ
लड़कियों के दुख अजब होते हैं, सुख उससे अज़ीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ
बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा किसान
जिस्म और इकलौता कंबल भीगता है साथ-साथ.
 
तुझसे तो कोई गिला नहीं है...

तुझसे तो कोई गिला नहीं है
क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है
बिछड़े तो न जाने हाल क्या हो
जो शख़्स अभी मिला नहीं है
जीने की तो आरज़ू ही कब थी
मरने का भी हौसला नहीं है
जो ज़ीस्त को मोतबर बना दे
ऎसा कोई सिलसिला नहीं है
ख़ुश्बू का हिसाब हो चुका है
और फूल अभी खिला नहीं है
सहशारिए-रहबरी में देखा
पीछे मेरा काफ़िला नहीं है
इक ठेस पे दिल का फूट बहना
छूने में तो आबला नहीं है
गिला=शिकायत; सिला=सफलता; ज़ीस्त=जीवन; मोतबर=विश्वसनीय; सरशारिए-रहबरी=नेतृत्व के पूर्ण हो जाने पर; आबला=छाला

हमारे दरमियाँ ...

हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंज़ीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के तबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाये तो
पूरा तसर्रुफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की


प्यार ..

अब्र-ए-बहार ने
फूल का चेहरा
अपने बनफ़्शी हाथ में लेकर
ऐसे चूमा
फूल के सारे दुख
ख़ुशबू बन कर बह निकले हैं.

बस इतना याद है ...

दुआ तो जाने कौन-सी थी
ज़ह्‍न में नहीं
बस इतना याद है
कि दो हथेलियाँ मिली हुई थीं
जिनमें एक मेरी थी
और इक तुम्हारी.

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी...

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
सुपुर्द कर के उसे चांदनी के हाथों
मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी
वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी
वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी
बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी
अब उस का फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुन्गुनाऊँगी
[मनसूब= जुडा हुआ]
जवज़ ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उस को भूल जाऊँगी
[जवज़=कारण]
सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी.

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ।

ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कुचे, ये गलियां, ये मंजर दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ।

~ साहिर लुधियानवी 

परवीन शाकिर शायरी

बाद मुद्दत उसे देखा...

बाद मुद्दत उसे देखा, लोगो
वो ज़रा भी नहीं बदला, लोगो
खुश न था मुझसे बिछड़ कर वो भी
उसके चेहरे पे लिखा था लोगो
उसकी आँखें भी कहे देती थीं
रात भर वो भी न सोया, लोगो
अजनबी बन के जो गुजरा है अभी
था किसी वक़्त में अपना, लोगो
दोस्त तो खैर, कोई किस का है
उसने दुश्मन भी न समझा, लोगो
रात वो दर्द मेरे दिल में उठा
सुबह तक चैन न आया, लोगो. 


तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ...

तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ-साथ
बचपने का साथ, फिर एक से दोनों के दुख
रात का और मेरा आँचल भीगता है साथ-साथ
वो अजब दुनिया कि सब खंज़र-ब-कफ़ फिरते हैं और
काँच के प्यालों में संदल भीगता है साथ-साथ
बारिशे-संगे-मलामत में भी वो हमराह है
मैं भी भीगूँ, खुद भी पागल भीगता है साथ-साथ
लड़कियों के दुख अजब होते हैं, सुख उससे अज़ीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ
बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा किसान
जिस्म और इकलौता कंबल भीगता है साथ-साथ.
 
तुझसे तो कोई गिला नहीं है...

तुझसे तो कोई गिला नहीं है
क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है
बिछड़े तो न जाने हाल क्या हो
जो शख़्स अभी मिला नहीं है
जीने की तो आरज़ू ही कब थी
मरने का भी हौसला नहीं है
जो ज़ीस्त को मोतबर बना दे
ऎसा कोई सिलसिला नहीं है
ख़ुश्बू का हिसाब हो चुका है
और फूल अभी खिला नहीं है
सहशारिए-रहबरी में देखा
पीछे मेरा काफ़िला नहीं है
इक ठेस पे दिल का फूट बहना
छूने में तो आबला नहीं है
गिला=शिकायत; सिला=सफलता; ज़ीस्त=जीवन; मोतबर=विश्वसनीय; सरशारिए-रहबरी=नेतृत्व के पूर्ण हो जाने पर; आबला=छाला

हमारे दरमियाँ ...

हमारे दरमियाँ ऐसा कोई रिश्ता नहीं था
तेरे शानों पे कोई छत नहीं थी
मेरे ज़िम्मे कोई आँगन नहीं था
कोई वादा तेरी ज़ंज़ीर-ए-पा बनने नहीं पाया
किसी इक़रार ने मेरी कलाई को नहीं थामा
हवा-ए-दश्त की मानिन्द
तू आज़ाद था
रास्ते तेरी मर्ज़ी के तबे थे
मुझे भी अपनी तन्हाई पे
देखा जाये तो
पूरा तसर्रुफ़ था
मगर जब आज तू ने
रास्ता बदला
तो कुछ ऐसा लगा मुझ को
के जैसे तूने मुझ से बेवफ़ाई की


प्यार ..

अब्र-ए-बहार ने
फूल का चेहरा
अपने बनफ़्शी हाथ में लेकर
ऐसे चूमा
फूल के सारे दुख
ख़ुशबू बन कर बह निकले हैं.

बस इतना याद है ...

दुआ तो जाने कौन-सी थी
ज़ह्‍न में नहीं
बस इतना याद है
कि दो हथेलियाँ मिली हुई थीं
जिनमें एक मेरी थी
और इक तुम्हारी.

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी...

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
सुपुर्द कर के उसे चांदनी के हाथों
मैं अपने घर के अंधेरों को लौट आऊँगी
बदन के कर्ब को वो भी समझ न पायेगा
मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी
वो क्या गया के रफ़ाक़त के सारे लुत्फ़ गये
मैं किस से रूठ सकूँगी किसे मनाऊँगी
वो इक रिश्ता-ए-बेनाम भी नहीं लेकिन
मैं अब भी उस के इशारों पे सर झुकाऊँगी
बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद
वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाऊँगी
अब उस का फ़न तो किसी और से मनसूब हुआ
मैं किस की नज़्म अकेले में गुन्गुनाऊँगी
[मनसूब= जुडा हुआ]
जवज़ ढूंढ रहा था नई मुहब्बत का
वो कह रहा था के मैं उस को भूल जाऊँगी
[जवज़=कारण]
सम'अतों में घने जंगलों की साँसें हैं
मैं अब कभी तेरी आवाज़ सुन न पाऊँगी.