Wednesday, June 24, 2020

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं...

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं...


लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं
रुह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं

रुह क्या होती है इससे उन्हें मतलब ही नहीं
वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं
रुह मर जाती है तो ये जिस्म है चलती हुई लाश
इस हक़ीक़त को न समझते हैं न पहचानते हैं
कितनी सदियों से ये वहशत का चलन जारी है
कितनी सदियों से है क़ाएम ये गुनाहों का रिवाज
लोग औरत की हर इक चीख़ को नग़्मा समझे
वो क़बीलों का ज़माना हो कि शहरों का रिवाज
जब्र से नस्ल बढ़े ज़ुल्म से तन मेल करें
ये अमल हम में है बे-इल्म परिन्दों में नहीं
हम जो इनसानों की तहज़ीब लिए फिरते हैं
हमसा वहशी कोई जंगल के दरिन्दों में नहीं
इक बुझी रुह लुटे जिस्म के ढाँचे में लिए
सोचती हूँ मैं कहाँ जा के मुक़द्दर फोड़ूँ
मैं न ज़िन्दा हूँ कि मरने का सहारा ढूँढ़ूँ
और न मुर्दा हूँ कि जीने के ग़मों से छूटूँ
कौन बतलाएगा मुझ को किसे जा कर पूछूँ
ज़िन्दगी क़हर के साँचों में ढलेगी कब तक
कब तलक आँख न खोलेगा ज़माने का ज़मीर
ज़ुल्म और जब्र की ये रीत चलेगी कब तक.


कह दूँ तुम्हें,या चुप रहूँ..
कह दूँ तुम्हें
या चुप रहूँ
दिल में मेरे आज क्या है
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ
दिल में मेरे आज क्या है
जो बोलो तो जानूँ गुरू तुमको मानूँ
चलो ये भी वादा है
कह दूँ तुम्हें...
सोचा है तुमने कि चलते ही जाएँ
तारों से आगे कोई दुनिया बसाएँ
तो तुम बताओ
सोचा ये है कि तुम्हें रस्ता भुलाएँ
सूनी जगह पे कहीं छेड़ें सताएँ
हाय रे ना ना
ये ना करना
अरे नहीं रे नहीं रे नहीं रे नहीं रे नहीं नहीं
कह दूँ तुम्हें...
सोचा है तुमने कि कुछ गुनगुनाएँ
मस्ती में झूमें ज़रा धूमें मचाएँ
तो तुम बताओ ना
सोचा ये है कि तुम्हें नज़दीक लाएँ
फूलों से होंठों की लाली चुराएँ
हाय रे ना ना
ये ना करना
अरे नहीं रे नहीं रे नहीं रे नहीं रे नहीं नहीं
कह दूँ तुम्हें...


किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है...

किसी पत्थर की मूरत से मुहब्बत का इरादा है
परस्तिश की तमन्ना है, इबादत का इरादा है
किसी पत्थर की मूरत से ...
जो दिल की धड़कनें समझे न आँखों की ज़ुबाँ समझे
नज़र की गुफ़्तगू समझे न जज़बों का बयाँ समझे
उसी के सामने उसकी शिक़ायत का इरादा है
किसी पत्थर की मूरत से ...
मुहब्बत बेरुख़ी से और भड़केगी वो क्या जाने
तबीयत इस अदा पे और फड़केगी वो क्या जाने
वो क्या जाने कि अपना किस क़यामत का इरादा है
किसी पत्थर की मूरत से ...
सुना है हर जवाँ पत्थर के दिल में आग होती है
मगर जब तक न छेड़ो, शर्म के पर्दे में सोती है
ये सोचा है की दिल की बात उसके रूबरू कह दे
नतीजा कुच भी निकले आज अपनी आरज़ू कह दे
हर इक बेजाँ तक़ल्लुफ़ से बग़ावत का इरादा है
किसी पत्थर की मूरत से ...

तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले...

तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले
अपने पे भरोसा है तो ये दाँव लगा ले
डरता है ज़माने की निगाहों से भला क्यों
इन्साफ़ तेरे साथ है इल्ज़ाम उठा ले
क्या ख़ाक वो जीना है जो अपने ही लिए हो
ख़ुद मिट के किसी और को मिटने से बचा ले
टूटे हुए पतवार हैं किश्ती के तो ग़म क्या
हारी हुई बाहों को ही पतवार बना ले.

साहिर लुधियानवी 

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