Sunday, June 14, 2020

इश्क़ मंज़िल ही मंज़िल है रस्ता नहीं

क्या हुआ हुस्न है हम-सफ़र या नहीं 
इश्क़ मंज़िल ही मंज़िल है रस्ता नहीं 

दो परिंदे उड़े आँख नम हो गई 
आज समझा कि मैं तुझ को भूला नहीं 

तर्क-ए-मय को अभी दिन ही कितने हुए 
कुछ कहा मय को ज़ाहिद तो अच्छा न

हर नज़र मेरी बन जाती ज़ंजीर-ए-पा 
उस ने जाते हुए मुड़ के देखा नहीं 

छोड़ भी दे मिरा साथ ऐ ज़िंदगी 
मुझ को तुझ से नदामत है शिकवा नहीं 

तू ने तौबा तो कर ली मगर ऐ 'ख़ुमार' 
तुझ को रहमत पे शायद भरोसा नहीं 

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