Thursday, June 25, 2020

सोचता हूँ कभी कागज़ों में समेट लूँ तुम्हें

सोचता हूँ कभी कागज़ों में समेट लूँ उन्हें I
हर जुबां से निकले अल्फाजों की याद बना लूँ मैं I
ऐसी क्या हिमाकत हो गयी हमसे
उन्हें हमारी याद तक नहीं आती I
सोचता हूँ किताबो से शुरू हुए
सिल सिले को किताबें भेजकर ही
अपनी याद दिला दूँ I
सोचता हूँ कभी कागज़ों में समेट लूँ उन्हें I
फिर लगता हैं कि वो देखें तक नहीं
पर ये दिल है मानता ही नहीं
लेकिन तुम कभी सोचना की
यह सही था या नहीं
दोस्ती से शुरू इस रिश्ते को
खत्म करना सही था या नहीं
कभी दोस्ती में महजब को
लाना सही था या नहीं
आज भी सोचता हूं
तुम्हारा आना और जाना सही था या नहीं

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