Thursday, June 25, 2020

अपनी बदनसीबी की सबसे सख़्त सज़ा

अक्सर ये ख्याल मेरे दिल में आता है
अपनी बदनसीबी की सबसे सख़्त सज़ा
मुफ़लिस शख़्स ही क्यों पाता है

क्या उसको नहीं ये हक
एहतराम ए जीस्त जीने का

मुद्दतों से ये क़ायदा इस ज़माने का रहा है
जो जितना है तंगदस्त
उसने उतना ज़ुल्म सहा है

हुकूमतों के दिए फरमानों के नतीजन
घर से बेघर, भूख प्यास से बेहाल
रहमतों के उजालों को तरसते
महफूज़ पनाहों को पाने को बेचैन
अजनबी राहों पर चलते
लोगों के हुजूमों को जब देखता हूं
तो मन ही मन ये सोचता हूं
मेरे देश के हुक्मरानों की तकरीरों में
कई झूठे वादों की ही तरह
इन शिकस्ता हाल आवाम के हालातों का ज़िक्र
क्यों नहीं

क्या एक आरामदेह और
सुकून की ज़िंदगी जीने का अधिकार
इन मजलूमों से इस कदर मेहरूम रहेगा

नाउम्मीदी और आफत के इस दौर में
यहीं मेरी गुज़ारिश ए दिल है
वक़्त के दिए इन बेरहम घावों की चारागरी हो
ज़िंदगी तेरे दिए इम्तहानों का इख्तियाम हो
और जो थकी निगाहें है उम्मीद ए रोशनी को मुंतजिर
उनको उनका आफताब मिले

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