असुलझे सवालों सी हो गयी है ज़िन्दगी।
संतुष्टि से सिवा सब कुछ मिल रहा है यहाँ,
फिर भी उलझनों के जंजालों सी हो गयी है ज़िन्दगी।
क्या करें, क्या न करें? इसी में उलझ के रह गये;
ये खुश रहे, वो बुरा ना माने; इसी में फंस के रह गये।
समाज के नियमों ने इस कदर जकड़ा है हमें,
कि आधार बिना ईमारत सी हो गयी है ज़िन्दगी।
हर एक को खुश रखना मुमकिन नहीं यहाँ,
पर अब अंतर्मन की ध्वनि इंसान सुनता है कहाँ।
इसी उम्मीद में वर्तमान को जलाकर कर रहे हैं रोशनी,
कि आज थोड़ा सह ले कल जी लेंगे ज़िन्दगी।।
पर क्या वो कल आएगा???
कल भी तो फिर वर्तमान बन जायेगा!
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