Wednesday, June 24, 2020

मुसाफिर हूँ मैं रुकना जनता ही नहीं

मुसाफिर हूँ मैं रुकना जनता ही नहीं
शायद इस लिए मुझे कोई अपना मानता ही नहीं

बहुत घूमी दुनिया
दोस्त भी बहुत बनाये
पर कभी वो मिलने ही न आये

देखता हुँ मैं जब रुक के
तस्वीरे तो है बहुत
पर उन तस्वीरै में कोई नहीं

खाली पड़ा है ये आईना
मां तेरी बिंदी कही नहीं
न मैज पे पापै की डायरी कहीं

इन जूतो में खूब देखी दुनिया
पर उस पापा की फट फटिया का मजा कहां
ना मिली माँ की दाल घूम आया मैं नैनीताल

लौटने का मान तो बहुत करता है
पर मैं लौटु कहां
कौन है मेरा यहां

झूठी लगती है पूरी दुनिया
माँ तेरे बिना कौन है यहाँ
तेरे बिना कौन है यहाँ

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