मयस्सर न हुई, जिंदगी की शाम आ गयी,
जिसे भी समझा, सुकूने-दिल का ज़रिया,
हर शख्सियत,जरूरतें मानिंद रह गयी,
रस्में-वफ़ा महज़ अलफ़ाजो का इत्तेफाक है,
वफ़ा अदायगी तो मन बहलाने का ज़रिया रह गयी,
अब जो मिले, उसे वैसे ही निभा
ये बेनूरी ही, अब तेरा वज़ूद बन गयी..
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