Wednesday, May 6, 2020

ये पत्थर अपना सा है।

ये हसरत ,ये शीशे का घर अपना सा है,
उसने उछाला होगा ये पत्थर अपना सा है।

किसी ग़ैर की क्या हिम्मत जो हमला कर दे,
ख़ुशबू अपनों की है ये ख़ंजर अपना सा है।

कल भी दीप बुझे थे फिर से चलीं हवाएं,
ये बात पुरानी है पर ये मंज़र अपना सा है।

वो क़तरा क़तरा प्यासा है ये बात अलग है,
मैं सोचूँ अगर तो एक समन्दर अपना सा है।

मुद्दत का तो सफ़र हुआ फिर कहाँ आ गया,
छत ही नहीं सारा दीवारों दर अपना सा है।

कल लूट के जो बस्ती गये वो देखो वो बैठे,
दुश्मन तो सारे हैं मगर रहबर अपना सा है।

'दोस्त' मानो ना मानो मगर दिल में कहता है,
चादर की तो ख़बर नहीं बिस्तर अपना सा है।

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