Saturday, May 2, 2020

अकबर इलाहाबादी की शायरी और शेर

हंगामा है क्यूं बरपा...
हंगामा है क्यूं बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है
ना-तजुर्बाकारी से, वाइज़ की ये बातें हैं
इस रंग को क्या जाने, पूछो तो कभी पी है
उस मय से नहीं मतलब, दिल जिस से है बेगाना
मक़सूद है उस मय से, दिल ही में जो खिंचती है
वां दिल में कि दो सदमे,यां जी में कि सब सह लो
उन का भी अजब दिल है, मेरा भी अजब जी है
हर ज़र्रा चमकता है, अनवर-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है, कि हम हैं तो ख़ुदा भी है
सूरज में लगे धब्बा, फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हम को कहें काफ़िर, अल्लाह की मर्ज़ी है.
वाइज़ : धार्मिक उपदेश देने वाला
उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है...
उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर
तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर
न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर
हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर
निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर.
मौत आई इश्क़ में...
मौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गई
निकली बदन से जान तो कांटा निकल गया
बाज़ारे-मग़रिबी की हवा से ख़ुदा बचाए
मैं क्या, महाजनों का दिवाला निकल गया.
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए...
हर क़दम कहता है तू आया है जाने के लिए
मंज़िल-ए-हस्ती नहीं है दिल लगाने के लिए
क्या मुझे ख़ुश आए ये हैरत-सरा-ए-बे-सबात
होश उड़ने के लिए है जान जाने के लिए
दिल ने देखा है बिसात-ए-क़ुव्वत-ए-इदराक को
क्या बढ़े इस बज़्म में आँखें उठाने के लिए
ख़ूब उम्मीदें बंधीं लेकिन हुईं हिरमाँ नसीब
बदलियाँ उट्ठीं मगर बिजली गिराने के लिए
साँस की तरकीब पर मिट्टी को प्यार आ ही गया
ख़ुद हुई क़ैद उस को सीने से लगाने के लिए
जब कहा मैं ने भुला दो ग़ैर को हँस कर कहा
याद फिर मुझ को दिलाना भूल जाने के लिए
दीदा-बाज़ी वो कहाँ आँखें रहा करती हैं बंद
जान ही बाक़ी नहीं अब दिल लगाने के लिए
मुझ को ख़ुश आई है मस्ती शेख़ जी को फ़रबही
मैं हूँ पीने के लिए और वो हैं खाने के लिए
अल्लाह अल्लाह के सिवा आख़िर रहा कुछ भी न याद
जो किया था याद सब था भूल जाने के लिए
सुर कहाँ के साज़ कैसा कैसी बज़्म-ए-सामईन
जोश-ए-दिल काफ़ी है अकबर तान उड़ाने के लिए.
हाले दिल सुना नहीं सकता ...
हाले दिल सुना नहीं सकता
लफ़्ज़ मानी को पा नहीं सकता
इश्क़ नाज़ुक मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता
होशे-आरिफ़ की है यही पहचान
कि ख़ुदी में समा नहीं सकता
पोंछ सकता है हमनशीं आँसू
दाग़े-दिल को मिटा नहीं सकता
मुझको हैरत है इस कदर उस पर
इल्म उसका घटा नहीं सकता.
कोई हंस रहा है कोई रो रहा है...
कोई हंस रहा है कोई रो रहा है
कोई पा रहा है कोई खो रहा है
कोई ताक में है किसी को है गफ़लत
कोई जागता है कोई सो रहा है
कहीं नाउम्मीदी ने बिजली गिराई
कोई बीज उम्मीद के बो रहा है
इसी सोच में मैं तो रहता हूं 'अकबर'
यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है.
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना...
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना
ये तर्ज़ एहसान करने का तुम्हीं को ज़ेब देता है
मरज़ में मुब्तला कर के मरीज़ों को दवा देना
बलाएँ लेते हैं उन की हम उन पर जान देते हैं
ये सौदा दीद के क़ाबिल है क्या लेना है क्या देना
ख़ुदा की याद में महवियत-ए-दिल बादशाही है
मगर आसां नहीं है सारी दुनिया को भुला देना.
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं...
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं
बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूं
ज़िंदा हूं मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर-चंद कि हूं होश में हुश्यार नहीं हूं
इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बे-लौस
साया हूं फ़क़त नक़्श-ब-दीवार नहीं हूं
अफ़्सुर्दा हूं इबरत से दवा की नहीं हाजत
ग़म का मुझे ये ज़ोफ़ है बीमार नहीं हूं
वो गुल हूं ख़िज़ाँ ने जिसे बर्बाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूं
या रब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूं
गो दावा-ए-तक़्वा नहीं दरगाह-ए-ख़ुदा में
बुत जिस से हों ख़ुश ऐसा गुनहगार नहीं हूं
अफ़्सुर्दगी ओ ज़ोफ़ की कुछ हद नहीं 'अकबर'
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दीं-दार नहीं हूं.

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