Sunday, March 22, 2020

किस के लिए ज़िंदा हूं बता भी नहीं सकता

वसीम बरेलवी
क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
आंसू की तरह आंख तक आ भी नहीं सकता

तू छोड़ रहा है तो ख़ता इस में तिरी क्या
हर शख़्स मिरा साथ निभा भी नहीं सकता

प्यासे रहे जाते हैं ज़माने के सवालात
किस के लिए ज़िंदा हूं बता भी नहीं सकता

घर ढूंढ़ रहे हैं मिरे रातों के पुजारी
मैं हूं कि चराग़ों को बुझा भी नहीं सकता

वैसे तो इक आंसू ही बहा कर मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता

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