Wednesday, March 18, 2020

हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

बा-हज़ारां इज़्तिराब ओ सद-हज़ारां इश्तियाक़
तुझ से वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है

बार बार उठना उसी जानिब निगाह-ए-शौक़ का
और तिरा ग़ुर्फ़े से वो आंखें लड़ाना याद है

तुझ से कुछ मिलते ही वो बेबाक हो जाना मिरा
और तिरा दांतों में वो उंगली दबाना याद है

खींच लेना वो मिरा पर्दे का कोना दफ़अ'तन
और दुपट्टे से तिरा वो मुंह छुपाना याद है

जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो कुछ तुम को भी वो कार-ख़ाना याद है

ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तिरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है

आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्र-ए-फ़िराक़
वो तिरा रो रो के मुझ को भी रुलाना याद है

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है

आज तक नज़रों में है वो सोहबत-ए-राज़-ओ-नियाज़
अपना जाना याद है तेरा बुलाना याद है

मीठी मीठी छेड़ कर बातें निराली प्यार की
ज़िक्र दुश्मन का वो बातों में उड़ाना याद है

देखना मुझ को जो बरगश्ता तो सौ सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है

बेरुखी के साथ सुनना दर्द-ए-दिल की दास्तां
और कलाई में तेरी वो कंगन घुमाना याद है

चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

शौक़ में मेहंदी के वो बे-दस्त-ओ-पा होना तिरा
और मिरा वो छेड़ना वो गुदगुदाना याद है

बावजूद-ए-इद्दिया-ए-इत्तिक़ा 'हसरत' मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो फ़साना याद है! 

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