Monday, March 16, 2020

इश्क़ और हौसलों की हलचल शायरी

शहरयार 
शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को 
मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को 


सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का 
यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का 
आज की रात भी दरवाज़ा खुला रक्खूँगा... 
तेरे वादे को कभी झूट नहीं समझूँगा 
आज की रात भी दरवाज़ा खुला रक्खूँगा 

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है 
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है 
या अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हम को... 
या तेरे अलावा भी किसी शय की तलब है 
या अपनी मोहब्बत पे भरोसा नहीं हम को 
मोहम्मद रफ़ी सौदा
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे 
तब मैं ने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधे 

न कर 'सौदा' तू शिकवा हम से दिल की बे-क़रारी का 
मोहब्बत किस को देती है मियाँ आराम दुनिया में 
 
लहू में ग़र्क़ सफ़ीना हो आश्नाई का... 
गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का 
लहू में ग़र्क़ सफ़ीना हो आश्नाई का 

साक़ी गई बहार रही दिल में ये हवस 
तू मिन्नतों से जाम दे और मैं कहूँ कि बस 
आग़ाज़ का अंजाम क्या होगा... 
तिरा ख़त आने से दिल को मेरे आराम क्या होगा 
ख़ुदा जाने कि इस आग़ाज़ का अंजाम क्या होगा 
राहत इंदौरी
शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम 
आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे 


आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो 
ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो
मगर नाटक पुराना चल रहा है... 
बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर 
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ  

नए किरदार आते जा रहे हैं 
मगर नाटक पुराना चल रहा है 
अँधेरे में निकल पड़ता है... 
रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है 
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है 
 
वसीम बरेलवी
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता 
तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता 

तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों 
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है 
हर शख़्स तुम्हारी ही तरफ़ देख रहा है... 
तुम मेरी तरफ़ देखना छोड़ो तो बताऊँ 
हर शख़्स तुम्हारी ही तरफ़ देख रहा है 

तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं 
कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा 
चराग़ों का सफ़र कितना है... 
रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी 
देखना ये है चराग़ों का सफ़र कितना है 
शकील बदायुनी
चाहिए ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल 
हौसला किस का बढ़ाता है कोई 

उन का ज़िक्र उन की तमन्ना उन की याद 
वक़्त कितना क़ीमती है आज कल 
गिरफ़्तार कर के छोड़ दिया... 
मुझे तो क़ैद-ए-मोहब्बत अज़ीज़ थी लेकिन 
किसी ने मुझ को गिरफ़्तार कर के छोड़ दिया 

जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का 'शकील' 
मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया
कुछ बात है जो शाम पे रोना आया...  
यूँ तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है 
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया  

No comments: