Sunday, March 15, 2020

मैं कुछ बतलाऊँ - विरह की कविता


मैं कुछ बतलाऊँ.
इस व्यथित मन की
अपंग अभिलाषा तुम संग बैठ दोहराऊँ.
मेरे निस्तेज नयनों में
यूँ चमक का आ जाना
क्या इशारा नहीं कुछ पाने का
इन निस्पंदन अधरों पर आहट
और कलियों का यूँ चटक जाना
क्या संकेत नहीं तेरे आने का
है उड़ती धूल तुम्हारी ही
कहकर मैं इस मन को बहलाऊँ.
साँझ ढ़ले वो तारे हुए तो
हर भोर का वो फूल बने
मेरा अतरंग साथी वो ही
अब मेरे ह्रदय का शूल बने
विरह-वेदना के दंश
हर पल मैं चुपचाप सहलाऊँ.

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