जब कहीं किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीख़ती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब –
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है
~धूमिल
सन्नाटा टूटता है
गूंगे के मुंह से उत्तर फूटता है
'कविता क्या है?
कोई पहनावा है?
कुर्ता-पाजामा है ?'
'ना, भाई, ना,
कविता-शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफनामा है।'
'क्या व्यक्तित्व बनाने की-
चरित्र चमकाने की-
खाने-कमाने की-
चीज है?'
ना, भाई, ना,
कविता
भाषा में
आदमी होने की तमीज है
~धूमिल
कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
कभी हमारे सामने
कभी हमसे पहले
कभी हमारे बाद
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
भाषा में उसका बयान
जिसका पूरा मतलब है सचाई
जिसका पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान
उसे कोई हड़बड़ी नहीं
कि वह इश्तहारों की तरह चिपके
जुलूसों की तरह निकले
नारों की तरह लगे
और चुनावों की तरह जीते
वह आदमी की भाषा में
कहीं किसी तरह ज़िन्दा रहे, बस
~कुंवर नारायण
भूख, ख़ूँरेज़ी, ग़रीबी हो मगर
आदमी के सृजन की ताक़त
इन सबों की शक्ति के ऊपर
और कविता सृजन की आवाज़ है.
फिर उभरकर कहेगी कविता
"क्या हुआ दुनिया अगर मरघट बनी,
अभी मेरी आख़िरी आवाज़ बाक़ी है,
हो चुकी हैवानियत की इन्तेहा,
आदमीयत का अभी आगाज़ बाकी है !
लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देती हूँ,
नया इतिहास देती हूँ !
~धर्मवीर भारती
आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर आज मैंने शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी-सी बच्ची आई,किलक मेरे कन्धे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्त तक पूरा गान किया
आज फिर जीवन शुरू हुआ ।
~रघुवीर सहाय
शब्द जो राजाओं की घाटी में नाचते हैं
जो माशूक की नाभि का क्षेत्रफल मापते हैं
जो मेजों पर टेनिस-बॉल की तरह लुढ़कते हैं
जो मंचों की खारी धरती में उगते हैं–
कविता नहीं होते।
~पाश
कविता के कान हमेशा चीख़ से
सटे रहते हैं !
नहीं; एक शब्द बनने से पहले
मैं एक सूरत बनना चाहता हूँ
मैं थोड़ी दूर और-और आगे
जाना चाहता हूँ
जहाँ हवा काली है । जीने का
ज़ोख़म है । सपनों का
वयस्क लोकतन्त्र है । आदमी
होने का स्वाद है ।
~धूमिल
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