Monday, March 23, 2020

वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो

यूं ही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो
- बशीर बद्र


लौट गईं सब आवाज़ें
तुम भी अपने घर जाओ
- सालेह नदी

बंद पड़े हैं शहर के सारे दरवाज़े
ये कैसा आसेब अब घर घर लगता है
- कृष्ण कुमार तूर


दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगे
इक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे
- इशरत क़ादरी


ये कह के दिल ने मिरे हौसले बढ़ाए हैं
ग़मों की धूप के आगे ख़ुशी के साए हैं
- माहिर-उल क़ादरी

वक़्त की गर्दिशों का ग़म न करो
हौसले मुश्किलों में पलते हैं
- महफूजुर्रहमान आदिल


हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएंगे
- बिस्मिल अज़ीमाबादी

इतना भी ना-उमीद दिल-ए-कम-नज़र न हो
मुमकिन नहीं कि शाम-ए-अलम की सहर न हो
- नरेश कुमार शाद


इन्हीं ग़म की घटाओं से ख़ुशी का चाँद निकलेगा
अंधेरी रात के पर्दे में दिन की रौशनी भी है
- अख़्तर शीरानी

No comments: