जो तअल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं
इसलिए तो हवा अपने घर नहीं जाती
कि उसके बाद ये गलियां उजड़ने लगती हैं
कभी तस्वीर की सूरत भी निकल आएगी
सादा काग़ज़ पे लकीरें तो लगा दी जाएं
कौन सी मंजिल पे आ कर रुक गए अपने क़दम
कारवां पीछे है गर्द-ए-कारवां है सामने
पस्ती में गिरा मैं तो ख़याल आया ये मुझ को
शाख़ों से फूल नहीं बुलंदी से झड़े हैं
न जाने तुम्हें कब फ़ुरसत मिलेगी आने की
तुम्हारे आने के दिन तो गुज़रते जाते हैं
ये दुकानें तो उन्हें रोकती रह जाती हैं
जाने क्यों लोग गुज़र जाते हैं बाज़ारों से
तेरे लिए चराग़ धरे हैं मुंडेर पर
तू भी अगर हवा की मिसाल आ गया तो बस
मेरे आंसू मेरे अन्दर ही गिरे
रोने से जी औऱ बोझल हो गया
हमें पछाड़ के क्या हैसियत तुम्हारी थी
वो जंग तुम भी न जीते जो हमने हारी थी
शायर - अब्बास ताबिश
किताब - रक़्स जारी है
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