रात रोज़ आई गुज़रने के लिए,
सपने भी लाई बहलने के लिए।
यूँही हर दिन तमाम होता रहा,
वक़्त आता नहीं टिकने के लिए।
रहगुज़र पर तो पाँव चलते रहे,
एक मंज़िल दे ठहरने के लिए।
हमको मालूम है उसकी फ़ितरत,
वादा करते हैं मुकरने के लिए।
आईना उम्र भी बताता है,
ये नहीं सिर्फ सँवरने के लिए।
किसलिए बैठ गए साहिल पर,
उतरिए पार उतरने के लिए।
पत्ते मत नोचें शजर से,
ज़र्द होने दें बिखरने के लिए।
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