वक्त में इतनी बनावट आ गयी,
कि उम्र से पहले नज़ाकत आ गयी ।
धूप ओसारे चढ़ी, परबत हुई,
छाँव में फिर-फिर नफासत आ गई ।
रूठना-रोना असल कुछ भी नहीं,
दरअसल उनको सियासत आ गयी ।
इस क़दर कुछ दर्द सीने में उठा,
कि होंठ पर उनके इबादत आ गयी ।
उनके आने पर मुझे लगता है अब,
फिर कोई ज़िन्दा कयामत आ गयी ।
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