मयकश होना भी है इक किरदार मिरा,
रोज साँझ को लगता है दरबार मिरा।
मिलने जुलने वाले फिर-फिर पूछे हैं,
नाम मिरा, पदनाम मिरा, घरबार मिरा।
सुबह—सवेरे, टूटा—टूटा रहता हूँ,
साँझ हुए जग उट्ठे है फनकार मिरा।
बाहर बाहर माना कि है तिमिर बहुत,
लेकिन शहरे-दिल तो है गुलजार मिरा।
गली–गली बस्ती-बस्ती में चौतरफा,
क्या जाने चस्पा है इश्तिहार मिरा।
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