मन, तू पार उतर कहँ जैहौ।
आगे पंथी पंथ न कोई, कूच-मुकाम न पैहौ।
नहिं तहँ नीर, नाव नहि खेवट, ना गुन खैंचन हारा।
धरनी-गगन-कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार न पारा।
नहिं तन, नहिं मन, नहीं अपनपौ सुन्न में सुद्ध न पैहौ।
बलीवान होय पैठो घट में, वाहीं ठौरें होइहौ।
बार हि बार विचार देख मन, अंत कहूँ मत जैहौ।
कहैं कबीर सब छाड़ि कलपना, ज्यों के त्यों ठहरैहौ॥
भावार्थ:-
ऐ मेरे दिल, तू पार उतरकर कहाँ जाएगा। तेरे सामने न तो कोई राही है न कोई रास्ता। न कोई प्रस्थान है न पड़ाव। वहाँ न तो पानी है, न कोई नाव, न खेवनहार। नाव को बाँधने के लिए रस्सी भी नहीं है और कोई उसे किनारे खींचने वाला नहीं है। पृथ्वी, आकाश, काल कुछ भी नहीं है। आर-पार कुछ नहीं है। न तन है, न मन, न कोई ऐसी जगह जहाँ आत्मा की प्यास बुझ सके। शून्य के निर्जन विस्तार में कुछ भी तो नहीं है। हिम्मत से काम ले और अपने घट में प्रवेश कर वहीं कोई ठौर-ठिकाना मिलेगा। अच्छी तरह सोच ले, ऐ मन, कहीं और न जाना। कबीर कहते हैं कि कल्पना को छोड़-छाड़कर अपने अस्तित्व में लीन हो जा।
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