वक़्त से लम्हा लम्हा खेली है,
ज़िन्दगी एक अजब पहेली है.
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कुछ तो है बात जो आती है कज़ा रूक रूक के,
ज़िन्दगी क़र्ज़ है किस्तों में अदा होती है.
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कभी खोले तो कभी ज़ुल्फ़ को बिखराए है,
ज़िन्दगी शाम है और शाम ढली जाए है.
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बहुत अज़ीज़ थी ये ज़िन्दगी मगर हम लोग,
कभी कभी तो किसी आरज़ू में मर भी गए.
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एक एक कदम पे रक्खी है यूं ज़िन्दगी की लाज,
गम का भी ऐहतराम किया है ख़ुशी के साथ.
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कभी आंखों पे कभी सर पे बिठाये रखना,
ज़िन्दगी तल्ख़ सही दिल से लगाए रखना.
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