“मन में पैठा चोर, अँधेरी तारों की बारात हुई ,
बिना घुटन के बोल न निकले, यह भी कोई बात हुई ,
धीरे-धीरे तल्ख़ अँधेरा, फैल गया, ख़ामोशी है ,
आओ ख़ुसरो लौट चलें घर, इस नगरी में रात हुई..!”
(विजयदेव नारायण साही)
आशु तो कुछ भी नहीं आसूँ के सिवा, जाने क्यों लोग इसे पलकों पे बैठा लेते हैं।
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