Saturday, February 29, 2020

इश्क है या इबादत

तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं... 
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं 
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं 

फ़िराक़ गोरखपुरी

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के 
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के 
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ...
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ 
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ 
अहमद फ़राज़  


किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम 
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ 
अहमद फ़राज़ 
वर्ना हम भी आदमी थे काम के... 
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया 
वर्ना हम भी आदमी थे काम के 
मिर्ज़ा ग़ालिब

ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम 
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं 

इमाम बख़्श नासिख़
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता... 
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा 
किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता 

वसीम बरेलवी


ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं 
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है 
बशीर बद्र
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे... 
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें 
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें 
अहमद फ़राज़


अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे 
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे 
वसीम बरेलवी
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है... 
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का 
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले 
मिर्ज़ा ग़ालिब

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले 
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है 
अल्लामा इक़बाल
आगे आगे देखिए होता है क्या... 
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा 
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं 
मिर्ज़ा ग़ालिब


राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या 
आगे आगे देखिए होता है क्या 
मीर तक़ी मीर
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं...
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम 
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती 

अकबर इलाहाबादी

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं 
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं 
अल्लामा इक़बाल
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई... 
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने 
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई 
मुज़फ़्फ़र रज़्मी


हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले 
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले 

मिर्ज़ा ग़ालिब
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है...
उस की याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो 
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है 
राहत इंदौरी


इन्हीं पत्थरों पे चल कर अगर आ सको तो आओ 
मिरे घर के रास्ते में कोई कहकशाँ नहीं है 
मुस्तफ़ा ज़ैदी
अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ... 
अच्छा ख़ासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ 
अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ 
अनवर शऊर

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