Wednesday, September 30, 2020

जुल्म शायरी

हज़ारों ज़ुल्म हों मज़लूम पर तो चुप रहे दुनिया 
अगर मज़लूम कुछ बोले तो दहशत-गर्द कहती है 
-ज़मीर अतरौलवी


ज़ुल्म सहना भी तो ज़ालिम की हिमायत ठहरा 
ख़ामुशी भी तो हुई पुश्त-पनाही की तरह 
-परवीन शाकिर


कुछ ज़ुल्म ओ सितम सहने की आदत भी है हम को 
कुछ ये है कि दरबार में सुनवाई भी कम है 
-ज़िया ज़मीर

बे-वज्ह ज़ुल्म सहने की आदत नहीं रही 
अब हम को दुश्मनों की ज़रूरत नहीं रही 
- सलमान अख़्तर

मुख़्तसर सी ज़िंदगी में बस ख़िलिश गिनते रहे।

मुख़्तसर सी ज़िंदगी में बस ख़िलिश गिनते रहे।
अच्छे दिन थे फिर भी गर्दिश गिनते रहे।।

चाहता है यह पागल प्यार,अनोखा एक नया संसार!

चाहता है यह पागल प्यार,
अनोखा एक नया संसार!

कलियों के उच्छवास शून्य में तानें एक वितान,
#तुहिन-कणों पर मृदु कंपन से सेज बिछा दें गान;

जहां सपने हों पहरेदार,
अनोखा एक नया संसार !

करते हों आलोक जहां बुझ बुझ कर कोमल प्राण,
जलने में विश्राम जहां मिटने में हों निर्वाण;

वेदना मधु मदिरा की धार,
अनोखा एक नया संसार !


मिल जावे उस पार क्षितिज के सीमा सीमाहीन,
गर्वीले नक्षत्र धरा पर लोटें होकर दीन !

उदधि हो नभ का शयनगार,
अनोखा एक नया संसार !
जीवन की अनुभूति तुला पर अरमानों से तोल,
यह अबोध मन मूक व्यथा से ले पागलपन मोल !

करें दृग आँसू का व्यापार,
अनोखा एक नया संसार! 

-महादेवी वर्मा 

तुहिन - 1. हिम; तुषार 2. ओस कण 3. ज्योत्स्ना; चाँदनी, शीत; ठंडक।  

Tuesday, September 29, 2020

मुश्किल वक़्त तो अब आया है

सब आसान हुआ जाता है 
मुश्किल वक़्त तो अब आया है 

जिस दिन से वो जुदा हुआ है 
मैं ने जिस्म नहीं पहना है 

कोई दराड़ नहीं है शब में 
फिर ये उजाला सा कैसा है 


बरसों का बछड़ा हुआ साया 
अब आहट ले कर लौटा है 

अपने आप से डरने वाला 
किस पे भरोसा कर सकता है 

एक महाज़ पे हारे हैं हम 
ये रिश्ता क्या कम रिश्ता है 


क़ुर्ब का लम्हा तो यारों को 
चुप करने में गुज़र जाता है 

सूरज से शर्तें रखता हूँ 
घर में चराग़ नहीं जलता है 

दुख की बात तो ये है 'दोस्त' 
उस का वहम भी सच निकला है 

तेरी जुदाई से मेरे सीने में जलन है

तेरी जुदाई से मेरे सीने में जलन है,
पहना मैंने ग़मों का कफन है।
जल गया मेरी खुशियों का बाग़,
जो बचा बस तन्हाई का चमन है।
इश्क-ओ-मुहब्बत के लिए सब बेचैन है,
कौन समझाए इन्हें इसमें ना सुकून ना चैन है।
एक पल में बदल जाती है दिल की दुनिया,
जब होता नयन का नयन से चयन है।
ये दरिया, ये समंदर, ये रवानी ये जवानी,
ना संभाली जाए, बंद कर तूफान चले पवन है।
जो होश ग़वा बैठे हैं सनम बेवफा के लिए,
 उन्हीं के दामन में गमों का आगमन है।

कभी हम महक जाते है, कभी बहक जाते हैं!

मिलावट है तेरे ईश्क में इत्र और शराब की, 
कभी हम महक जाते है, कभी बहक जाते हैं! 

मेरे उम्र का बेहतरीन हिस्सा है

मेरे रोने का जिस में क़िस्सा है
उम्र का बेहतरीन हिस्सा है
- जोश मलीहाबादी

बेहतर दिनों की आस लगाते हुए 'हबीब'
हम बेहतरीन दिन भी गँवाते चले गए
- हबीब अमरोहवी

जब आ जाती है दुनिया घूम फिर कर अपने मरकज़ पर 
तो वापस लौट कर गुज़रे ज़माने क्यूँ नहीं आते 
- इबरत मछलीशहरी

सब कुछ तो है क्या ढूँडती रहती हैं निगाहें 
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता 
- निदा फ़ाज़ली

दर्द को दिल में जगह दो अकबर 
इल्म से शायरी नहीं होती 
-अकबर इलाहाबादी 

फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं 
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं 
-दाग़ देहलवी  

लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले 
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले 
-शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है 
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने 
-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

घर लौट के रोएँगे माँ बाप अकेले में 
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में 
-क़ैसर-उल जाफ़री

लहू न हो तो क़लम तर्जुमाँ नहीं होता 
हमारे दौर में आँसू ज़बाँ नहीं होता 
-वसीम बरेलवी

मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है 
मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है 
- दाग़ देहलवी

'वसीम' सदियों की आँखों से देखिए मुझ को
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता
-वसीम बरेलवी

तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो 
तुम को देखें कि तुम से बात करें 
- फ़िराक़ गोरखपुरी

ग़ैरों से कहा तुम ने ग़ैरों से सुना तुम ने 
कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता 
- चराग़ हसन हसरत

Monday, September 28, 2020

मैं बेकसूर हूं इल्ज़ाम थोपा गया है

मैं बेकसूर हूं इल्ज़ाम थोपा गया है
दिले गुलिस्तान में बबूल रोपा गया है

मैं तो जुगनू हूं मुझे अंधेरों से प्यार है
मुझपर दावा ए आफताब ठोका गया है

लहू के रंग से जाहिर है हम सब एक हैं
जाने क्यों खंजर ए नफरत घोंपा गया है

ग़म की घड़ी को भी ख़ुशी से गुज़ार दे &..

उन्हें ये फिक्र है हर दम नई तर्ज़ ऐ जफा क्या है, 
हमें ये शौक है देखें सितम की इम्तिहाँ क्या है! 
-भगत सिंह 

दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे 
जो ग़म की घड़ी को भी ख़ुशी से गुज़ार दे 
-दाग़ देहलवी

सजाकर मैयते उम्मीद नाकामी के फूलों से 
किसी बेदर्द ने रख दी मेरे टूटे हुए दिल में 


छेड़ ना ऐ फरिश्ते तू ज़िक्रे ग़मे जानाना
क्यूं याद दिलाते हो भूला हुआ अफ़साना 
 
नशा पिला के गिराना तो सबको आता है
मज़ा तो जबकि गिरतों को थाम ले साक़ी
- ग़ालिब 


कहूं किससे मैं कि क्या है, शबे ग़म बुरी बला है 
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता 
- ग़ालिब

न पूछ 'इक़बाल' का ठिकाना अभी वही कैफ़ियत है उस की 
कहीं सर-ए-राहगुज़ार बैठा सितम-कश-ए-इंतिज़ार होगा 
- अल्लामा इक़बा

रहेगी आबोहवा में ख़याल की बिजली
ये मुश्त ख़ाक है फ़ानी रहे रहे न रहे ।
-बृज नारायण चकबस्त

ख़ुदा के आशिक़ तो हैं हज़ारों बनों में फिरते हैं मारे मारे 
मैं उस का बंदा बनूँगा जिस को ख़ुदा के बंदों से प्यार होगा 
-अल्लामा इक़बाल

मैं वो चिराग हूं जिसको फरोगेहस्ती में 
करीब सुबह रौशन किया, बुझा भी दिया 

औरों का है पयाम और मेरा पयाम और है 
इश्क़ के दर्द-मंद का तर्ज़-ए-कलाम और है 
- अल्लामा इक़बाल

तुझे शाख-ए-गुल से तोड़ें ज़हे-नशीब तेरे
तड़पते रह गए गुलज़ार में रक़ीब तेरे

जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे 
क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और 
-मिर्ज़ा ग़ालिब

वहीं बैठे रहो, बस दूर ही से बात करते हैं 
जफ़ा कैसी, वफ़ा से भी तुम्हारी हम तो डरते हैं

दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं 
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाए क्यूँ 
-मिर्ज़ा ग़ालिब

आह करूं तो जग जले, और जंगल भी जल जाए 
पापी जियरा न जले जिसमें आह समाए 

आज क्यों परवा नहीं अपने असीरों की तुझे 
कल तलक तेरा भी दिल महरो वफ़ा का बाब था 

बेटी शायरी

मुस्कुराता देख बेटी को मैंने पूछ लिया?
कहने लगी पापा ने मुझको बेटा कहा है.

“महक, मोहब्बत और बेटियाँ
कब वहाँ रूकती जहाँ वो पलती हैं
घर में संगीत बजता है हर पल
बेटियाँ पाज़ेब पहनकर चलती हैं
रौनक़ घर में बेटियों से ही होती है
मौजूदगी से वो घरों को रोशन करती हैं

खुद की बहन-बेटी को इज्जत से देखने वाले,
दूसरों के बहन-बेटियों की इज्जत के बनों रखवाले।

हर परिवार के कुल को बढ़ाती है बेटियां,
फिर भी पैरों तले कुचल दी जाती है बेटियां।

ना जाने ये कैसे लोग है
जो बेटियों को कोख में ही मरवाते है,
ऐसा लगता है ऐसे गिरे हुए लोग
किसी पुरूष की कोख से जन्म लेकर आते है.

माँ-बाप की एक आह पर छुप-छुप कर रोती है बेटियां,
फिर भी आज के दौर में गर्भ में जान खोती है बेटियां।

वो लड़के अपनी पुरषार्थ को क्या दिखा पाएंगे,
जो लड़कियों को इज्जत से नहीं देख पाएंगे।

खिलती हुई कलियाँ हैं बेटियाँ,
माँ-बाप का दर्द समझती हैं बेटियाँ,
घर को रोशन करती हैं बेटियाँ,
लड़के आज हैं तो आने वाला कल हैं बेटियाँ.

बेटी भार नही है आधार,
जीवन हैं उसका अधिकार,
शिक्षा हैं उसका हथियार
बढ़ाओ कदम, करो स्वीकार.

बेटे भाग्य से होते हैं
पर बेटियाँ सौभाग्य से होती हैं.

जरूरी नही रौशनी चिरागों से ही हो,
बेटियाँ भी घर में उजाला करती हैं.

जिस घर मे होती है बेटियां
रौशनी हरपल रहती है वहां
हरदम सुख ही बरसे उस घर
मुस्कान बिखेरे बेटियां जहाँ.

सब ने पूछा बहु दहेज़ में क्या-क्या ले आई,
किसी ने ना पूछा बेटी क्या-क्या छोड़ आई.

एक मीठी सी मुस्कान हैं बेटी,
यह सच है कि मेहमान हैं बेटी,
उस घर की पहचान बनने चली
जिस घर से अनजान हैं बेटी.

बिटिया मेरी कहती बाहें पसार
उसको चाहिए बस प्यार-दुलार,
उसकी अनदेखी करते हैं सब
क्यों इतना निष्ठुर ये संसार.

ख़ुश्बू बिखेरती फूल है बेटी,
इंद्रधनुष का सुंदर रूप है बेटी,
सुरों को सुंदर बनाने वाली साज है बेटी
हकीकत में इस धरती का ताज है बेटी।

बिन बिटिया के कैसे बसेगा घर-परिवार
कैसे आएगी खुशियाँ कैसे बढेगा संसार
गर्भ से लेकर यौवन तक बस उस पर
लटक रही है हरदम तलवार.

मातृशक्ति यदि नही बची तो
बाकी यहाँ रहेगा कौन?
प्रसव वेदना, लालन-पालन
सब दुःख-दर्द सहेगा कौन?
मानव हो तो दानवता को
त्यागो फिर ये उत्तर दो इस
नन्ही से जान के दुश्मन को
इंसान कहेगा कौन?

बेटा अंश हैं तो बेटी वंश हैं,
बेटा आन हैं तो बेटी शान हैं.

लक्ष्मी का वरदान हैं बेटी,
धरती पर भगवान हैं बेटी.

माँ-बाप के जीवन में ये दिन भी आता हैं,
जिगर का टुकड़ा ही एक दिन दूर हो जाता हैं.

बेटी बचाओ और जीवन सजाओ,
बेटी पढ़ाओ और ख़ुशहाली बढ़ाओ.

किस्मत वाले है वो लोग
जिन्हें बेटियां नसीब होती है
ये सच है कि उन लोगों को
रब की मोहब्बत नसीब होती है.

धन पराया होकर भी
बेटी होती नहीं पराई
इसीलिए बिन रोये माँ-बाप
बेटी की करते नहीं विदाई.

बेटियाँ सब के मुक़द्दर में कहाँ होती हैं,
घर खुदा को जो पसंद आये वहाँ होती हैं.

हर शख़्स मुझे जिंदगी जीने का
सलीका सिखाता है,
कैसे कहूँ इक ख़्वाब अधूरा है मेरा
वरना जीना तो मुझे भी आता है.

हमेशा खुद को मजबूत दिखाते है पापा,
बिदाई के समय ऐसा लगा जैसे
जी भर कर रोना चाहते है पापा।

बेटी हूँ आपकी अब पत्नी का
फर्ज निभाने जा रही हूँ मैं,
एक अंजान रिश्तें के ख़ातिर
आपका दामन छोड़ कर जा रही हूँ मैं.

तकलीफ़ कितनी भी हो उफ़ नहीं कहती,
ऐसा दर्द तो केवल बेटी ही है सहती.

बेटी को मत समझो भार,
जीवन का हैं ये आधार.

बेटी है कुदरत का उपहार,
जीने का इसको दो अधिकार.

बेटे अक्सर चले जाते हैं माँ-बाप का दिल तोड़कर,
बेटियाँ तो गुजारा कर लेती हैं टूटी पायल जोड़कर.

हर बेटी की यही कहानी है,
शादी के बाद कई नये रिश्तें निभानी है.

पराया होकर भी कभी पराई नही होती,
शायद इसलिए
कभी पिता से हँसकर बेटी की बिदाई नही होती.

मुझे पापा से ज्यादा शाम अच्छी लगती हैं,
क्योकि पापा तो सिर्फ खिलौने लाते हैं
पर शाम तो पापा को लाती हैं.

बेटियों की बदौलत ही आबाद है घर-परिवार,
अगर न होती बेटियाँ तो थम जाता यह संसार.

ये आंधियां अब मेहरबान नहीं होगी,
दिए की लौ को बढ़ाना होगा,
इससे पहले की सारी कश्तियां
डूब जाएँ बेटियों को बचाना होगा।

अहसासों की सेज सजी है,
यादो का फ़साना है,
अपने घर को छोड़कर
साजन के घर जाना है.

क्या कहती हो ठहरो नारी
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से-सपने।

माँ जन्म देती है,
दादी कहानी सुनाती है,
बहन राखी बांधती है,
पत्नी जीवनभर साथ निभाती है
नारी के बिना जिंदगी कहाँ होती है.

क्यों ऐसे मायूस और कमजोर बनी हुई है,
उठ खड़ी हो नारी, तेरे साथ खड़ी है ये दुनिया सारी।

चेहरे पर आती है एक अलग ही मुस्कान,
जब बेटी बढ़ाती है माता-पिता की शान,
अपनी मंजिल की ओर बढ़ने का मिला तुम्हें सम्मान
तुम से ही बनी रहेगी तुम्हारे माता-पिता की पहचान।

बेटियों के पास भी पंख होते है
कभी उनके अरमान देखों,
एक मौका और थोड़ा सा हौसला दो
फिर उसकी ऊँची उड़ान देखो।

बेटी की हर ख्वाहिश पूरी नहीं होती
फिर भी बेटिया कभी भी अधूरी नहीं होती

जागरूक बनिए, सोच बदलिये और यही है सही.
जो पैसे मांगते है उन्हें भीख दीजिये… बेटी नहीं।

अगर बेटी की शादी न हो उसकी रजा से,
तो बेटी की जिंदगी कम नहीं होती है किसी सजा से.

बेटियां दिल में बसकर धड़कनों को धड़काती है,
और माँ-बाप के जीने की वजह बन जाती हैं.

माँ-बाप का हमेशा ख्याल बेटियां रखती है,
फिर क्यों परी-सी बेटी कोख में ही मरती है.

लड़कियों के अरमानों को चूल्हें में झोकने की,
अब तुम्हारी औकात नहीं होगी इन्हें रोकने की.

बेटी होने का कर्ज चुकाया,
अब बहू होने का फर्ज निभा रही है,
आज भी कहीं किसी कोने में वो
छुपकर अपने सारे ख़्वाब छुपा रही है.

दहेज़ जैसे बुरे रस्मों-रिवाज और यह दुनियादारी,
वरना किस माँ-बाप को अपनी बेटी नहीं होती है प्यारी।

मानवता का खून जो कोख में बहाओगे,
बेटियां नहीं होंगी तो बहू कहाँ से लाओगे।

बेटी हूँ इसलिए गर्भ में ही मेरा कत्ल कर दिया,
ना जाने क्यों खुदा ने तुम्हे माँ बनने का हक दिया।

बेटी हो या बहू अपनी मुस्कान से
घर में उजाला कर देती है,
सारे गमों को अपने दामन में समेट कर
खुशियों से वो आंगन भर देती है.

बेटी के दिल में माँ-बाप के तस्वीर बड़े होते हैं,
क्योंकि हर सुख-दुःख में बेटी के साथ खड़े होते हैं.

कोई नजराना देता है कोई सम्मान देता है,
मगर बेटी का बाप जो कन्यादान देता है,
न कोई दान है ऐसा चाहे कितना भी हो पैसा
इक बेटी का बाबुल तुम्हें अपनी जान देता है.

बेटियों से ही सृष्टि है ये भेष है,
फिर क्यों बेटियों से इतना द्वेष है.


Sunday, September 27, 2020

गांव में हरे-भरे वृक्षों से

गांव में हरे-भरे वृक्षों से कुछ मुझको शिकवा शिकायत थी
बिना स्वार्थ के सबको सुख दे क्या उसकी यही रियासत थी
वो कुल्हाड़ी की चोटों को कैसे अपनों से सह सकता है
जो पथिकों की थकान काट दे भला वो कैसे कट सकता है
कुछ सीखा है इन वृक्षों से, कुछ सीखना अभी भी बाकी है
शाख कटे तो कट जाने दे अभी झूमना दर्द में बाकी है
गांव की पुरवइया थपेड़ में सावन की बारिश आने दे
मिट्टी की भीनी खुशबू से उपवन मन का खिल जाने दे
मम्मी की लोरी हाथ की रोटी मुझसे कुछ कहना चाह रहीं
दुखती घावों पे ममता की मलहम फिर से बचपन मांग रही
मां की अभिलाषा यही रही कि हम ऊंचे कद पर हो जाएं
हमने भी चाहा बस ममता की डोर पकड़ कर उड़ जाएं
पापा की झप्पी बाग में पत्ती अब मुझको पास बुलाती है
उनके दिल में छिपे प्यार को ये दिल क्यों देख न पाती है
सालों से देख घर की दीवारें मेरे सारे राज जानती हैं
खिड़की खोल के दिल का हाल झांकने का मन ललचाती है
इस भीड़-भाड़ के मेले में ये शहर काटने को दौड़ पड़ा
मेले का खिलौना पापा का, बस उन यादों के दौर रही
पनघट पे बैठकर एक दो पत्थर फिर से फेंका मैं पानी में
बचपन की यादें ताजा हुईं मेरी उस दिन भरी जवानी में

अब कैसे उन्हें समझूं बेगाना

बरसों से जिन्हें अपना माना
अब कैसे उन्हें समझूं बेगाना

मैं अपनी अना में दूर हो गई
दिल को नागवार था दूर जाना

क़ाफ़िले में चल के मुमकिन नहीं
अपनी अलग पहचान बनाना

मुझे मग़रूर किया तिरे ग़ुरूर ने
मुझे आता था रिश्तों में झुक जाना

मुआफ़ करें मिन्नतें कर ना सकूंगी
अब बेहतर है तअल्लुक़ टूट जाना

तुम्हारे नाम की इक ख़ूब-सूरत शाम हो जाए

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाए 
चराग़ों की तरह आँखें जलें जब शाम हो जाए 

कभी तो आसमाँ से चाँद उतरे जाम हो जाए 
तुम्हारे नाम की इक ख़ूब-सूरत शाम हो जाए 

अजब हालात थे यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर 
मोहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाए 

समुंदर के सफ़र में इस तरह आवाज़ दे हम को 
हवाएँ तेज़ हों और कश्तियों में शाम हो जाए 

मुझे मालूम है उस का ठिकाना फिर कहाँ होगा 
परिंदा आसमाँ छूने में जब नाकाम हो जाए 

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो 
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए 

बशीर बद्र 

Saturday, September 26, 2020

कश्ती ऐ मय को हुक्म ओ रवानी भी भेज दो,

कश्ती ऐ मय को हुक्म ओ रवानी भी भेज दो,
जब आग भेजी है तो पानी भी भेज दो! 

रिश्ते निभाये जाते हैं

रिश्ते बनाये नहीं जाते
बस सिर्फ और सिर्फ निभाये जाते हैं
हर रिश्ते की एक अलग इम्तिहान
होती है
जिन्दा रखने के लिए उसकी एक
पहचान होती है
इन्सान जिन्दगी जीने के लिए
रिश्ते बनाता है
पर रिश्ते निभाते हुए मर जाता है
रिश्ते वहीं की वहीं रह जाते हैं
इन्सान आते हैं और चले जाते हैं
कठिन है रिश्तों की पहचान करना
पहचान है तो सरल है निभाना
रिश्तों को "मैं" नहीं पहचानता
"" मैं "" ही तो हूँ जो नहीं जानता
जिन रिश्तों के फूल घर आंगन
में खिलते थे
आज वो "लतायें" पूर्वाई* सूख गई
रहे सहे पत्तों को भी
"पिछवाई"उड़ा के ले गयी
रह गये बेचारे सूखे डंठल
कोई उनको छूता नहीं है
किसी ने नीचे गिर कर रगडन से
स्वयं को मिटा लिया
तो किसी ने स्वयं को बना लिया बंडल
कहते हैं कि रिश्ते मिट गये
सिर्फ सिमट कर रह गये
पर रिश्तों की जड़ें आज भी हैं
वो सूखी नहीं है
हरि हैं पर हरी नहीं हैं
रिश्तों को जिन्दा रखने के लिए
निभाना होगा
उन जड़ों को संस्कारी पानी से
सींचना होगा
और इसके लिए हमको
चन्दा मामा की कहानी सुनने
दादा दादी के पास बैठना ही होगा

हर पल तेरे दिल में रहकर, हम बहुत याद आएंगे

मौसम बदलना होता है,तो वह भी निशां दे जाते हैं
वो मेरे उन्स का कत्ल कर, खंजर भी छुपा जाते हैं

वह गुनाह भी करते हैं, हमें घायल भी कर जाते हैं
तो कभी प्यार से बोल कर,मरहम भी लगा जाते हैं

आंसुओं में तब्दील हो , हर गुनाह कबूल हो गई
हम दूर चले गए तो, उन्हें लगा उनसे भूल हो गई

जा रहा हूं दूर शायद, अब कभी मिल ना पाएंगे
हर पल तेरे दिल में रहकर, हम बहुत याद आएंगे

दूर होकर कर तुम हमें जो, बेहिसाब रुलाओगे
इन आंखों में जो आंसू हैं,तुम खुद ही डूब जाओगे

हम तो अकेले हो गए थे, तेरे जाने के बाद ही
तुम अकेले हो गए हो, महफिल पाने के बाद भी

जा हर गुनाह माफ किए, तुम मेरी मोहब्बत हो
नूर सा दिल साफ किए हम, तू मेरी इबादत हो

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा

बदनाम रहे बटमार* मगर, घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्हन सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा

दो दिन के रैन-बसेरे में, हर चीज़ चुराई जाती है
दीपक तो जलता रहता है, पर रात पराई होती है 

गलियों से नैन चुरा लाई, तस्वीर किसी के मुखड़े की
रह गये खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों ने लूटा

जुगनू से तारे बड़े लगे, तारों से सुंदर चाँद लगा
धरती पर जो देखा प्यारे, चल रहे चाँद हर नज़र बचा

उड़ रही हवा के साथ नज़र, दर-से-दर, खिड़की से खिड़की
प्यारे मन को रंग बदल-बदल, रंगीन इशारों ने लूटा

हर शाम गगन में चिपका दी, तारों के अधरों की पाती
किसने लिख दी, किसको लिख दी, देखी तो, कहीं नहीं जाती

कहते तो हैं ये किस्मत है, धरती पर रहने वालों की
पर मेरी किस्मत को तो, इन ठंडे अंगारों ने लूटा

जग में दो ही जने मिले, इनमें रूपयों का नाता है
जाती है किस्मत बैठ जहाँ, खोटा सिक्का चल जाता है

संगीत छिड़ा है सिक्कों का, फिर मीठी नींद नसीब कहाँ
नींदें तो लूटीं रूपयों ने, सपना झंकारों ने लूटा

वन में रोने वाला पक्षी, घर लौट शाम को आता है
जग से जाने वाला पक्षी, घर लौट नहीं पर पाता है

ससुराल चली जब डोली तो, बारात दुआरे तक आई
नैहर को लौटी डोली तो, बेदर्द कहारों ने लूटा

गोपाल सिंह नेपाली की कविता: मेरी दुल्हन

बटमार 1. रास्ते में राहगीरों या यात्रियों को लूटने वाला व्यक्ति या गिरोह; ठग; दस्यु 2. छापामार; कज़्ज़ाक।

वो चुप हो गए मुझ से क्या कहते कहते

वो चुप हो गए मुझ से क्या कहते कहते 
कि दिल रह गया मुद्दआ कहते कहते 

मिरा इश्क़ भी ख़ुद-ग़रज़ हो चला है 
तिरे हुस्न को बेवफ़ा कहते कहते 

शब-ए-ग़म किस आराम से सो गए हैं 
फ़साना तिरी याद का कहते कहते 

ये क्या पड़ गई ख़ू-ए-दुश्नाम तुम को 
मुझे ना-सज़ा बरमला कहते कहते 

ख़बर उन को अब तक नहीं मर मिटे हम 
दिल-ए-ज़ार का माजरा कहते कहते 

अजब क्या जो है बद-गुमाँ सब से वाइज़ 
बुरा सुनते सुनते बुरा कहते कहते 

वो आए मगर आए किस वक़्त 'हसरत' 
कि हम चल बसे मरहबा कहते कहते

उगते हुए सूर्य रश्मि को, सब प्रणाम करते हैं

पत्थर कभी टूट कर, दर दर की ठोकरें खाते हैं
कुछ टूट कर देवता बन,मंदिरों में पूजे जाते हैं

उगते हुए सूर्य रश्मि को, सब प्रणाम करते हैं
जाते हुए इंसान को , इंसान ही भूल जाते हैं

उग्र हुए मन में प्रश्न, हर पत्थरों से पूछते हुए
निरुत्तर थे सभी पाषाण, बस द्रोपती को देखते रहे

अर्जुन का हाथ कांप गया, हर रिश्ते को देखते हुए
आज खंजर घोंप दिया, हर रिश्ते में शत्रु कहते हुए

आंखों का पानी मर गया , शर्म हया भी कहीं सो गया है
दौलत की चाह में कहीं, हर रिश्ता भी अभी खो गया है

शमन कर उस कुविचार को, विवेक से विचार करते हुए
मनन कर उग्र सुविचार को, प्रेम भाव से तराशते हुए

ये सच है रंग बदलता था वो हर इक लम्हा

उसे गुमाँ है कि मेरी उड़ान कुछ कम है 
मुझे यक़ीं है कि ये आसमान कुछ कम है 
-नफ़स अम्बालवी

ये सच है रंग बदलता था वो हर इक लम्हा 
मगर वही तो बहुत कामयाब चेहरा था 
- अम्बर बहराईची

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज 
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं 
- मिर्ज़ा ग़ालिब


तू समझता है हवादिस हैं सताने के लिए 
ये हुआ करते हैं ज़ाहिर आज़माने के लिए 
- सय्यद सादिक़ हुसैन

हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ 
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही 
- साहिर लुधियानवी

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है 
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा 
- साहिर लुधियानवी


ये दुनिया नफ़रतों के आख़री स्टेज पे है 
इलाज इस का मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं है 
- चरण सिंह बशर

दिलों में हुब्ब-ए-वतन है अगर तो एक रहो 
निखारना ये चमन है अगर तो एक रहो 
- जाफ़र मलीहाबादी

सौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी 
तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी 
- जाँ निसार अख़्तर
ज़हर मीठा हो तो पीने में मज़ा आता है 
बात सच कहिए मगर यूँ कि हक़ीक़त न लगे 
- फ़ुज़ैल जाफ़री

धुआँ जो कुछ घरों से उठ रहा है 
न पूरे शहर पर छाए तो कहना 
- जावेद अख़्तर

नफ़रत के ख़ज़ाने में तो कुछ भी नहीं बाक़ी 
थोड़ा सा गुज़ारे के लिए प्यार बचाएँ 
- इरफ़ान सिद्दीक़ी

चाँद भी हैरान दरिया भी परेशानी में है 
अक्स किस का है कि इतनी रौशनी पानी में है 
- फ़रहत एहसास

उस ने वा'दा किया है आने का 
रंग देखो ग़रीब ख़ाने का 
- जोश मलीहाबादी

सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह 
कहता हूँ सच कि झूट की आदत नहीं मुझे 
- मिर्ज़ा ग़ालिब

सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइ'ज़ 
हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती 
- जिगर मुरादाबादी

बे-नाम से इक ख़ौफ़ से क्यों दिल है परेशां
जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा
- शहरयार  

बदन पे जिस के शराफ़त का पैरहन देखा

बदन पे जिस के शराफ़त का पैरहन देखा 
वो आदमी भी यहाँ हम ने बद-चलन देखा 

ख़रीदने को जिसे कम थी दौलत-ए-दुनिया 
किसी कबीर की मुट्ठी में वो रतन देखा 

मुझे मिला है वहाँ अपना ही बदन ज़ख़्मी 
कहीं जो तीर से घायल कोई हिरन देखा 


बड़ा न छोटा कोई फ़र्क़ बस नज़र का है 
सभी पे चलते समय एक सा कफ़न देखा 

ज़बाँ है और बयाँ और उस का मतलब और 
अजीब आज की दुनिया का व्याकरन देखा 


लुटेरे डाकू भी अपने पे नाज़ करने लगे 
उन्होंने आज जो संतों का आचरन देखा 

जो सादगी है कुहन में हमारे ऐ 'नीरज' 
किसी पे और भी क्या ऐसा बाँकपन देखा

बहुत मासूम हो तुम

बहुत मासूम हो तुम और ज़माना ज़ालिम
यूँ हर किसी ऐतबार किया न कीजिए
बहारें रूठ जाती हैं गुलशन से
यूँ जुल्फों को अपने चहरे पर बिखेरा मत कीजिए
धड़क उठता है मेरा तेरी एक आवाज़ से
यूँ अपने लबों से हमारा नाम पुकारा न कीजिए
खुद ज़फा ढा कर हम पे सितम कर के
यूँ हमको बेवफा कहा न कीजिए
बढ़ जाता है बज्म में आपके आने से
यूँ आँखों मे काजल लगाया न कीजिए

Friday, September 25, 2020

रहबर बनकर जिसकी हमने बरसों रहनुमाई की

तमाम उम्र हमने जिन्दगी से आशनाई की
मगर जिंदगी ने फिर भी हमसे बेवफाई की

उस शख्स से भी हमें सिर्फ धोखा ही मिला
रहबर बनकर जिसकी हमने बरसों रहनुमाई की

नफरतों के कारोबार में जमाने को जो नुकसान हुआ था
हमने उस नुकसान की फिर मुहब्बतों से भरपाई की

मुफलिसी से अपना अटूट रिश्ता शायद इसीलिए है
कि हमने कभी बेइमानी नहीं की सिर्फ नेक कमाई की

फंसा देख मेरी कश्ती को सैलाब में सब किनारा कर गए
'नामचीन' सिर्फ खुदा ने उस मुसीबत में मेरी हौंसला अफजाई की

फ़िज़ूल है !

यारों व्यर्थ में सपने सजाना फ़िज़ूल है !
आँधियों में दीपक जलाना फ़िज़ूल है !

न आता हो जिसको जीने का सलीका,
उसे हुनर जीने का बताना फ़िज़ूल है !

गर नहीं है आँखों में शर्मो हया का पानी,
उन पे खांमखां पर्दा लगाना फ़िज़ूल है !

जो जीते हैं अंधेरों के रहमो करम पर,
वास्ते ऐसों के शम्मा जलाना फ़िज़ूल है !

जहाँ गुलाब हैं वहां कांटें भी होंगे दोस्त,
फिर बागवां पे गुस्सा दिखाना फ़िज़ूल है !

हर किसी का होता तरीका अलग अलग,
यूं ही हर जगह टंगड़ी अड़ाना फ़िज़ूल है !

जो न समझे किसी की आफतों को कभी,
ऐसों को दास्ताँ अपनी सुनाना फ़िज़ूल है !

न मरता है साथ कोई भी किसी के 'मिश्र',
किसी के मोह में फंसना फ़साना फ़िज़ूल है !

यूं ही यादों में किसी के,खो गए हैं आजकल।

यूं ही यादों में किसी के,
खो गए हैं आजकल।
अपने जो थे अपने,
पराए हो गए हैं आजकल।।

ग़म नहीं मुझको है ये,
अपने,पराए क्यों हुए।
ग़म तो बस है एक ही,
किस बात से वो हो गए।।

कब कहां और क्यों मिले,
कुछ नहीं है याद हमको।
बस यही है याद मुझको,
राह में हम सब मिले थे।।

Thursday, September 24, 2020

वो अपना नहीं कोई पराया था

मुलाकातें जिससे कभी हुई नहीं
ख्वाबों में जो केवल उभरकर आया था
अनछुए एहसासों से जिसने
हृदय को हौले से सहलाया था
शख्स जो दिमाग से दिल में समाया था
वो अपना नहीं कोई पराया था

जुबां ने जिससे कुछ कहा नहीं
शब्दों से कभी परिचय हुआ ही नहीं
मन की गहराइयों में उतरता गया
खामोशियों में भी मेरे जो शोर करता रहा
शख्स जो दिमाग से दिल में समाया था
वो अपना नहीं कोई पराया था

छवि जिसकी धूमिल थी
पर आंखों से अमिट थी
शांत चित्त में मेरे जिसने ज्वार लाया था
धड़कनों को उसी ने जगाया था
शख्स जो दिमाग से दिल में समाया था
वो अपना नहीं कोई पराया था

जीवन की राहों में संभलने लगी थी
थोड़ा - थोड़ा मैं पिघलने लगी थी
रिश्ता न कोई तन से था
अपरिचित भी वह मन से था
शख्स जो दिमाग से दिल में समाया था
वो अपना नहीं कोई पराया था..

Wednesday, September 23, 2020

आप से दिल लगा के देख लिया

राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया 
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया 

और क्या देखने को बाक़ी है 
आप से दिल लगा के देख लिया 

वो मिरे हो के भी मिरे न हुए 
उन को अपना बना के देख लिया 

आज उन की नज़र में कुछ हम ने 
सब की नज़रें बचा के देख लिया 

'फ़ैज़' तकमील-ए-ग़म भी हो न सकी 
इश्क़ को आज़मा के देख लिया 

जी भर के जिंदगी जी है।

हम गौरवान्वित महसूस करते हैं कि ..
हमारी परवरिश में दादा दादी का हाथ था,
बड़े पापा बड़ी मम्मी की लाड - फटकार,
चाचा और बुआ का प्यारा साथ था,

हम गौरवान्वित महसूस करते हैं कि ...
हमारे सर पर नीम की ठंडी छांव थी,
बसंती हवा, कड़कती धूप , खुला आसमां
और लहलहाते खेतों का साथ था,

हम गौरवान्वित महसूस करते हैं कि ..
हम कच्ची पक्की सड़कों पर चले,
कभी गिरे कभी संभले ,
टेढ़े - मेढ़े पगडंडियों और मेड़ों पर चले,

हम गौरवान्वित महसूस करते हैं कि...
हम आंगन , खेत, खलिहान और अखाड़ों में खेले,
दोस्तों के मुंह का निवाला छीन कर खाए,
और उनके ही कपड़े में मेले घूम कर आए,

हम गौरवान्वित महसूस करते हैं कि...
हमने जमीन से जुड़ी जिंदगी जी हैं,
दिखावे से कोषों दूर सादगी जी हैं,
ना किसी को गिराया ना गिरने दिया,
यारों , हमने तो जी भर के जिंदगी जी है।

जरूरत शायरी

शायद उसे ज़रूरत हो अब पर्दे की
रौशनियाँ घर की मद्धम कर जाऊँ मैं
- शारिक़ कैफ़ी

अपनी उलझन को बढ़ाने की ज़रूरत क्या है 
छोड़ना है तो बहाने की ज़रूरत क्या है 
-नदीम गुल्लानी

बे-सबब बात बढ़ाने की ज़रूरत क्या है
हम ख़फ़ा कब थे मनाने की ज़रूरत क्या है
- शाहिद कबीर

ज़रूरत बे-ज़रूरत बोलती है
जहाँ दौलत हो दौलत बोलती है
- माजिद अली काविश

ये ज़रूरत है तो फिर इस को ज़रूरत से न देख
अपनी चाहत को किसी और की चाहत से न देख
- शाहिद कमाल

ग़ैर को दर्द सुनाने की ज़रूरत क्या है
अपने झगड़े में ज़माने की ज़रूरत क्या है
- अज्ञात

ख़ुद चराग़ों को अंधेरों की ज़रूरत है बहुत
रौशनी हो तो उन्हें लोग बुझाने लग जाएँ
- शबाना यूसुफ़

अम्न हर शख़्स की ज़रूरत है
इस लिए अम्न से मोहब्बत है
- अज्ञात

हर इक फ़साना ज़रूरत से कुछ ज़ियादा है
ग़म-ए-ज़माना ज़रूरत से कुछ ज़ियादा है
- अरशद लतीफ़

अब तो ख़ुद अपनी ज़रूरत भी नहीं है हम को
वो भी दिन थे कि कभी तेरी ज़रूरत हम थे
- ऐतबार साजिद

मुफ़्लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़ारों पे ये एलान किया जाए
- क़तील शिफ़ाई

ज़रूरत ढल गई रिश्ते में वर्ना
यहाँ कोई किसी का अपना कब है
- अता आबिदी

अगर इतनी मुक़द्दम थी ज़रूरत रौशनी की
तो फिर साए से अपने प्यार करना चाहिए था
- यासमीन हमीद

मिलते जुलते हैं यहाँ लोग ज़रूरत के लिए
हम तिरे शहर में आए हैं मोहब्बत के लिए
- अज़हर नवाज़

न चारागर की ज़रूरत न कुछ दवा की है
दुआ को हाथ उठाओ कि ग़म की रात कटे
- राजेन्द्र कृष्ण

Tuesday, September 22, 2020

तेरा अपना बड़ा भाई है।

जब मैं टोकता हूँ तो बुरा मान जाता है,
ना जाने कौन कौन सा ख्याल अपने मन में लाता है,
अब कैसे मैं समझाऊँ की मेरी बात मानने में ही तेरी भलाई है,
मेहनत करके ही लोगों ने बड़ी बड़ी मंजिलें पाई हैं,
अरे जो तुझको टोक रहा ना छोटे, कोई और नही तेरा अपना बड़ा भाई है।

कभी जो मन करे तो मुझको पढ़ भी लेना,
जो मन ना भरे कभी तो मुझसे लड़ भी लेना,
मगर जो बात मैं बोलूँ वो तू गाँठ बांध लेना,
अपने भविष्य के बारे में ग़ैरों से सलाह न लेना,
मैंने खुद तेरे लिए इक सीढ़ी बनाई है,
उस पर चढ़ जाने में ही तेरी भलाई है,
अरे ठोकर खा खा कर ही मुझको भी अक्ल आई है,
क्योंकि अपनों ने नहीं गैरों ने ही नैय्या डुबाई है।
जो तुझको समझा रहा ना छोटे, कोई और नहीं तेरा अपना बड़ा भाई है।

तुझको डांट लगाने से मेरा जी नहीं भरता,
इसका ये मतलब तो नहीं की मैं तुझको प्यार नहीं करता,
तू मुझसे छोटा है और प्यारा है,
थोड़ा नादान है थोड़ा अंजान है,
पर तू मेरा अभिमान है,
जानता हूँ की मेरा कुछ शब्द तुझको नहीं भाता,
पर मेरे भाई ये समय लौट कर वापस नहीं आता।
तू लड़ जितना लड़ सके, लड़ने में क्या बुराई है,
जो तेरे साथ खुद भी लड़ेगा ना छोटे, कोई और नहीं तेरा अपना बड़ा भाई है।।

आँगन शायरी

जिस की सौंधी सौंधी ख़ुशबू आँगन आँगन पलती थी
उस मिट्टी का बोझ उठाते जिस्म की मिट्टी गलती थी
- हम्माद नियाज़ी

आँगन आँगन ख़ाना-ख़राबी हँसती है मे'मारों पर
पत्थर की छत ढाल रहे हैं शीशे की दीवारों पर
- एज़ाज़ अफ़ज़ल

हर आँगन में दिए जलाना हर आँगन में फूल खिलाना
इस बस्ती में सब कुछ करना हम से मोहब्बत मत करना
- क़मर जमील


इक शजर ऐसा मोहब्बत का लगाया जाए 
जिस का हम-साए के आँगन में भी साया जाए 
- ज़फर ज़ैदी

शजर आँगन का जब सूरज से लर्ज़ां होने लगता था
कोई साया मिरे घर का निगहबाँ होने लगता था
- नश्तर ख़ानक़ाही

तेरा मेरा झगड़ा क्या जब इक आँगन की मिट्टी है
अपने बदन को देख ले छू कर मेरे बदन की मिट्टी है
- सरदार अंजुम


मन के आँगन में ख़यालों का गुज़र कैसा है
ये चहकता हुआ वीरान सा घर कैसा है
- मोनी गोपाल तपिश

ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
ये कैसे लोग हैं जिन को घरों से डर नहीं लगता
- सलीम अहमद

तुम आओ तो घर के सारे दीप जला दूँ लेकिन आज
मेरा जलता दिल ही अकेला दीप है मेरे आँगन का
- अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

तिरे आँगन में है जो पेड़ फूलों से लदा होगा
तिरे घर का जो रस्ता है बड़ा ही ख़ुशनुमा होगा
- शोभा कुक्कल

सलोनी शाम के आँगन में जब दो वक़्त मिलते हैं
भटकते हम से उन सायों में कुछ आधे अधूरे हैं
- दीपक क़मर

तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
मैं किसी धूप सा दालान में आ जाता हूँ
- ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क

हो गए आँगन जुदा और रास्ते भी बट गए
क्या हुआ ये लोग क्यूँ इक दूसरे से कट गए
- आनन्द सरूप अंजुम

सूना आँगन नींद में ऐसे चौंक उठा है
सोते में भी जैसे कोई सिसकी लेता है
- शारिक़ कैफ़ी

हम व तुम नहीं हैं किसी से अलग।

पड़ी बूँद धरा मुस्कुराने लगी ।
हर तरफ हरियाली छाने लगी ।।

हो गये ठूंठ नहीं बे सहारे ।
पाई आस कोपल आने लगी।।

उड़- उड़ आने य लगे हैं पंछी।
तितलियाँ भी मंडराने लगी।।

हम व तुम नहीं हैं किसी से अलग।
अधूरे हैं अब समझ आने लगी।।

डर शायरी

अब तो हर एक अदाकार से डर लगता है 
मुझ को दुश्मन से नहीं यार से डर लगता है 
-अफ़ज़ल इलाहाबादी

मैं डर रहा हूँ तुम्हारी नशीली आँखों से 
कि लूट लें न किसी रोज़ कुछ पिला के मुझे 
-जलील मानिकपूरी

तीर पर तीर लगाओ तुम्हें डर किस का है 
सीना किस का है मिरी जान जिगर किस का है 
-अमीर मीनाई


रफ़्ता रफ़्ता डर जाएँगे 
क़िस्तों में हम मर जाएँगे 

मैं ने चुग़ली खाई तो फिर 
दुश्मन भूखों मर जाएँगे 
-मुशताक़ सदफ़

सायों से भी डर जाते हैं कैसे कैसे लोग 
जीते-जी ही मर जाते हैं कैसे कैसे लोग 
-अकबर हैदराबादी


ज़िंदगी इक इम्तिहाँ है इम्तिहाँ का डर नहीं
हम अँधेरों से गुज़र कर रौशनी कहलाएँगे
- सरदार अंजुम

इश्क़ से मैं डर चुका था डर चुका तो तुम मिले 
दिल तो कब का मर चुका था मर चुका तो तुम मिले 
-औरंग ज़ेब

इतना सन्नाटा है बस्ती में कि डर जाएगा 
चाँद निकला भी तो चुप-चाप गुज़र जाएगा 
-क़ैसर-उल जाफ़री

एक डर सा लगा हुआ है मुझे 
वो बिना शर्त चाहता है मुझे 
-प्रखर मालवीय कान्हा

डर डर के जागते हुए काटी तमाम रात
गलियों में तेरे नाम की इतनी सदा लगी
- नोमान शौक़

नए मंज़र के ख़्वाबों से भी डर लगता है उन को
पुराने मंज़रों से जिन की आँखें कट चुकी हैं
- ख़ुशबीर सिंह शाद

जिस का डर था वही हुआ यारो
वो फ़क़त हम से ही ख़फ़ा निकला
- इंद्र सराज़ी

डर गया है जी कुछ ऐसा हिज्र से
तुम जो पहलू से उठे दिल हिल गया
- जलील मानिकपूरी

अब मुझे थोड़ी सी ग़फ़लत से भी डर लगता है
आँख लगती है कि दीवार से सर लगता है
- राणा गन्नौरी

डर हम को भी लगता है रस्ते के सन्नाटे से
लेकिन एक सफ़र पर ऐ दिल अब जाना तो होगा
- जावेद अख़्तर

Sunday, September 20, 2020

हर एक पंखुड़ी गुलाब की सी है

रेख्ते के तुम ही नहीं हो उस्ताद ग़ालिब, 
कहते हैं पिछले ज़माने में कोई मीर भी था.

 मीर तक़ी 'मीर'  की मशहूर शायरी....

1.हस्ती अपनी हबाबकी सी है ।
ये नुमाइश सराबकी सी है ।।
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए,
हर एक पंखुड़ी गुलाब की सी है ।

चश्म[5]-ए-दिल खोल इस आलम पर,
याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है ।
बार-बार उस के दर पे जाता हूँ,
हालत अब इज़्तिराब की सी है ।
नुक़्ता-ए-ख़ाल[8] से तिरा अबरू
बैत[10] इक इंतिख़ाबकी-सी है
मैं जो बोला कहा के ये आवाज़,
उसी ख़ाना ख़राब की सी है ।
आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद
देर से बू कबाब की-सी है ।
देखिए अब्र की तरह अब के
मेरी चश्म-ए-पुर-आब की-सी है ।
‘मीर’ उन नीमबाज़ आँखों में,
सारी मस्ती शराब की सी है .
इसे भी पढ़ें: उन से तन्हाई में बात होती रही, पढ़ें अनवर शऊर की रोमांटिक शायरी

2.पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश के बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मै-ओ-ख़ोर की तितली का तारा जाने है
आगे उस मुतक़ब्बर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद् ख़ुदा को वो मग़रूर ख़ुद-आरा जाने है
आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़िआँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है
चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है
क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्यद बच्चा
त'एर उड़ते हवा में सारे अपनी उसारा जाने है
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है
क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बेदिल बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है
आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा जाने है
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मूँह को ले है छिपा य'अनि
उन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है
तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है.

Saturday, September 19, 2020

हाल ऐ दिल शायरी

उसे समझने का कोई तो रास्ता निकले 
मैं चाहता भी यही था वो बेवफ़ा निकले 
-वसीम बरेलवी

हाल-ए-दिल हम भी सुनाते लेकिन 
जब वो रुख़्सत हुआ तब याद आया 
-नासिर काज़मी

तुम मुझे छोड़ के जाओगे तो मर जाऊँगा, 
यूं करो जाने से पहले मुझे पागल कर दो. 

हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं 
उम्रें बीत जाती हैं दिल को दिल बनाने में 
- बशीर बद्र

दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे 
जो रंज की घड़ी भी ख़ुशी से गुज़ार दे 
- दाग़ देहलवी

तुम ज़माने की राह से आए 
वर्ना सीधा था रास्ता दिल का 
- बाक़ी सिद्दीक़ी

दिया ख़ामोश है लेकिन किसी का दिल तो जलता है 
चले आओ जहाँ तक रौशनी मा'लूम होती है 
- नुशूर वाहिदी


आप दौलत के तराज़ू में दिलों को तौलें 
हम मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देते हैं 
- साहिर लुधियानवी

जाने वाले से मुलाक़ात न होने पाई 
दिल की दिल में ही रही बात न होने पाई 
- शकील बदायुन

अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आएगा कोई जाएगा 
तुम्हें जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो 
- बशीर बद्र

फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का 
न हो निगाह में शोख़ी तो दिलबरी क्या है 
- अल्लामा इक़बाल

दिल में न हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती 
ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती 
- निदा फ़ाज़ली

दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है 
किस की आहट सुनता हूँ वीराने में 
- गुलज़ार

दिल पे आए हुए इल्ज़ाम से पहचानते हैं 
लोग अब मुझ को तिरे नाम से पहचानते हैं 
- क़तील शिफ़ाई

आरज़ू तेरी बरक़रार रहे 
दिल का क्या है रहा रहा न रहा 
- हसरत मोहानी

ज़ख़्म कहते हैं दिल का गहना है 
दर्द दिल का लिबास होता है 
- गुलज़ार

दिल से तो हर मोआमला कर के चले थे साफ़ हम 
कहने में उन के सामने बात बदल बदल गई 
- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दिल तो मेरा उदास है 'नासिर' 
शहर क्यूँ साएँ साएँ करता है 
-नासिर काज़मी

ये दिल का दर्द तो उम्रों का रोग है प्यारे 
सो जाए भी तो पहर दो पहर को जाता है 
- अहमद फ़राज़

बात दिल की अब ज़ुबां तक वो कभी लाते नहीं..

बात दिल की अब ज़ुबां तक वो कभी लाते नहीं..
क्या छुपा है दिल में खुल कर राज़ बतलाते नहीं..(1)

किस ख़ता की दे रहे कैसी सज़ा वो आजकल..
जानें क्यूं मुझपर रहम थोड़ा सा भी खाते नहीं..(2)

दूं सदा किस दर पे जाकर मतलबी सारा जहां..
अजनबी रूहों के आबूदानें तो भाते नहीं..(3)

तुम ख़फा हो मुझसे या फिर माजरा कुछ और है..
ज़िंदगी के फलसफ़े मुझको समझ आते नहीं..(4)

याद जो आंऊ कभी तो क्या किया करते हो' तुम.?
रोते हो या आह भी लब पर कभी लाते नहीं.?(5)

कैसे सो जाते हो तुम मुझको बिना सोचे सनम..
हम तुम्हें सोचे बिना पलकें भी झपकाते नहीं..(6)

वास्ता किस का दें क्या कह कर बुलायें पास अब
रूठ कर जो बिछड़े वो वापिस कभी आते नहीं..!!(7)

Friday, September 18, 2020

अब नहीं आता बसंत

औरतों की ज़िंदगी में, अब नहीं आता बसंत,
मन में सपनों को, नहीं जगाता बसंत.
खूनी आंखों से जल , जाता है बसंत,
दु :शासनों से बहुत, घबराता है बसंत.

गौरी खेतों में , जाने से डरती है,
उसकी पायल भी, नहीं छनकती है.
नदियां सी भी अब, नहीं खिलखिलाती है,
हवा सी भी बल, नहीं वो खाती है.

बालों के गजरे को, वो छुपाती है,
आंखों के कजरे को भी ,वो मिटाती है.
घूरती आंखों से, लगता है उसको डर.
औरतों की ज़िंदगी में, अब नहीं आता बसंत.

ना कचनार तन में, दहकते हैं,
ना गुलमोहर ही, मन में महकते हैं.
अमवा भी मन को , नहीं भाता है,
टेसू भी अब ,आंखें चुराता है.

पनघट पर गौरी ,अब नहीं जाती है,
प्यार के गीत भी नहीं, गुनगुनाती है.
दहशतगर्दों से लगता है, उसको डर,
औरतों की ज़िंदगी में, अब नहीं आता बसंत.

रंगों से भी वह, बहुत कतराती है,
उसमें भी खून ,वो बतलाती है.
बच्चों की चीखों से ,दहल जाती है,
रातों को नींदों से, उठ जाती है.

छलती भाषा, लोलुप दृष्टि से, लगता है डर,
बड़ा लफंगा सा आजकल, हो गया है बसंत.
औरतों के आँखों में ,सपने नहीं जगाता बसंत,
औरतों की ज़िंदगी में, अब नहीं आता बसंत,

फूलों के अक्षर, गंध के निवेदन,
कही खो से गये है.
प्रेम की भाषा, मौन की अभिलाषा,
सब सो से गये हैं.

दौड़ती भागती सी कितनी ,
औरतों की ज़िंदगी हो गयी है.
नौकरी, गृहस्थी के बीच में ही,
औरतें बिखर सी गयी है.

सूखे पत्तों से सपने, आंखों से झर रहे हैं.
रस, रूप, गंध, जीवन में, खो से गये हैं.
मन की बातें भी, अब नहीं बताता है बसंत,
औरतों की ज़िंदगी में, अब नहीं आता बसंत.

मेट्रो सी ज़िंदगी, औरतों की, हो सी गयी हैं,
रिश्तों की ख़ुशबू, कही खो सी गयी है.
ज़िंदगी जाने कितने, मोड़ मुड़ रही है,
उम्र की तितलियां, हाथों को छोड़ रही हैं,

चिड़िया की चहचहाट, जंगल में ही छूट गयी है,
माल रेस्रा के शौक में, ज़िंदगी ख़ुद को भूल गयी है.
दिल का दरवाजा भी, अब नहीं खटखटाता बसंत,
कैलेंडर की तारीखों में ही, नजर आता है बसंत.

तकदीर शायरी

वस्ल की बनती हैं इन बातों से तदबीरें कहीं
आरज़ूओं से फिरा करती हैं तक़दीरें कहीं
- हसरत मोहानी

हाथ में चाँद जहाँ आया मुक़द्दर चमका
सब बदल जाएगा क़िस्मत का लिखा जाम उठा
- बशीर बद्र

कभी मैं अपने हाथों की लकीरों से नहीं उलझा
मुझे मालूम है क़िस्मत का लिखा भी बदलता है
- बशीर बद्र

अपने माथे की शिकन तुम से मिटाई न गई
अपनी तक़दीर के बल हम से निकाले न गए
- जलील मानिकपूरी

छेड़-छाड़ करता रहा मुझ से बहुत नसीब
मैं जीता तरकीब से हारा वही ग़रीब
- अख़्तर नज़्मी

जुस्तुजू करनी हर इक अम्र में नादानी है
जो कि पेशानी पे लिक्खी है वो पेश आनी है
- इमाम बख़्श नासिख़


कब हँसा था जो ये कहते हो कि रोना होगा
हो रहेगा मेरी क़िस्मत में जो होना होगा
- अज्ञात

खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है
- फ़िराक़ गोरखपुरी

ख़ुदा तौफ़ीक़ देता है जिन्हें वो ये समझते हैं
कि ख़ुद अपने ही हाथों से बना करती हैं तक़दीरें
- अज्ञात

किसी के तुम हो किसी का ख़ुदा है दुनिया में
मेरे नसीब में तुम भी नहीं ख़ुदा भी नहीं
- अख़्तर सईद ख़ान

कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
- बहादुर शाह ज़फ़र

क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
कुछ दूर अपने हाथ से जब बाम रह गया
- क़ाएम चाँदपुरी

बद-क़िस्मती को ये भी गवारा न हो सका
हम जिस पे मर मिटे वो हमारा न हो सका
- शकेब जलाली

बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ल-ए-बहार में
- बहादुर शाह ज़फ़र

दौलत नहीं काम आती जो तक़दीर बुरी हो
क़ारून को भी अपना ख़ज़ाना नहीं मिलता
- मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
 
लिक्खा है जो तक़दीर में होगा वही ऐ दिल
शर्मिंदा न करना मुझे तू दस्त-ए-दुआ का
- आग़ा हज्जू शरफ़

मक़्बूल हों न हों ये मुक़द्दर की बात है
सज्दे किसी के दर पे किए जा रहा हूँ मैं
- जोश मलसियानी

न तो कुछ फ़िक्र में हासिल है न तदबीर में है
वही होता है जो इंसान की तक़दीर में है
- हैरत इलाहाबादी

रोज़ वो ख़्वाब में आते हैं गले मिलने को
मैं जो सोता हूँ तो जाग उठती है क़िस्मत मेरी
- जलील मानिकपूरी

तदबीर से क़िस्मत की बुराई नहीं जाती
बिगड़ी हुई तक़दीर बनाई नहीं जाती
- दाग़ देहलवी

Thursday, September 17, 2020

कुछ और सुलझाना बाकी है!

पतझड़ से बिखरते, रिश्तों को, पग-पग से उठाना बाकी है!
रफ़्ता-रफ़्ता चल ज़िंदगी, कुछ और सुलझाना बाकी है!

शास्वत समर्पित, इन रिश्तों को, हर दिल में टटोलना बाकी है!
सहेजना है, तिनका-तिनका इनको, दिल को दर्पण बनाना बाकी है!

निज-निजता की, रेल-पेल में, रिश्ते सब बे रंग हो गए!
भावनाओ के मधुर रस का, इक रंग चढ़ाना बाकी है!

आत्मनिर्भरता के, घन चक्कर में, रिश्ते सब चकना चूर हुये है,
कुछ तो जुड़ गए, कुछ को जुड़वाना अभी बाकी है!

रिश्ते तो, जीवन की सफलता के पैमाने है, 
इनमें कुछ जाम छलक चुका है, और कुछ छलकाना अभी बाकी है!

रिश्ते में तो, प्रेम और मर्यादा की बहती गंगा है,
इसमें कुछ पतवार चल चुकी है, अभी कुछ पतवार चलाना बाकी है!

पतझड़ से बिखरते, रिश्तों को, पग-पग से उठाना बाकी है!
रफ़्ता-रफ़्ता चल ज़िंदगी, कुछ और सुलझाना बाकी है!

क्या खाक इतरा के चलूँ.

चार दिन की जिंदगी, 
मैं किस से कतरा के चलूँ. 
खाक हूँ, मैं खाक पर, 
क्या खाक इतरा के चलूँ. 

Wednesday, September 16, 2020

जिंदगी को चलते देखा है।

मेरी इन आंखों ने आंखों से
जिंदगी को चलते देखा है।
ठहरा रहता है सूरज पर मेरी नजरों ने
उसको भी चलते देखा है।
चंदा मामा को भी मैंने
घटते और बढ़ते देखा है।
पेड़ की डालियों को
अठखेलियां करते देखा है।
इन बादलों को भी मैंने एक दूजे के संग
हाथ पकड़कर चलते देखा है।
फिर इन्हें बिना भेदभाव
गांव से लेकर शहर तक बरसते देखा है।
चिड़ियों के चहचहाने से लेकर
इस आसमां का सफर तय करते देखा है।
देखा है इन आंखों ने खुद की आंखों से
सावन को बरसते देखा है।
इन वादियों इन फिजाओं को भी
मैंने रंग बदलते देखा है।
सुबह को उठते और शाम को मैंने
ढलते देखा है।
बिना पानी के जीवन को
मैंने कई दफा चलते देखा है।
लोगों को एक दूसरे के लिए
लोगों पर मरते देखा है।
पलक झपकते ही अपने सपनों को
आसमान में उड़ते देखा है।
समुद्र की लहरों को
किनारों को छूते देखा है।
पर्वतों से निकलती नदियों को
सागर में जाकर गिरते देखा है।
त्योहारों पर भी घर को
दुल्हन की तरह सजते देखा है।
मेरी इस ज़िंदगी ने ज़िंदगी का
सफर तय करते देखा हैं।
देखा है मेरी इन आंखों ने
लोगों को लोगों के सामने
हाथ को पसारते देखा है।
ज़िंदगी में बहुत से लोगों को
उनकी हंसी पल को पलकों में संजोते देखा है।
कट जाते हैं कैसे सुख और दुख
मैंने अपने जीते जी देखा है।
इस मिट्टी में बीज डालने पर
उसमें से फल को देते देखा है।
उन नन्हे हाथों को मैंने मां पापा का
हाथ पकड़ कर चलते देखा है।
देखा है मेरी इन आंखों में जीवन को जीते देखा है।

Tuesday, September 15, 2020

तू जो देखे मुझे मैं निखर जाता हूं|

तू जो देखे मुझे मैं निखर जाता हूं|
चांद बनकर जहां में बिखर जाता हूं|

यार जाना कहां है पता था मुझे,
जान ख़ुशबू से तेरी ठहर जाता हूं|

इश्क़ कहता है चाहत से थामो मुझे,
स्याहियों सी कलम की बिखर जाता हूं|

जिस्म से तो हवाएं गुजरती थी तब,
सांसे ख़ुशबू हो तेरी संवर जाता हूं|

प्यार मुझसे ये बोला कि देखो 'दोस्त',
दिल के पत्थर मिले हैं जिधर जाता हूं|

समझ न पाए

बहुत ही कोशिश की, जरा हम भी बदले से जाएं
पर कैसे अब तक यह मन, बात समझ न पाए ।
अपनों से दर्द मिले थे अकसर
शिकवा-शिकायत चलता ज्यादा- कमतर
अनजान भी कैसे चोट पहुंचाए, मन समझ न पाए ।
ना कोई रिश्ता, शत्रुता की ठौर कहां
बिन समझे ही, कैसा शोर यहां
सब एक हैं, काहे को पछताए, मन समझ न पाए ।
चन्द दिवस का साथ है अपना
यहां कहां हम को, इतिहास है रचना
बिन समझे ही क्यूं बैर हैं पाले, मन समझ न पाए ।

न जाने कब बड़े हो गए

छोड़कर बचपन की उन हसीन गलियों को
न जाने कब बड़े हो गए
बचपन की वह गलियां भी अब सड़के बन गई
जहां हम दोस्तों संग दौड़ा करते थे
बचपन की वह छोटी दुकानें भी अब इमारतें बन गई
जहां हम रोज एक सिक्का लेकर जाया करते थे

बारिशों की बूंदों में अब वह मजा कहां
जिनमें हम बचपन में भीगा करते थे
खेतों की मिट्टी में अब वो ख़ुशबू कहां
जिससे बचपन में हम घर बनाकर ख़ेला करते थे
बचपन के उन सुनहरे लम्हों को यादों में संजोए
न जाने कब बड़े हो गए

बड़े याद आते हैं बचपन के वो दिन
जब दोस्तों संग हम आवारा हुआ करते थे
न कोई पराया था, ना काई दुश्मन
अब अपने पराए में सिमट गए
न जाने कब बड़े हो गए

सलीका, बेसलीका शायरी

बात चाहे बे-सलीक़ा हो 'कलीम'
बात कहने का सलीक़ा चाहिए
- कलीम आजिज़

शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में 
ऐब भी करने को हुनर चाहिए 
-मीर तक़ी मीर

किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का
जो धूप छाँव से रिश्ता बनाए रहता है
- अतुल अजनबी

मिलने-जुलने का सलीक़ा है ज़रूरी वर्ना
आदमी चंद मुलाक़ातों में मर जाता है
- निदा फ़ाज़ली

रोने वाले तुझे रोने का सलीक़ा ही नहीं 
अश्क पीने के लिए हैं कि बहाने के लिए 
-आनंद नारायण मुल्ला


सलीक़ा बोलने का हो तो बोलो 
नहीं तो चुप भली है लब न खोलो 
-वक़ार मानवी

खुल के मिलने का सलीक़ा आप को आता नहीं 
और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नहीं 
-वसीम बरेलवी

कुछ बोल गुफ़्तुगू का सलीक़ा न भूल जाए
शीशे के घर में तुझ को भी रहना न भूल जाए
- किश्वर नाहीद

इस इब्तिदा की सलीक़े से इंतिहा करते 
वो एक बार मिले थे तो फिर मिला करते 
-अनवर 

अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो 
संग-ए-मरमर पे चलोगे तो फिसल जाओगे 
-इक़बाल अज़ीम

वो झूट बोल रहा था बड़े सलीक़े से 
मैं ए'तिबार न करता तो और क्या करता 
-वसीम बरेलवी

आँखों को देखने का सलीक़ा जब आ गया
कितने नक़ाब चेहरा-ए-असरार से उठे
- अकबर हैदराबादी

अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो
संग-ए-मरमर पे चलोगे तो फिसल जाओगे
- इक़बाल अज़ीम

हमें सलीक़ा न आया जहाँ में जीने का
कभी किया न कोई काम भी क़रीने का
- फ़ारिग़ बुख़ारी

है कुछ अगर सलीक़ा है कुछ अगर क़रीना
मरने की तरह मरना जीने की तरह जीना
- मुनव्वर लखनवी

Monday, September 14, 2020

तेरी तस्वीर लगा दी है तो घर लगता है

एक वीराना जहां उम्र गुज़ारी मैंने
तेरी तस्वीर लगा दी है तो घर लगता है

अपना चेहरा तलाश करना है
गर नहीं आईना तो पत्थर दे

उठी निगाह तो अपने ही रू-ब-रू हम थे
ज़मीन आईना-ख़ाना थी चार-सू हम थे

ख़मोश हो गए इक शाम और उसके बाद
तमाम शहर में मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू हम थे

क्यों ये सैलाब सा है आंखों में
मुस्कुराए थे हम ख़याल आया. 

मैं सारे शहर का पानी शराब कर दूंगा

मुझे गिलास के अंदर ही क़ैद रख वर्ना
मैं सारे शहर का पानी शराब कर दूंगा
महाजनों से कहो थोड़ा इंतिज़ार करें
शराब-ख़ाने से आकर हिसाब कर दूंगा

Sunday, September 13, 2020

फ़ानी बदायूंनी शायरी

कुछ बस ही न था, वर्ना ये इल्ज़ाम न लेते 
हम तुझ से छुपा कर भी तेरा नाम न लेते. 
नजरें न बचाना था, नजर मुझसे मिलाकर, 
पैगाम न देना था तो पैगाम न लेते. 

ना-उमीदी मौत से कहती है अपना काम कर 
आस कहती है ठहर ख़त का जवाब आने को है 

सुने जाते न थे तुम से मिरे दिन रात के शिकवे 
कफ़न सरकाओ मेरी बे-ज़बानी देखते जाओ 

ज़िक्र जब छिड़ गया क़यामत का 
बात पहुँची तिरी जवानी तक 

मौजों की सियासत से मायूस न हो 'फ़ानी' 
गिर्दाब की हर तह में साहिल नज़र आता है 

दुनिया मेरी बला जाने महँगी है या सस्ती है 
मौत मिले तो मुफ़्त न लूँ हस्ती की क्या हस्ती है 

आबादी भी देखी है वीराने भी देखे हैं 
जो उजड़े और फिर न बसे दिल वो निराली बस्ती है 

यूँ चुराईं उस ने आँखें सादगी तो देखिए 
बज़्म में गोया मिरी जानिब इशारा कर दिया 

ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं 
हाए इस क़ैद को ज़ंजीर भी दरकार नहीं 

मुझे बुला के यहाँ आप छुप गया कोई 
वो मेहमाँ हूँ जिसे मेज़बाँ नहीं मिलता 

रोज़ है दर्द-ए-मोहब्बत का निराला अंदाज़ 
रोज़ दिल में तिरी तस्वीर बदल जाती है 

मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख 
रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर न जाए 

यूँ न क़ातिल को जब यक़ीं आया 
हम ने दिल खोल कर दिखाई चोट 

रोने के भी आदाब हुआ करते हैं 'फ़ानी' 
ये उस की गली है तेरा ग़म-ख़ाना नहीं है 

रूह घबराई हुई फिरती है मेरी लाश पर 
क्या जनाज़े पर मेरे ख़त का जवाब आने को है 

जीने भी नहीं देते मरने भी नहीं देते 
क्या तुम ने मोहब्बत की हर रस्म उठा डाली 

रंज व गम शायरी

हाल तुम सुन लो मिरा देख लो सूरत मेरी 
दर्द वो चीज़ नहीं है कि दिखाए कोई 
- जलील मानिकपूरी

यारो नए मौसम ने ये एहसान किए हैं 
अब याद मुझे दर्द पुराने नहीं आते 
- बशीर बद्र

हाथ रख रख के वो सीने पे किसी का कहना 
दिल से दर्द उठता है पहले कि जिगर से पहले 
- हफ़ीज़ जालंधरी

दिल सरापा दर्द था वो इब्तिदा-ए-इश्क़ थी 
इंतिहा ये है कि 'फ़ानी' दर्द अब दिल हो गया 
- फ़ानी बदायुनी

ज़ख़्म ही तेरा मुक़द्दर हैं दिल तुझ को कौन सँभालेगा 
ऐ मेरे बचपन के साथी मेरे साथ ही मर जाना 
- ज़ेब ग़ौरी

तुम मिटा सकते नहीं दिल से मिरा नाम कभी 
फिर किताबों से मिटाने की ज़रूरत क्या है 
- अज्ञात

लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से 
तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से 
- जाँ निसार अख़्तर

इस डूबते सूरज से तो उम्मीद ही क्या थी 
हँस हँस के सितारों ने भी दिल तोड़ दिया है 
- महेश चंद्र नक़्श

एक चेहरा है जो आँखों में बसा रहता है 
इक तसव्वुर है जो तन्हा नहीं होने देता 
- जावेद नसीमी

आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो 
बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो 
- अहमद फ़राज़

मोहब्बत एक ख़ुशबू है हमेशा साथ चलती है 
कोई इंसान तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहता 
- बशीर बद्र

ज़िंदगी यूँही बहुत कम है मोहब्बत के लिए 
रूठ कर वक़्त गँवाने की ज़रूरत क्या है 
- अज्ञात

पूछ लेते वो बस मिज़ाज मिरा 
कितना आसान था इलाज मिरा 
- फ़हमी बदायूनी

हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी 
क्यूँ तुम आसान समझते थे मोहब्बत मेरी 
- अमीर मीनाई

ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा

ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा 
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा 

अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा 
सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा 

तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है 
किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा 

आरज़ू ही न रही सुब्ह-ए-वतन की मुझ को 
शाम-ए-ग़ुर्बत है अजब वक़्त सुहाना तेरा 

ये समझ कर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है 
काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा 

ऐ दिल-ए-शेफ़्ता में आग लगाने वाले 
रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेरा 

तू ख़ुदा तो नहीं ऐ नासेह-ए-नादाँ मेरा 
क्या ख़ता की जो कहा मैं ने न माना तेरा

Saturday, September 12, 2020

नाजुकी उन लबों की क्या कहिए

क्यों हिज्र के शिकवे करता है, 
क्यों दर्द के रोने रोता है. 
अब इश्क किया तो सब्र भी कर, 
इसमें तो यही कुछ होता है. 
Hafiz jalandhari 

दर्द को दिल में जगह दो अकबर 
इल्म से शायरी नहीं होती 
-अकबर इलाहाबादी 

फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं 
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहीं मातम भी होते हैं 
-दाग़ देहलवी

तुम मेरे पास होते हो गोया 
जब कोई दूसरा नहीं होता 
-मोमिन 

नाजुकी उन लबों की क्या कहिए
पंखुड़ी एक गुलाब की सी है 
मीर उन नीमबाज आंखों में 
सारी मस्ती शराब की सी है 
-मीर

लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले 
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले 
- शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

घर लौट के रोएँगे माँ बाप अकेले में 
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में 
-क़ैसर-उल जाफ़री

'वसीम' सदियों की आँखों से देखिए मुझ को
वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी  दास्ताँ नहीं होता
-वसीम बरेलवी 

न पूछो हुस्न की तारीफ़ हम से 
मोहब्बत जिस से हो बस वो हसीं है 
- आदिल फ़ारूक़ी

ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहाँ 
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया 
- साहिर लुधियानवी

गिले शिकवे कहाँ तक होंगे आधी रात तो गुज़री 
परेशाँ तुम भी होते हो परेशाँ हम भी होते हैं 
-दाग़ देहलवी

Thursday, September 10, 2020

दर्द और मोहब्बत शायरी




बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता, 
जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता! 


दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है 
और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता 
-अहमद फ़राज़

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें 
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं 
-फ़िराक़ गोरखपुरी 


और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का 
सुब्ह का होना दूभर कर दें रस्ता रोक सितारों का 
-इब्न-ए-इंशा

कुछ कह रही हैं आप के सीने की धड़कनें 
मेरा नहीं तो दिल का कहा मान जाइए 
-क़तील शिफ़ाई

जीने में क्या राहत थी, मरने में तकलीफ़ है क्या
जब दुनिया क्यों हंसती थी, अब दुनिया क्यों रोती है
-साग़र निज़ामी

तुम ही न सुन सके अगर क़िस्सा-ए-ग़म सुनेगा कौन 
किस की ज़बाँ खुलेगी फिर हम न अगर सुना सके 
-हफ़ीज़ जालंधरी
सुंदर कोमल सपनों की बारात गुज़र गई जानाँ 
धूप आँखों तक आ पहुँची है रात गुज़र गई जानाँ 
- परवीन शाकिर

अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हें जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो
- बशीर बद्र
अभी ज़िंदा हूं लेकिन सोचता रहता हूं ख़ल्वत में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने
- साहिर लुधियानवी

आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अंजाम बस इतना है
जब दिल में तमन्ना थी अब दिल ही तमन्ना है
- जिगर मुरादाबादी

ज़िन्दगी से न हारने का वादा हैं।

मुस्कुराहट इसलिए नहीं है कि खुशियां ज़िंदगी में ज़्यादा हैं, 
मुस्कुराहट इसलिए है कि ज़िन्दगी से न हारने का वादा हैं। 

परज़माने में जमाने में ज़माने बीत जाते हैं - राहुल अवस्थी की गजलें

सभी की ज़िन्दगी में प्रीत की ये रीत होती है
ज़रा-सी हार होती है, ज़रा-सी जीत होती है
किसी का गीत होता है किसी की ज़िन्दगानी पर
किसी की ज़िन्दगानी ही किसी का गीत होती है.

जहां अपनी सदाओं का ज़ख़ीरा छोड़ आये हैं
निगाहों में मुहब्बत का ममीरा छोड़ आये हैं
तुला पर सब्र की, आत्मा अधीरा छोड़ आये हैं
ज़मीं की कोख में अनमोल हीरा छोड़ आए हैं
नज़र की हुक़्मरानी का नगर होगा, पता क्या था
वही अपनी दीवानी का शहर होगा, पता क्या था. 

सफ़र का, रास्तों का रौब मंज़िल पर नहीं पड़ता
असर मक़तूल की चीखों का क़ातिल पर नहीं पड़ता
नदी के दर्द का कुछ भाव साहिल पर नहीं पड़ता
किसी भी चीज़ का कोई असर दिल पर नहीं पड़ता
निज़ामे-इश्क़ का ऐसा असर होगा, पता क्या था
बड़ा आसान-सा मुश्किल सफ़र होगा, पता क्या था

हमारी साधना-आराधना सम्वर्द्धना तक थी
हमारी सिद्धि शाश्वत सर्जना से वर्जना तक थी
हमारी ख्याति स्वीकृति से सहज आलोचना तक थी
वही सब हो पड़ा, जिसकी न हमको कल्पना तक थी
गदर की नाभि में ही मो’तबर होगा, पता क्या था
किसी की रूह में ही जानवर होगा, पता क्या था. 

भूमि-सुधारों के आंगन में मौत बिछाये जाती हो
खेतों में, खलिहानों में अंगार उगाये जाती हो
मजदूरों की अन्तड़ियां-हड्डियां चबाये जाती हो
महँगाई की डायन बोटी-बोटी खाये जाती हो

कष्टों से छुटकारे का नुस्ख़ा नायाब न मिलता हो
सत्ता की आंखों में कोई सच्चा ख़्वाब न मिलता हो
क्या खोया, क्या पाया, इसका ठीक हिसाब न मिलता हो
उठते हुए सवालों का जब सही जवाब न मिलता हो

तक कोई अदना-सा आकर हर जवाब लिख देता है
पत्थरदिल दिल्ली के मुंह पर इंकलाब लिख देता है. 

आँखों मे डोरे तिर आये, ऐसी साज-सँवार ग़ज़ब है
चटखारों में लार गिरा दी, ऐसी छौंक-बघार ग़ज़ब है

खेत-खेत में ऊसर बोया, मेढ़-मेढ़ पर नागफनी को
खलिहानों में भूख उगा दी, ऐसा भूमिसुधार ग़ज़ब है

कल पंद्रह अगस्त के जलसे में प्रायः दस लोग नहीं थे
आज शाम के फ़ैशन शो में इतनी भीड़ अपार, ग़ज़ब है

ले जाओे हम कुछ न कहेंगे, माटी में रक्खा ही क्या है
बलिदानी भू दान करा दी, अपनी भी सरकार ग़ज़ब है

दस-दस क़ैदी चीख रहे थे - हमने मारा, हमने मारा
क़त्ल बिना ही इतने क़ातिल, अपना थानेदार ग़ज़ब है. 

न तुम बदले, न हम बदले, वही तुम हो, वही हम हैं
मगर तुम अपनी और हम अपनी उम्मीदों पे क़ायम हैं

तुम्हारी अपनी कुछ ख़ुशियां, हमारी अपनी कुछ ख़ुशियां
तुम्हारे अपने कुछ ग़म हैं, हमारे अपने कुछ ग़म हैं

तुम्हें फागुन लुभाता है, हमें सावन बुलाता है
तुम्हारे अपने मौसम हैं, हमारे अपने मौसम हैं. 

किसी की ज़िन्दगी के नाज़ पलकों पर उठाने की
अरे ! दरकार क्या है रात-दिन आंसू बहाने की

दबे जाओ, कुचे जाओ, मरे जाओ, जिये जाओ
ज़रूरत क्या पड़ी है इस तरह वादा निभाने की

किसी से जीतने की सोच के कुछ ऐसा लगता है
कहीं आदत न पड़ जाये किसी से मात खाने की

कभी मुझसे मिलो भी तो संभल कर ऐ जहां वालों
बुरी आदत है मेरी आज भी दिल में समाने की

मेरे मालिक ! मुझे सीखों से अपनी रोक लेगा क्या
कहां आदत है अपनी आदतों से बाज आने की. 

फ़साने बीत जाते हैं, तराने बीत जाते हैं
सताने के, मनाने के बहाने बीत जाते हैं
उखड़ने में क़दम लगता नहीं है वक़्त कुछ भी, पर
ज़माने में जमाने में ज़माने बीत जाते हैं! 

जो रस्ता है, वो रस्ता है, वो मंज़िल हो नहीं सकता
जो दरिया है, वो दरिया है, वो साहिल हो नहीं सकता

जो पाना है, वो पाना है, जो खोना है, वो खोना है
जो हासिल हो नहीं सकता, वो हासिल हो नहीं सकता

वो दुनियादार है, दुनिया के क़ाबिल होगा तो होगा
हमारी दीनदारी के मुक़ाबिल हो नहीं सकता
ख़ुशी में ग़म सँजोना है, दिलों में दर्द बोना है
कभी रो कर के हँसना है, कभी हँस करके रोना है

मोहब्बत की अजब तक़दीर है, समझो ज़रा समझो
जो मिल जाये तो मिट्टी है, जो खो जाये तो सोना है

नहीं होगा, नहीं होगा, नहीं होगा, न होना जो
वही होगा, वही होगा, वही होगा, जो होना है

यूं न देखा करो रूह कोई बावली-बावली हो न जाए
ज़िन्दगी गांव वाली शहर में जंगली-जंगली हो न जाए

छांह की धूप के आचमन से, चांदनी-भर नज़र की छुअन से
सूत-सी ऊन की एक लच्छी मलमली-मलमली हो न जाए

दर-ब-दर की न अनुभूति डर की, सोच क्या कुमुदिनी को भ्रमर की
इस तरह रंगतो-बू कमल की पाटली-पाटली हो न जाए

रास, मावस लिये ज्वार आये, बाद-मधुमास पतझार आये
चम्पई गेंदों की बनावट गुड़हली-गुड़हली हो न जाये

राह सूरजमुखी की बनाये, रातरानी महोत्सव मनाये
महमहाती महक केवड़े की सन्दली-सन्दली हो न जाये

तोलना, बोलना-खिलखिलाना, नैन से हाथ रग-रग मिलाना
मेल के खेल की बाज़ियों में धांधली-धांधली हो न जाये

एक पनघट कहीं सज न उट्ठे, आग का राग ही बज न उट्ठे
बांसुरी-बांसुरी चाहतों की तोतली-तोतली हो न जाये

हाथ में बर्फ अंगार ले-ले, धार ठहरी न रफ्तार ले-ले
धड़कनों की कली खिल न जाये - बेकली-बेकली हो न जाये

सिर्फ़ चिंगारियों की झड़ी हो, ओस की बूंद बस झड़ पड़ी हो
ताल के शांत जल में खलल-खल खलबली-खलबली हो न जाये


अदब की बांसुरी के स्वर न ऐसे भूल पाओगे
हुनर की फ़िक्रमंदी में कहीं तो दिल लगाओगे
अभी तो साथ ही हम अभी तो सुन रहे हो बस
कभी जब हम न होंगे तो हमे तुम गुनगुनाओगे! 

-राहुल अवस्थी

Tuesday, September 8, 2020

मैं नतीज़ा जानते हुए भी चुप रहता हूं

ख़बर को ख़बरदार कहकर जाने देता हूं
मैं नतीज़ा जानते हुए भी चुप रहता हूं

बेस्वाद ज़िंदगी का हर स्वाद चखता हूं
मुश्किलों कर ज़ाल में लगातार फंसता हूं

चलता चलता राहों में इश्क़ कर पत्ते बिखेरता हूं
ग़ुलाम होकर भी मैं 'रानी' कर लिये लड़ता हूं

मौत से लड़कर भी मैं 'मौत' को गले लगाता हूं
ज़िन्दगी का 'इस्तीफ़ा' सिर्फ़ ख़ुदा को सौंपता हूं

ख़ामोशी का 'कम्बल' ओढ़े बहुत बोल देता हूं
'आशु' लिखता लिखता मैं 'ज़िन्दगी' लिख देता हूं

सदियों, सदियाँ शायरी

मैं था सदियों के सफ़र में 'अहमद'
और सदियों का सफ़र था मुझ में
- अहमद ख़याल


दो तरफ़ था हुजूम सदियों का
एक लम्हा सा दरमियां मैं था
- एजाज़ आज़मी


तिरी सदा का है सदियों से इंतिज़ार मुझे
मिरे लहू के समुंदर ज़रा पुकार मुझे
- ख़लील-उर-रहमान आज़मी


मुमकिन है कि सदियों भी नज़र आए न सूरज
इस बार अंधेरा मिरे अंदर से उठा है
- आनिस मुईन

उन्हें सदियों न भूलेगा ज़माना
यहां जो हादसे कल हो गए हैं
- नासिर काज़मी


सदियों से किनारे पे खड़ा सूख रहा है
इस शहर को दरिया में गिरा देना चाहिए
- मोहम्मद अल्वी

आवाज़ों का बोझ उठाए सदियों से
बंजारों की तरह गुज़ारा करता हूं
- अबरार आज़मी


सदियों से ज़माने का ये अंदाज़ रहा है
साया भी जुदा हो गया जब वक़्त पड़ा है
- जमील मुरस्सापुरी

इक रात है फैली हुई सदियों पर
हर लम्हा अंधेरों के असर में है
- जमुना प्रसाद राही


हर लम्हे मैं सदियों का अफ़्साना होता है
गर्दिश में जब सांसों का पैमाना होता है
- सरफ़राज़ ख़ालिद

शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती

शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती
या हमीं को ख़बर नहीं होती

हम ने सब दुख जहां के देखे हैं
बेकली इस क़दर नहीं होती

नाला यूं ना-रसा नहीं रहता
आह यू बे-असर नहीं होती

चांद है कहकशां है तारे हैं
कोई शय नामा-बर नहीं होती

दोस्तो इश्क़ है ख़ता लेकिन
क्या ख़ता दरगुज़र नहीं होती

रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती

बे-क़रारी सही नहीं जाती
ज़िंदगी मुख़्तसर नहीं होती

एक दिन देखने को आ जाते
ये हवस उम्र भर नहीं होती

हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता
हर किसी की नज़र नहीं होती

Monday, September 7, 2020

अपनी आदतों को बदलना चाहता हूं

अपनी आदतों को बदलना चाहता हूं
बढ़ती उम्र के साथ सुधरना चाहता हूं ।

सुकून मिले ऐसा कुछ करना चाहता हूं
हुई बहुत आपा धापी और भाग दौड़
अब थोड़ा चैन औ आराम चाहता हूं ।

सड़कों शहरों में भटकना बहुत हुआ
घर की देहरी में गुफ़्तगू चाहता हूं ।

किसी और या दूसरे की परवाह क्या
सिर्फ़ अपने साथ मुक़ाबला चाहता हूं ।

अपनी बेगम से मिले अरसा हो गया
बच्चों का क़िस्सा भी पुराना हो गया

मां के पास बैठे भी ज़माना हो गया
घर की रोटी का स्वाद भी बेगाना हो गया ।

धीमे चल ज़िन्दगी , सांस की मोहलत उतनी ही है,
फिर क्यों भागते रहने का रोग जान लेवा हो गया ?

कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है

अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है 
कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है 
-ज़ेहरा 

एक चेहरे में तो मुमकिन नहीं इतने चेहरे 
किस से करते जो कोई इश्क़ दोबारा करते 
-उबैदुल्लाह अलीम

देखते देखते इक घर के रहने वाले 
अपने अपने ख़ानों में बट जाते हैं 
-ज़ेहरा निगाह

अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए 
अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए
-उबैदुल्लाह अलीम

Saturday, September 5, 2020

इशारा शायरी

दूर साहिल से कोई शोख़ इशारा भी नहीं
डूबने वाले को तिनके का सहारा भी नहीं
- जुनैद हज़ीं लारी


जो उस तरफ़ से इशारा कभी किया उस ने
मैं डूब जाऊंगा दरिया को पार करते हुए
- ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

विज्ञापन

वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना
उस को ख़त लिखना तो मेरा भी हवाला देना
- अज़हर इनायती


कुछ इशारा जो किया हम ने मुलाक़ात के वक़्त
टाल कर कहने लगे दिन है अभी रात के वक़्त
- इंशा अल्लाह ख़ान इंशा

विज्ञापन

भांप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं
- लाला माधव राम जौहर


कोई इशारा दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तिरा इंतिज़ार करने लगे
- वसीम बरेलवी

एक दिन मेरी ख़ामुशी ने मुझे
लफ़्ज़ की ओट से इशारा किया
- अंजुम सलीमी


ऐ आसमां किस लिए इस दर्जा बरहमी
हम ने तो तिरी सम्त इशारा नहीं किया
- अंबरीन हसीब अंबर

तुम ने किया है तुम ने इशारा बहुत ग़लत
दरिया बहुत दुरुस्त किनारा बहुत ग़लत
- नबील अहमद नबील


पा के तूफ़ां का इशारा दरिया
तोड़ देता है किनारा दरिया
- अब्दुल मन्नान तरज़ी

Friday, September 4, 2020

आज से ही चलना होगा

जो वक़्त हैं आज साथ में
वो हाथ में कल ना होगा
पानी है मंज़िल कल तुम्हें तो
आज से ही चलना होगा

चमकना है अगर कुंदन सा तो
तेज़ आग में तपना होगा
गर सारे सपने करने पूरे
तो नींद से अब जगना होगा ...

पानी है मंज़िल कल तुम्हें तो
आज से ही चलना होगा

स्वर्ग, नर्क ये सब यही है
पाना है तो मरना होगा
गर पानी है रात नींद चैन की
तो दिन भर अब थकना होगा..

पानी है मंज़िल कल तुम्हें तो
आज से ही चलना होगा

रात घनी है , कही प्रभा नहीं है
ख़ुद दीपक सा जलना होगा
पाँव में छालें , कोई पास नहीं है
अब घुटनो से ही बढ़ना होगा

पानी है मंज़िल कल तुम्हें तो
आज से ही चलना होगा

उस्ताद, शिक्षक, Teacher, गुरु शायरी

अदब तालीम का जौहर है ज़ेवर है जवानी का
वही शागिर्द हैं जो ख़िदमत-ए-उस्ताद करते हैं
-चकबस्त ब्रिज नारायण

देखा न कोहकन कोई फ़रहाद के बग़ैर
आता नहीं है फ़न कोई उस्ताद के बग़ैर
-अज्ञात


जैसे सय्यादों को सय्यादी से रहती है ग़रज़
काम उस्तादों को वैसे अपनी उस्तादी से है
- ज़फ़र कमाली

जिन के किरदार से आती हो सदाक़त की महक
उन की तदरीस से पत्थर भी पिघल सकते हैं
-अज्ञात


अब मुझे मानें न मानें ऐ 'हफ़ीज़'
मानते हैं सब मिरे उस्ताद को
-हफ़ीज़ जालंधरी

किस तरह 'अमानत' न रहूँ ग़म से मैं दिल-गीर
आँखों में फिरा करती है उस्ताद की सूरत
-अमानत लखनवी

शागिर्द हैं हम 'मीर' से उस्ताद के 'रासिख़'
उस्तादों का उस्ताद है उस्ताद हमारा
-रासिख़ अज़ीमाबादी

उस्ताद के एहसान का कर शुक्र 'मुनीर' आज
की अहल-ए-सुख़न ने तिरी तारीफ़ बड़ी बात
-मुनीर शिकोहाबादी

वही शागिर्द फिर हो जाते हैं उस्ताद ऐ 'जौहर'
जो अपने जान-ओ-दिल से ख़िदमत-ए-उस्ताद करते हैं
-लाला माधव राम जौहर

कुछ तड़पने का सिसकने का मज़ा लेने दे
इतनी ताजील मिरे क़त्ल में जल्लाद न कर
- अब्दुल अलीम आसि

ज़माना शायरी

ज़माना मुझ से जुदा हो गया ज़माना हुआ
रहा है अब तो बिछड़ने को मुझ से तू बाक़ी
- आबिद अदीब


अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल
हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया
- जिगर मुरादाबादी


'मीर'-साहिब ज़माना नाज़ुक है
दोनों हाथों से थामिए दस्तार
- मीर तक़ी मीर


हक़ीक़तों में ज़माना बहुत गुज़ार चुके
कोई कहानी सुनाओ बड़ा अंधेरा है
- बशीर बद्र


इक ज़माना है हवाओं की तरफ़
मैं चराग़ों की तरफ़ हो जाऊं
- मंज़ूर हाशमी


ज़माना और अभी ठोकरें लगाए हमें
अभी कुछ और संवर जाना चाहते हैं हम
- वाली आसी

क्यूं ज़माना ही बदलता है तुझे
तू ज़माने को बदलता क्यूं नहीं
- महफूजुर्रहमान आदिल


इक ज़माना मिरी नज़र में रहा
इक ज़माना नज़र नहीं आता
- दाग़ देहलवी

इतना न बन-संवर कि ज़माना ख़राब है
मैली नज़र से डर कि ज़माना ख़राब है
- शबाब ललित


ज़माना लाख समझता हो अहमियत मेरी
मिरी नज़र में नहीं कोई हैसियत मेरी
- सिया सचदेव

मेरे हिस्से में आराम नहीं

मेरे हिस्से में आराम नहीं,
ख़ालीपन का यहाँ कोई काम नहीं,

बेचैनी हैं, ग़म हैं, हर तरह के सितम हैं,
यहां सब ख़ास हैं, कोई आम नहीं,

वो जो चेहरे पर खिल जाती हैं फूलों की तरह,
कैसे मैं उसको पुकारूँ, मुझको बताया गया है,
उसका कोई नाम नहीं,

सुना हैं मय हर रंज भुला देता है,
मेरा होश जो पूरी तरह उड़ा दे, ऐसा कोई जाम नहीं,

किसी के घर हम भी मेहमान होते,
मग़र कहीं से आता कोई पैगाम नहीं,

हम तो सूरज को सर पे उठाए फ़िरते हैं,
मेरे क़िस्सों में आने वाली कोई शाम नहीं,

मुझसे यहां कोई दोस्ती करें कैसे,
मुझसे ज़्यादा यहां कोई बदनाम नहीं।

Thursday, September 3, 2020

मर तो इंसान तब ही जाता है जब..

ये कफ़न ये कबर ये जनाज़े रस्मे शरीयत है ऐ दोस्त, 
मर तो इंसान तब ही जाता है जब याद करने वाला कोई ना हो।।।

आहट शायरी

ख़ुदा का शुक्र कि आहट से ख़्वाब टूट गया
मैं अपने इश्क़ में नाकाम होने वाला था़
- राना आमिर लियाक़त


हर लहज़ा उस के पांव की आहट पे कान रख
दरवाज़े तक जो आया है अंदर भी आएगा
- सलीम शाहिद


तेरे क़दमों की आहट को ये दिल है ढूंढ़ता हर दम
हर इक आवाज़ पर इक थरथराहट होती जाती है
- मीना कुमारी नाज़


बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
- फ़िराक़ गोरखपुरी


किसी आहट में आहट के सिवा कुछ भी नहीं अब
किसी सूरत में सूरत के सिवा क्या रह गया है
- इरफ़ान सत्तार


'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूं न चौंक
इस मातमी जुलूस में इक ज़िंदगी भी है
- अख़्तर होशियारपुरी

कोई दस्तक न कोई आहट थी
मुद्दतों वहम के शिकार थे हम
- पी पी श्रीवास्तव रिंद


अपनी आहट पे चौंकता हूं मैं
किस की दुनिया में आ गया हूं मैं
- नोमान शौक़

शाम ढले आहट की किरनें फूटी थीं
सूरज डूब के मेरे घर में निकला था
- ज़ेहरा निगाह


कोई दस्तक कोई आहट न सदा है कोई
दूर तक रूह में फैला हुआ सन्नाटा है
- वसीम मलिक

Tuesday, September 1, 2020

कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया

कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया 
वो लोग बहुत ख़ुश-क़िस्मत थे 
जो इश्क़ को काम समझते थे 
या काम से आशिक़ी करते थे 
हम जीते-जी मसरूफ़ रहे 
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया 
काम इश्क़ के आड़े आता रहा 
और इश्क़ से काम उलझता रहा 
फिर आख़िर तंग आ कर हम ने 
दोनों को अधूरा छोड़ दिया! 

नसीहत शायरी

साहिल की बस्तियों का सारा घमंड टूटा
सैलाब ने तमाँचा जब तान कर दिया है
- फ़रहत एहसास

सितारे सो गए अंगड़ाई ले कर
कि अफ़्साने का अंजाम आ रहा था
- अब्दुल हमीद अदम


सूरज का घमंड और नहीं तारे के बराबर
ऐसी ही तो बातें हैं इस अंधेर-नगर में
- आरज़ू लखनवी

है इश्क़ का आग़ाज़ ही अंजाम का हासिल
अंजाम नज़र आता है अंजाम से पहले
- नज़र बर्नी


तो जब मेरे किए पर है मेरा अंजाम फिर अंजाम
ये माज़ी हाल मुस्तक़बिल तो हैं ज़ेर-ए-नगीं मेरे
- अंजुम ख़लीक़

अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले
ख़ुद मेरी कहानी भी सुनाएगा कोई और
- आनिस 

हम हैं मुजरिम आप मुल्ज़िम भी नहीं
आप किस अंजाम से घबरा गए
- बद्र-ए-आलम ख़लिश

अपने अंजाम का देखेगा तमाशा कभी वो
जीते-जी हम तो अभी से उसे रोए हुए हैं
- अरमान नज्मी

कितनी रौशन हैं समुंदर की चमकती रातें
डूबती लहरों का अंजाम कभी लिख लेना !
- बाक़र मेहदी

भूले से कोई नाम वफ़ा का नहीं लेता
दुनिया को अभी याद है अंजाम हमारा
- कलीम आजिज़

सितारों से उलझता जा रहा हूँ

सितारों से उलझता जा रहा हूँ 
शब-ए-फ़ुर्क़त बहुत घबरा रहा हूँ 

तिरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ 
जहाँ को भी समझता जा रहा हूँ 

यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है 
गुमाँ ये है कि धोके खा रहा हूँ 


अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट 
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ 

हदें हुस्न-ओ-मोहब्बत की मिला कर 
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ 

ख़बर है तुझ को ऐ ज़ब्त-ए-मोहब्बत 
तिरे हाथों में लुटता जा रहा हूँ 


असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का 
तुझे क़ाइल भी करता जा रहा हूँ 

भरम तेरे सितम का खुल चुका है 
मैं तुझ से आज क्यूँ शरमा रहा हूँ 

उन्हीं में राज़ हैं गुल-बारियों के 
मैं जो चिंगारियाँ बरसा रहा हूँ 
जो उन मा'सूम आँखों ने दिए थे 
वो धोके आज तक मैं खा रहा हूँ 

तिरे पहलू में क्यूँ होता है महसूस 
कि तुझ से दूर होता जा रहा हूँ 

हद-ए-जोर-ओ-करम से बढ़ चला हुस्न 
निगाह-ए-यार को याद आ रहा हूँ 

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों 
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ 
मोहब्बत अब मोहब्बत हो चली है 
तुझे कुछ भूलता सा जा रहा हूँ 

अजल भी जिन को सुन कर झूमती है 
वो नग़्मे ज़िंदगी के गा रहा हूँ 

ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप 
'फ़िराक़' अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ 

चलो एक गीत गुनगुनाते हैं आपस के मतभेद मिटाते हैं

चलो एक गीत गुनगुनाते हैं
आपस के मतभेद मिटाते हैं
कुछ तुम बढ़ो कुछ हम बढ़े
दरमियाँ के फासले मिटाते हैं I
इस मोल तोल की दुनिया में
कुछ बेमोल भी बेच आते हैं
कुछ तुम बोलो कुछ हम बोले
ये मौन बड़ा रुलाता है I
कंकरीली पथरीली राहों पर
कांटे बहुतेरे बिछाते हैं
गैरों की बिसात कहाँ
अपने ही रंग दिखलाते हैं I
गुमसुम बैठी परी है दुनिया
कुछ सतरंगी रंग खिलाते हैं
सुर ताल बेमेल सही
पर एक गीत गुनगुनाते हैं I
आपस के मतभेदों का क्या
ये तो पानी के बुलबुले हैं
प्रेम धारा जब बह चले तो
धारा से ही मिल जाते हैं I
कुछ तुम सुनो कुछ मैं सुनाऊं
उन भूली बिसरी बातों को
फिर से एकाकार हो आज
चलो एक गीत गुनगुनाते हैं I